कहानियां कितनी नाटकीयता से
भरी होती हैं, परतु कई बार जिन्दगी जैसी नंगी सच्चाई से परिपूर्ण. कई बार लफ्फाजी
इतनी की चुनरी में गोटा और सितारे ज्यादा लगते हुए दिखाई देते हैं. पर कई बार
एकाकी. कहानी कई बार एक कमरे में घटित दृश्य होती है और कई बार सुदूर पहाड़ों और दुनियावी
सरहदों को फांदते हुए दृष्टिगोचर होती हैं.
जरुरी नहीं कि कहानी में नायक
और नायिका हों – कई बार कहानी बिना हीरो हिरोइन के आगे बढती चली जाती है – पुरानी
हिंदी कला फिल्मों मानिन्द. कई बार कहानी बेतरबी से बढती और कई बार सिलसिलेवार.
कहानीकार पर निर्भर करता है – कई बार ढंग से कपड़े पहने, क्लीन शेव कहानीकार होते
हुए भी कहानी को उलझाए चले जाते है और कई बार खिचड़ी दाड़ी, टूटे चप्पल और अस्त
व्यस्त कपड़ों में सिलसिलेवार कहानी को आगे बढाये चले जाते हैं.
आधी रात में उनिंदी आँखे
लिए या फिर कहीं भीड़ में खोये हुए कहानीकार की बैचेनी या कहें दिमागी अशांति उसे
मजबूर कर देती है – कागज़ कलम उठाने के लिए. यहीं बैचेनी शब्दों में ढल कर कहानीकार
को सकूँ देती है –कहानीकार उसे कई बार पढता है – फिर कुछ मिटाता है फिर से कुछ
लिखता है. अंत में कोरे कागज़ पर एक हाशिया छोड़ कर पूरी कहानी ढंग से लिखता है. कहानी
का प्रसव काल पूरा होता है. किसी अखबार या फिर पत्रिका में छप जाए तो कहानी अपने
आप में सम्पूर्ण हो उठती है, अन्यथा बैचेनी में कई बार कहानीकार कागज़ फाड़ कर कहानी
को फैंक देता है. और कहानी की भ्रूण हत्या हो जाती है.
कहानी कभी सन्देश कोई नहीं
देती. कई बार प्रश्न छोड़ जाती है... कई बार कोशिश करती है कि किसी समस्या का समाधान
देने की. कहानी अपने लिए प्रबुद्ध पाठक तलाशती है. जो उसे मथकर उसमे से कुछ ऐसा
निकाले जो समाज उपयोगी हो सके. अध्यापकजन कहानी को पढ़ते पढ़ते पढ़ाने लग जाते है.
विद्यार्थी को समझाते हैं कहानीकार के कहने का तात्पर्य अपने शब्दों में दोहराते
हैं. पर वास्तव में कहानीकार क्या कहना चाहता है – ये कई बार तो न अध्यापक ही
समझते हैं और न ही विद्यार्थी को समझा पाते हैं. परीक्षा में एक कहानी का
मुल्यांकन ६ से १० नम्बर तक का होता है. इससे न ज्यादा न ही कम. कक्षा दस तक कहानी
की इतनी ही महत्ता होती है.
कोई कहानी लम्बे समय तक पढते
पढते से सुनते सुनते तक की प्रक्रिया में किसी भी सभ्यता/समाज में अच्छे से पैबस्त
हो जाती है. उस कहानी के किरदार कहानी से बाहर निकल कर पाठक से ही बातें करने लग
जाते हैं. बोलते हैं – पर सुनते नहीं हैं. और पाठक जानता है कि ये नालायक किस्म का
किरदार है. सुनेगा नहीं - फिर भी प्रबुद्ध
पाठक / विद्यार्थी अपनी सलाह उस किरदार को
देने से नहीं चूकता – क्योंकि एक रिश्ता सा बन जाता है. यहाँ कहानीकार कामयाब रहता
है. क्योंकि वो अपने किरदारों को वहीँ समाज में बिखेर देता है – जहाँ से उसने
उठाये थे. यही आकर किरदार अमर हो जाते हैं.
जयरामजी की.
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