31 दिस॰ 2013

कितनी बेबसी से जा रहा है बीस सौ तेहरा


बीस सौ तेहरा ... यहीं नाम तो तुमने दिया था – मुझमें समाने वाले उस काल के छोटे से टुकड़े को. मानों सागर में ओस की एक बूँद और गिर गयी. इस सागर सरीखे इतिहास में इस बूंद का अर्थ क्या? क्या क्या याद करोगे. बैठोगे और क्या क्या गिनोगे कि छाती चौड़ी हो जाए. क्या क्या भुलाना चाहोगे – कि याद आते ही एक सिहरन सी उठती है.
उतराखंड त्रासदी - तुम्हारी रूह कांप उठी न -  मैं तो बेबस हूँ ... बस मूक – तुम्हारी तरह ही मैंने भी यही त्रासदी देखी. पर उससे पहले मैंने वो अंधाधुंध विकास भी देखा था... जब भीमकाय मशीनें हिमालय की छाती को रौंद रही थी और उस तपोभूमि में तुम अपने रहने के लिए आलिशान होटल बना रहे थे. तब भी मूक था. कुछ काल पीछे चलें तो कर्म सिद्धांत का ज्ञान योगेश्वर कृष्ण दे गए थे.
रुपया रुपया जोड़ कर तुम प्लानिंग कर के घर के बजट को संवारते रहे – पर देश के हुकमरानों के हाथों रुपया फिसलता रहा - डालर उड़ता रहा. प्याज – बादाम हो गए और टमाटर – अखरोट. बच्चे तो जरूर १० रूपये के चिप्स में खुश रहे पर रसोई में चूल्हा रोता रहा. और मैं मौन. यहाँ भी कर्मों को तुम्हे ही भोगना पड़ा क्योंकि इन हुक्मरानों को तुमने ही तो चुनकर भेजा था.
कहीं रक्षकों के सर कटते रहे और कहीं पड़ोसी इस पुण्यभूमि पर नापाक तंबू गाड़ कर बैठ गए. तुम्हारी तरह मैं भी मायूसी से देखता रहा कि कहीं तो कतरा खून हो इन हुक्मरानों में, जो उबाल खा जाए. पर जब सियासत बेगैरत हो जाए तो फिर नफा नुक्सान ही बचता है. गैरत की कौन सोचे?
मैंने देखा अपने कर्मों के फल मात्र दो तीन महीनों में ही भोग कर भ्रष्ट नेता कितनी बेशर्मी से वापिस आ धमके. तुमने ही तो उस समय न्याय पालिका की जय के नारे लगाये थे.
तुम मंगल तक पहुँचने के लिए जरूर निकले... पर दिलों से कितनी दूर होते गये सोचा कभी? सम्बन्ध दरकते रहे. एक मुजफरनगर नहीं जला .. यहाँ तो नौ सौ साल पुराने सम्बन्ध जले. राजनीति को रोटियां सेकने के लिए अग्नि ही तो चाहिए थी... वो तो सदा मासूमों के खून से ही प्रज्वल्लित होती है. प्रशासन की तरह मैं भी मौन रहा.
कैसे एक कथावाचक तुम्हारी भावनाओं से खिलवाड़ कर सकता है – कैसे दूसरों को स्टिंग करने वाले और दूसरों पर फैसला सुनाने वाले खुद किस कदर कांच के हमाम में नंगे हैं – यही सब ये कतरा तुम्हे दिखा कर जा रहा है.
जन-ज्वार एक तरफ़ा होता है – बिना सोचे समझे. उन्नीस सौ सत्ततर ने दिखाया था. और उसी जे.पी. की नाजायज औलादों को तुम बिहार और उत्तर प्रदेश में भुगतते रहे. युवजन साथ जरूर हैं पर इस बार प्रयोग नया है - सोशल मीडिया के भरोसे ही सही हुडदंगी कैसे सिंहासन पा सकते हैं ये अब देखा. ‘आप’ की कागज़ी जमा पूँजी के भरोसे तुम्हे छोड़कर - कितनी बेबसी से जा रहा है समय का ये मासूम कतरा जिसे साल पहले तुमने बीस सौ तेहरा नाम देकर खूब जश्न मनाया था.

हम चलते हैं - आप गोलमाल फिल्म का ये गीत सुनिए /गुनिये  ~ जयरामजी की 


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