वो जब सामने होती है
मैं, निरीह सा, छुप जाता हूँ.
धूप छाँव का अजीब खेला
ऐसे ही जीवन पर्यंत चलता रहा
* * *
ईश्वर ने मेरे लिए कुछ जरुरी नायाब उपहार भेजे
मैं सदा उसकी गठड़ी पर निगाह गढ़ाकर
थोडा अक्षत पुष्प मीठा चढ़ाकर
और भी बहुत कुछ मांगता रहा.
और भी बहुत कुछ मांगता रहा.
* * *
शट डाउन और री-स्टार्ट के बीच छोटे से
अंतराल को समझ पाना कितना दूभर है.
ज्ञानीजन जीवन और मृत्यु के बीच के अंतराल को समझते हैं.
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स्वजन के मरने पर रोते-प्रलाप करते हैं
और अगले ही दिन काम पर चले देते हैं.
जीवन का खेल कितना विचित्र है
और मृत्यु कितनी आसान सी
ऐसा सभी जानते हैं.
पर कितने मानते हैं.
पर कितने मानते हैं.