इस बार नहीं
इस बार जब वोह छोटी सी बच्ची मेरे पास अपनी खरोंच ले कर आएगी
मैं उसे फू फू कर नहीं बहलाऊँगा
पनपने दूँगा उसकी तीस कोइस बार नहीं
इस बार जब मैं चेहरों पर दर्द लिखा देखूँगा
नहीं गूंगा गीत पीड़ा भुला देने वाले
दर्द को रिसने दूँगा , उतारने दूँगा अन्दर गहरे
इस बार नहीं
इस बार मैं न मरहम लगाऊँगा
न ही उठाऊँगा रुई के फाहे
और न ही कहूँगा की तुम आंकें बंद कार्लो ,
गर्दन उधर कर लो मैं दावा लगता हूँ
देखने दूँगा सबको हम सबको खुले नंगे घाव
इस बार नहीं
इस बार जब उलझने देखूँगा ,चत्पताहत देखूँगा
नहीं दौडूंगा उलझी दूर लपेटने
उलझने दूँगा जब तक उलझ सके
इस बार नहीं
इस बार कर्म का हवाला दे कर नहीं उठाऊँगा औजार
नहीं करूंगा फिर से एक नयी शुरुआत
नहीं बनूँगा मिसाल एक कर्मयोगी की
नहीं आने दूँगा ज़िन्दगी को आसानी से पटरी पर
उतारने दूँगा उसे कीचड मैं ,टेढे मेधे रास्तों पे
नहीं सूखने दूँगा दीवारों पर लगा खून
हल्का नहीं पड़ने दूँगा उसका रंग
इस बार नहीं बनने दूँगा उसे इतना लाचार
की पान की पीक और खून का फर्क ही ख़त्म हो जाए
इस बार नहीं
इस बार घावों को देखना है
गौर सेथोड़ा लंबे वक्त तक
कुछ फैसले
और उसके बाद हौसले
कहीं तोह शुरुआत करनी ही होगी
इस बार यही तय किया है
sundar bahut achha lekh laga a kavita kahun .
जवाब देंहटाएंअच्छे विचार हैं .
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