शनिवारी रात भयंकर तरीके से गुजरी ... नहीं वैसे नहीं. सांपला ब्लोग्गर मीट से वापसी में आशुतोष की गाडी खराब हो गयी ... और मंथर गति से चलने लगी.. कई जगह ऊँचाई पर जाने के लिए धक्का भी लगाना पड़ा.. जैसे तैसे कीर्ति नगर मेट्रो स्टेशन तक उसे पार्क किया. उसके बाद दिल्ली के औटोरिक्शा वालों से सर खपाई अलग... घर पहुँचते पहुँचते रात के १२ बज़ गए.. जाहिर है अगले अगले दिन चेहरे पर १२ बजने ही थे... सो मूड ठीक करने की गरज से आवारागर्दी करने झील पार्क की तरफ निकल गया. सांपला से आते समय जो जो घटित हुआ उस पर पोस्ट पता नहीं कौन लिखेगा – संजय या आशुतोष, या फिर बाकी कई यादगारी घटनाओं की तरह ये भी बताने को रह जायेगी.
झील - जो सूख चुकी है, उसी सूखी झील के किनारे धूप में बैठ कर बातें करना बहुत अच्छा लगता है. गुनगुनी सी धूप में बैठकर बतिया करना या गप्पे मारना या खुद को टटोलना - कभी कभार ही ये मौका मिलता है – जैसे चुराए पल. पर इन पलों में भी शांति भंग की उस चूहे मार सांप ने. शायद मेरी ही तरह धूप में विचरण करने निकला हो और ठीक मेरे पैरों के आगे से निकल गया. महाशय सफाई से मेरे सामने से निकल गये - बिना मेरा हालचाल पूछे. स्तब्ध रह गया मैं, कई दिन से सांप ला सांपला हो रहा था, और हम तो लाये नहीं, महाराज खुद मेरे सामने उपस्थित थे. :) ... ध्रुव बेटा सांप देखना है तो झील के पास आ जाओ - मैंने ध्रुव को फोन कर बताया और आते ही वह तुरंत फोटू खिचने लगा ... पहले क्लिक के साथ उसमे वाइल्ड डिस्कवरी फोटोग्राफर का दंभ नज़र आने लगा. आजकल की जेनरेशन के साथ चूहा, हल्दी की गाँठ और पंसारी वाली बात क्यों है. कुछ और बालक भी आ गए... पत्थर मारने का उपकर्म करने लगे अशांति सी हो गयी उस सूखी झील में. (पता नहीं क्यों वो बच्चे सब हमारे महान राजनीतिज्ञ और सांप अन्ना हजारे लगने लगा - जैसे अन्ना घर से बाहर निकलते हैं और उनमे अशांति सी हो जाती है) बेचारा सांप... हैरान परेशान दायें बायें भागने लगा... मैं थोडा परेशान हुआ, सांप की बाबत; बच्चो को पत्थर मारने से मना किया और उन्हें बताया की सभी सांप जहरीले नहीं होते... ये बेचारे तो चूहों को खा कर जीवन यापन करते हैं. उन्हीं चूहों को जो हमारे घर और रसोई में कोहराम मचाये रखते हैं.
हालाँकि बचपन में मैंने भी इन पानी वाले सांपों को पत्थर से मारा है ... पर अब ये सुंदर और आकर्षक लग रहा था. और इसे देखना सुखद. ईश्वर की बनाई हुई एक कृति है. गर ईश्वर से प्रेम करते हो तो इन सांपों से नफरत क्यों. खासकर जब ये हमें कोई नुक्सान नहीं पहुंचा रहे.
सांप धरती के अंदर बिल में रहते हैं – पर खुद बिल बना नहीं सकते... चूहे बिल खोदते हैं... रहने के लिए या फिर आदत से मजबूर होते हैं – कुछ न कुछ कुतरने के लिए. और धरती के अंदर अँधेरे में वातानुकूलित बिल में रहते हैं. गर्मी में ठंडी और सर्दी में गर्म होती हैं चूहों की बिल. अब सांप मौसम से घबरा कर बिल में घुसता है या फिर भोजन की तलाश में या सुरक्षा के लिए. पर बिल में पहुंचकर सांप की मौज हो जाती है... फ्री का घर मिल गया रहने को, बिना रेंट अग्रीमेंट के, और चूहे को भोजन के रूप में पाकर संतुष्टि. और पेट इतना फूल जाता है की ज्यादा चला-फिरा नहीं जाता; अत: चूहे की बिल ही उसका निवास हो जाती है कम से कम २-४ दिन के लिए तो. और चूहा ... चूहा बेचारा धरती में बिल था या सांप के पेट वाली बिल में.
अज्ञेय की कविता याद आ रही है :
तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना भी तुम्हे न आया.
एक बात पूछूं - उत्तर दोगे ?
तब कैसे सीखा डसना, विष कहाँ से पाया ?
सांप मिल गया
जवाब देंहटाएंविस्मित हूँ इसे पढ़ कर....बहुत गहरा विम्ब और जीवन दर्शन.... अंतिम पंक्ति (चूहे हैं - हम हैं और सांप हैं... दुनिया है साहेब.)नहीं लिखते तब भी पूरी थी रचना....
जवाब देंहटाएंचूहे हैं - हम हैं और सांप हैं... दुनिया है साहेब
जवाब देंहटाएंअल्टीमेट स्टेटमेंट..पूरा सच !
अरुण जी आप सही हो सकते हैं... पर मनोज जी कोई यही अल्टीमेट स्टेटमेंट लग रहा है...
जवाब देंहटाएंवोटिंग बराबर पर है अत: लगे रहने दे रहे हैं..
सुन्दर सन्देश देती प्रस्तुति!! आभार
जवाब देंहटाएंचूहा बेचारा धरती में बिल था या सांप के पेट वाली बिल में.
जवाब देंहटाएंYAHI GAI BHARAT KI JANTA KI HAI....
JAI BABA BANARAS.....
चूहे हैं - हम हैं और सांप हैं... दुनिया है साहेब.
जवाब देंहटाएंयह भी खूब रही दीपक बाबा.
सांपला गए, सांप के दर्शन कर लिए.
और फिर लगता है आप 'दर्शनशास्त्री' ही हो गए.
वाह! रे सांपला.
हम तो भैये वापिसी में बीच राह में पटरी बदल गये थे, आशु को कहा जाये लिखने के लिये। वैसे भी वो हर बात में आजकल प्राची जी को घसीट लाता है, थोड़ा चेंज हो जायेगा:)
जवाब देंहटाएंप्रशंसक तो हम पहले से ही हैं बाबाजी, अब तो चेला मूंड लो तो बात बने। कहाँ से कहाँ जोड़ भिड़ाया है, मजा आ गया।
और कौशलजी कबसे बेनामी हो गये?
बात तो आपकी सच है... सांप भी तो प्राणी हैं...
जवाब देंहटाएंझील,सांप और आप...बाप रे बाप !
जवाब देंहटाएंहाजिर हूँ इस पोस्ट की पूर्णविराम टिप्पणी के साथ..
जवाब देंहटाएंचूहे हम हैं और सांप ये दुनिया..क्या गूढ़ बात बताई है बाबा जी..आनंद आ गया..
सिर्फ पात्रों को को सही जगह पर अवस्थित करने से ही उनका स्थानीय मान बढ़ या घट जाता है..जब हम दुनिया वाले पाले में चले जाते हैं तो सांप बन जाते हैं...आज जो चूहा है कल वो सांप होगा...
क्यूकी जड तो कुछ है ही नहीं सब कुछ है चेतन.
और उन्नयन के लिए परिवर्तन संसार का नियम..
सब ब्यर्थ है न..............???
चूहे हैं - हम हैं और सांप हैं... दुनिया है साहेब………बहुत गहरी बात कह दी।
जवाब देंहटाएंवाह दीपक बबा ...सांपला से सांप , सांप से बांबी और बांबी से चुहवा तक का सफ़र अदभुत है जी अदभुत है
जवाब देंहटाएंचूहे हैं - हम हैं और सांप हैं... दुनिया है साहेब...
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया...एकदम मस्त
bariya...sanp ne aadmi se hi sikha aur dansta bhi admi se kam hai par bechara badnam ho gaya...
जवाब देंहटाएंकमाल का आयाम है यह भी.. अब तो अपनी शक्ल भी आईने में देखते हुए डर लगता है!!
जवाब देंहटाएंविषग्रन्थि के उद्भव का स्रोत ढूढ़ना ही होगा।
जवाब देंहटाएंआज कल जहाँ देखो सांप अधिक मिलते हैं कहीं जहरीले कहीं विषहीन मगर डराते वे भी हैं !
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें बाबा !