हर वक्त मैं, कहीं न कहीं, किसी न किसी साथ, स्वयं को खड़ा पाता हूँ,
तेज भागती महंगी गाड़ियों के गुबार को, सांस रोके देखते रह गए उस ट्रेफिक सिपाही को, अपनी नोट बुक संभाल भी नहीं पाया, और रईसजादा कुचल कर चला गया, पर मैं उठ कर चल पड़ता हूँ, कहीं ओर , किसी और के पास..
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कभी रेल हादसे में मारे गए मृतकों के परिजनों के साथ...मुआवजा पाने वाले लोगों की कतार में,
कभी माल के लिए उजाड़ी गई झोपडपत्तिओं में टूटे चूल्हों से उठते धुओं के गुबार में
रंगारंग समाराहो के बाद वीरान हलवाइयों की भाटियों के पास,
खाना ढूंढते, नग्न बच्चों के साथ., खुद में स्वयं को खड़ा पाता हूँ,
दिनभर रिक्शा खींचता, ८ नहीं बाऊजी १० लगेगें, से दिन निकाल, शाम को
व्यस्त किसी चौहोराहे पर नशे में गिरे पड़े उस मजदूर के साथ; मैं खड़ा नहीं, गिरा मिलता हूँ..
गाँव से मुंह चुराए, वह अब ३२ रुपये में तक्काज़ा मालिक मकान, किराया, खुराकी और नशे पत्ते में चुकता हुए रुपयों का हिसाब लगाते कंधे झुका टुक-टुक कर चलते, उस व्यक्तित्व पर मैं सवार दीखता हूँ,
वैशाली कि टिकट थामे, दिल्ली टेशन पर लाईन में लगे, गाँव पहुँच ‘रजा’ को खिलाने का अहसास मन में दबाये, पुलसिया डंडे खाकर भी नहीं डगमगाए, भैया तुम्हरे साथ हूँ,
अच्छी मिटटी के गारे में, १४ घंटे हाडतौड मेहनत के बाद, ईंट भट्टे की तपन को ठेकेदार के नरम बिस्तर पर उड़ेल; ३२ रुपये कमाने की कशमकश; हाँ देवी मैं वहीँ हूँ ... पर एक नपुंसक दर्शक....
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कि मैं,
अजर हूँ, अमर हूँ ....
बेबस हूँ, मजबूर हूँ, ....
मैं, समय हूँ.....
कलयुग में नीली पगड़ी बांधे... मैं, समय हूँ.....
कलयुग में नीली पगड़ी बांधे... मैं, समय हूँ.....