कारवाँ गुजर गया – गुबार देखते रहे .. वो निकल गयी बस से और हम बस देखते रहे. रोड पर साये उस कुहासे को दिमाग में औड लिया, माने, औड ली चुनरिया तेरे नाम की. रोड पर छाई पीलिया लिए वो प्रकाश स्तंभ भी मात्र देखते रहे ... गवाह बने रहे जो वक्त आने पर गवाही नहीं देंगे (पता नहीं क्यों – उनका पुख्ता वायदा लग रहा है), कि वो तेरे लिए खड़ा था जालिम – तेरे लिए, मैं ये जानता हूँ – तेरे बस में जाने के बाद वो बोझिल क़दमों से चल दिया था. न दामन ही पकड़ा, न उसने पुकारा, मैं आहिस्ता आहिस्ता सा चलता ही आया – बस तेज रफ़्तार से निकल गयी – और मैं – और मैं उससे जुदा हो गया – मैं जुदा हो गया. बेवफा कुछ तो ध्यान दिया होता. नहीं. ये दिल्ली है. सुना है चच्चा ग़ालिब की भी दिल्ली थी और पर हसीनाएं तब भी बेवफा थी और आज भी हैं... बड़े बेआबरू होकर तेरी कुचे से हम निकले ग़ालिब. चच्चा ने जब ये शयर इन बेमुर्रव्त बगेरत के लिए लिखा होगा तब भी शर्म नहीं आयी थी और आज क्या आएगी – जब शोर्ट्स पहन कर देर रात महानगरीय सडकों पर चहलकदमी करती हैं.
दिल वालों की है दिल्ली.. जी साहेब, अब मान गए... तभी तो यहाँ आकर बना हीरो मुंबई में जाके जीरो हो जाता है और देश के बाकी हिस्सों के जीरो (जो चुनाव नहीं जीत पाते) यहाँ दिल्ली में (उच्च सदन) में हीरो हो जाते हैं - कि दुनिया तमाशा देखती है रात के बारह बजे तक ... मुआ राज्य सभा न हुआ फिरोजशाह कोटला का मैदान हो और पाक-हिंद का क्रिकेट का मैच हो.