पता नहीं क्यों मुझे
झील और मानव मन बराबर लगते हैं.
जैसे खाली बैठे-बैठे मन अशांत हो उठता हैं,
और
गर्मी बितते-बितते झील सूख ज़ाती है,
किन्तु गंदगी मन और झील में
सामान रूप से तैरती रहती है...
मन को किसी चंचल विचारों का,
और, झील को सावन का, इन्तेज़ार रहता है
मन में कुछ ख्याल उमड़ आते है,
जैसे घने काले बादल छाते है...
झमाझम पानी बरसते ही
गली नालों से बह बह कर पानी
पुन: आता है इस झील में
न भरने की कसम खाने वाली
झील फिर से
भरने को आतुर हो उठती है.
और न बहकने वाला मन
फिर बहक उठता है,
पहली फुहार से हरियाली लिए
ये आबाद होने लगती है
क्योंकि सावन का वो उत्साह
उसे सूखने नहीं देता....
जैसे मित्रगण, मन को शांत होने नहीं देते
और झील में दूर तक फैली हरियाली
मानो मन में भारी अवसाद...
हाँ,
झील सूख कर पुन: भर ज़ाती है
मन .... पुन: अशांत हो उठता है.झील में फैली गंदगी... मानो मानव मन की गन्दगी |
तिहाड गाँव की झील ... सावन में हरी भरी ... मानो किसी के पोस्ट पर लहराती टिप्पणियां |
मन झील नहीं दीपक बाबा भाव समुन्द्र ही है.
जवाब देंहटाएंमैंने मन पर एक पोस्ट लिखी थी
'मन ही मुक्ति का द्वार है'
आपकी भावपूर्ण प्रस्तुति मन को छूती है.
मन अदभुत पहेली है, जी.
कविता दोनों को प्रभावकारी तरीके से छूती है- मन को भी और झील को भी.
जवाब देंहटाएंशायद इसीलिए झील की तुलना कवियों ने आँखों से की है।
जवाब देंहटाएंक्या बात है गज़ब कर दिया …………क्या तुलना की है……………शानदार्।
जवाब देंहटाएंदिल्ली वाले तिहाड़ लेक दिखाते हैं या तिहाड़ जैल। लेकिन इस बार बहुत सार्थक लिखा है, बधाई।
जवाब देंहटाएंप्रभावकारी कविता! प्रकृति में सृजन और विनाश दोनों ही हैं। इसी पर विचार करते हुए दशकों पहले एक पंक्ति बनी थी, आपकी कविता से याद आ गयी:
जवाब देंहटाएं"झील भरी तब जानिये जब नौ सौ गाँव डुबाय"
'झील और मन '
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर साम्य दिखाते हुए , एक मनमोहक एवं भावपूर्ण रचना का सृजन किया है आपने ..
बहुत ही खुबसूरत
जवाब देंहटाएंगहराई भी झील की ही होती है।
जवाब देंहटाएंझील का बचे रहना ज़रूरी है.अगर ऐसा न हुआ तो गंदगी और मेंढक कहाँ जायेंगे ?
जवाब देंहटाएंतिहाड़ जेल मे जितने भी केदी हे सब मुफ़त का खा रहे हे, उन्हे लगाना चाहिये इस झीळ की सफ़ाई के लिये.
जवाब देंहटाएंमन-का मनमथ-मनचला, मनका पावै ढेर |
जवाब देंहटाएंमनसायन वो झील ही, करती रती कुबेर |
करती रती कुबेर, झील लब-लबा उठी है |
हुई नहीं अंधेर, नायिका सुगढ़ सुठी है |
दीपक की बकवाद, सुना तो माथा ठनका |
कीचड़ सा उपमान, रोप कर तोडा मनका ||
नोट : टिप्पणी नापसंद तो डिलीट कर दें ||
बहुत प्रभावी उम्दा रचना.
जवाब देंहटाएंउमगि उमगि भरि चले तलावा ज्यों थ्योरे धन खल उतरावा
जवाब देंहटाएंसावन में ताल तलैयों और झील का भी यही चरित्र है .....
झील की गन्दगी तो हम साफ़ कर सकते हैं मगर मन की गन्दगी का क्या करें ......
जवाब देंहटाएंरहस्यमय बाबा की जय जय !
मन और झील .... अच्छी तुलना की है ..सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंjai baba banaras....
जवाब देंहटाएंमुख्य बात है झील और मन दोनो से ओवर फ़्लो हो कर कचरा बाहर निकल जाये और दोनो फ़िर साफ़ स्वच्छ निर्मल हो जायें
जवाब देंहटाएंकभी झील सी गहरी आँखों का ज़िक्र सुना था.. आज झील सा भरा मन देखा.. तब समझ में आया कि झील सी आँखें तो सब देखते हैं पर यह सोचा किसी ने कि आँखें मन का दर्पण होती हैं..
जवाब देंहटाएंबहुत ही गहरी है यह झील दीपक बाबू!! बहुत भरी हुई!!
झील की महिमा का मन से उपमित कर आपने सुंदर बखान किया है।
जवाब देंहटाएंसंतोष जी की चिंता सृष्टि के व्यापक सरोकारों को लेकर है।
दिलचस्प है, कि अतृप्ति दोनों का स्वभाव है।
हैरान हूँ कि मेरा कमेंट नहीं दिख रहा, शायद करना ही भूल गया था।
जवाब देंहटाएंझील का भरना-सूखना, मन का शांत-अशांत होना चलता ही रहेगा। वैसे पानी बहता हुआ ही भला होता है, झील बोले तो लेक का अपना एक्सपीरियंस ऐंवे सा ही है।
बाई द वे, एक बोर्ड अमूमन लगा रहता है झील के आसपास - ’इस झील में नहाना सख्त मना है।’ इस झील के आसपास लगा है क्या?
लिखते तो हमेशा ही अच्छा हो आप, पर इन दिनों शबाब जोरों पर है, खुदा बद नजर से बचाये:)
झील के माध्यम से प्यार और पर्यावरण दोनों की बात... सुन्दर कविता...
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