मैं पहला पेग उठाने ही वाला था कि कोई जंतु उपर से नीचे आया माने गिलास के नज़दीक ही था... मुझे एकदम हडबडाहट हो गयी, कुछ और नहीं सुझा तो टेबल से फुट उठा कर टेबल पर ही मरने लगा. जंतु आश्चर्य जनक तरीके से उपर चला गया... मुझे ध्यान आया कि
मक्खी समझ रहा था ... बेसिकली वो एक एक मकड़ी है. ओह. मकड़ी ने अपना जाल बुनना शुरू कर दिया है. लगभग तीन बार वो नीचे लपकी है और मैं जब भी स्केल (फूटा - हालाँकि वो दो फुट का है) टेबल पर मारता हूँ - वो फिर छत की तरफ चली जाती है... अबकी बार वो मकड़ी नीचे मेरे पेग की तरफ बड़ी तो मैंने फिर एक बिंदास कोशिश की , कि जिस स्वयमं सृजित धागे से वो नीचे उपर हो रही थी, उसे ही स्केल से हटा दिया जाए...
पर मकड़ी जी मुझे से भी शातिर...
पता नहीं चला की कब... वो फिर उपर की ओर चल दी.
और जब मैं अपनी ये पोस्ट टाइप करने लगा तो पता चला की मेरे चश्मे के इर्द गिरद मकड़ी का जाल आ चूका है...
ओह..
होशियार मकड़ी.
मैं की बोर्ड छोड़ कर अपने इर्द गिर्द उस जाले हो हटाने की चेष्टा करने लगता हूँ....
चश्मा दुरस्त करके फिर क्या देखता हूँ...
मकड़ी छत से फिर नीचे उतर चुकी है, और न केवल नीचे उतर चुकी है वरन पानी की बोतले पर भी बैठ गयी है... मुझे दुःख हुआ ... कोटा उतना ही था जितनी की जरूरत थी, अत: मैंने सबसे पहले अपना अंतिम पेग उठाकर उदरस्थ किया.
अब कोई दिक्कत नहीं.
सामान खत्म हो चूका था... किसी के शेयर का तो मतलब ही नहीं.
पर मकड़ी महाराज पानी के बोतल पर बैठी है.
मुझे लगा मकड़ी मुझे ही घूर रही है...
ओह.... लगता है सार्जेंट दिलबाग सिंह है. पर आज उनके पास न तो चालान बुक है और न ही दारु चेक करने के लिए मुंह में लगाने वाला औजार...
घूर रहे हैं...न जी न...मैंने बहुत कम पी है..आपके अल्कोह्लोमिटर में दर्ज नहीं होगी...वो फिर घूर कर कहते हैं... फूंक मारो..ओह..
पता नहीं कहाँ कहाँ ये मकड़ी का जाला महसूस हो रहा है... मैं बैतिहाँ तरीके से अपना मुंह जुम्मे के नमाजियों की तरह मसलने लगता हूँ...
सुसरा दूर से अस्त्र फैंक रही है.... ओह.
मकड़ी ठीक छत से १४-१५ इंच नीचे लटक रही है... इस समय वो बहुत ही कम्फर्ट ज़ोन में है. पता नहीं वो मुझे देख रही है या नहीं, पर यह तय है की मैं उसे देख रहा हूँ, अपनी कमीनी नज़रों से ... और महसूस भी कर रहा हूँ... कि वो भी मुझे घूर रही है..
नहीं ...
वो दिलबाग सिंह नहीं हो सकते...
वो मकड़ी ही है.
दिलबाग सिंह अभी तक मुंह से वो नली निकाल कर मेरे को चलान थमा चुके होते. बेटा कम पिया कर. हजे तेरी उमर बोत है. चल निकल लाए ....... सत्श्रीकाल...हाँ वो मकड़ी है... सत्श्रीकाल नहीं कर रही अचान्चक फिर नीचे आती है...मैं फिर से फूटा (वही दो फुट वाला) उठा हूँ, पर इस बार वो मानिटर पर आके बैठ जाती है...
और मैं मोनिटर हिलाता हूँ......
पर एक कुशल बाज़ीगर की तरह वापिस छत की तरफ चल दी ...
और मैं उसे खालिस पंजाबी में मोटी मोटी गाली देता हुआ.. खाली गिलास को देखते हुए अल्कोहल्मिटर को मुंह में महसूस करता उठ खड़ा होता हूँ....
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
बक बक को समय देने के लिए आभार.
मार्गदर्शन और उत्साह बनाने के लिए टिप्पणी बॉक्स हाज़िर है.