प्रिय मैगी
पता नहीं संबोधन में तुम्हे सही शब्द दिया है या नहीं. पर शुक्र कीजिए
एंग्लो संस्कृति का ... कि अनजान को भी चिट्ठी लिखते हैं, तो नाम से पहले डिअर लगा
देते हैं. तुम्हारे और मेरे रिश्ते में कहीं डिअर जैसा शब्द हो मुझे याद नहीं आ
रहा और मैं तुम्हे पत्र लिख रहा हूँ, ये बात मुझे हजम नहीं हो रही. ऐसा नहीं है कि
भारतीय डाक सेवा से मेरा विश्वास उठ गया है. बात ऐसी है की खत लिखने का प्रचलन ही
खत्म हो चला है. गए दिनों की बात हो गयी है कि अहम् कुशलम् अस्तु और आपकी कुशलता
परम पिता परमात्मा से नेक चाहता हूँ. डर लगता है – चिट्ठी लिखते हुए. ऐसा लगता है कि
कुछ चोरी कर रहा हूँ, अत: प्रिय मैगी इसे चिट्ठी मत समझना.
मैगी आज तुम्हारी तुलना महंगाई से कर दी गयी तो मुझे ये तुम्हारी याद
आ गयी. जैसेकि विज्ञापनों में सभी उत्पादों की तारीफ में कुछ न कुछ बढ़चढ़ बोला जाता
है – वैसे ही ये दो मिनट का आकड़ा तुम्हारे साथ फिट बैठ गया ... पता नहीं कौन सा
कॉपीराईटर था. अनाम सा. और अनाम ही रह गया. मैगी और दो मिनट तो एक दुसरे के समक्ष
हो गए पर लिखने वाला गुमनाम रह गया.
कई नन्हे मुन्हे – मम्मी से भूख लगने पर दो मिनट का समय देते थे पर वो नादान अभी तक घडी देखना नहीं सीखे थे – कि दो मिनट कितना होता है. ये मम्मी पर निर्भर करता था कितनी जल्दी मैगी पका कर परोसती थी और आस पड़ोस के बच्चों को भी खिलाती थी. ऐसा नहीं कि पहले जमाने की मम्मी बहुत बड़े दिल वाली होती थी. पर ये कॉपीराइटर की मज़बूरी थी, कि तुम्हारी औकात कम दिखा कर मम्मी की दरियादिली दिखाना. वैसे उस समय भी माँ बस अपने बच्चों को मैगी बना कर खिलाती थी – वो भी जिनके घर में बड़ा सा काला सफ़ेद टेलीविजन होता था. बाकि तो दुपहर की बची सुखी रोटी पर चीनी या नमक लगा कर खाया करते थे.
प्रिय मैगी (इस 'प्रिय' शब्द को साथ ही चलने दो – प्रवाह है रोको नहीं
मैगी), समय का चक्र घुमा, तुम्हे शायद याद हो, जो बच्चे मैगी खा कर बड़े हुए उनका एडमिशन
डाक्टरी और इंजिनयरिंग में हुआ. वही कालेज के होस्टल में रात को भूख लगने पर इस दो
मिनट का जादू करते नज़र आये. शायद वो इन पंक्तियों को पढ़ रहे होंगे प्रिय मैगी.
धीरे धीरे ही सही, पर ये टेलीविजन नामक बक्सा गरीब की झोपडी में भी आया. और इसी के
साथ तुम अवैध घुसपैठिये की तरह उस गरीब के घर में इंटर हुई. ऐसा समय था - जब गरीब बजाय बच्चों के, घर में आये मेहमानों
को मैगी परोसने लगा – चाहे भूख हो या न हो.
तुम सार्वदेशिक और सार्वभौमिक हो मैगी. एक तुम्ही हो जिसने इस विकट ३६
जातपात और ६३ बिरादरी भरे देश में हर घर में अपनी पहचान बनाई. नादान है वो जो तुम्हें
दो मिनट का जादू समझते हैं – अभी नए खिलाड़ी हैं. उन्हें पता नहीं कि ये पहाड़ों में
हर ५०० मीटर की चढ़ाई के बाद मैगी का २० रूपये रेट बढ़ जाता है – बिना किसी सरकारी अधिसूचना
के और तुम्हारी उपयोगिता १०० प्रतिशत अधिक. ऐसा भी समय आता है जब खराब मौसम में मैदान
का मुसाफिर पहाड़ों पर एक कप चाय और एक प्लेट मैगी के लिए पुरे तीन महीने का टाक टाइम
न्योछवर कर देता है.
प्रिय मैगी, तुम जिस हाल में भी हो खुश रहो. लोगों की भूख मिटाती रहो –
चाहे दो मिनट में तैयार हो या फिर नखरैल बीवी की तरह एक घंटे में – क्या है कि
घाटी में उपर बर्फ में रहने वाले बकरवाल भी मैगी एक घंटे में पकाते हैं.
अस्तु, हर हाल में खुश रहो - दो मिनट का जादू चलाती रहो और बाकियों की प्रेणना स्त्रोत बनी रहो.. जय रामजी की.
तुम्हारा
दीपक बाबा.