चाँद और रोटी की बात पता नहीं कब किस शायर/कवि ने सबसे पहले कही होगी... कहा नहीं जा सकता. रोटी को देख कर चाँद के प्रति जी ललचाया होगा या फिर चाँद को देख कर रोटी की याद आयी होगी. मेरे ख्याल से चाँद को देख कर रोटी को याद किया गया होगा... क्योंकि आज माध्यम वर्ग में न तो चाँद चाहिए और न ही रोटी. अब वो बचपन नहीं रहा जो चंदा को मामा कहता था और स्कूल से घर आते ही एक रोटी ढूँढता था... जी, उन दिनों भूख बहुत लगती थी. आज बचपन को चाँद तो नसीब ही नहीं, कितने ही कालोनियों में चाँद के दर्शन दुर्लभ हो गए है, और भूख लगने पर पिज्जा या फिर मेगी की फरमाइश करता है... कहाँ का चाँद और कहाँ की रोटी.
घटनाएं जल्दी जल्दी घटती हैं, दादा को राष्ट्रपति भवन में जाने की जल्दी है, पवार साहेब को नम्बर २ की कुर्सी पर बैठने की जल्दी... दारा सिंह और काका को ज्यादा जल्दी थी, सो वो जल्दी निकल गए. युवराज को कोई जल्दी नहीं है, ..... वो और इन्तेज़ार करना चाहते है. सरकार है बार बार करवट बदल रही है. छोडिये, इन लोगों को न तो चाँद से मतलब है न रोटी से. व्यर्थ ही लिख दिया इनके बारे में.
पिछले दिनों “सलाम बस्तर” पढ़ी थी, “क्यों जायूं बस्तर, मरने” के चक्कर में. रोटी हाथ से निकल रही है... माओवादी बढ़ रहे हैं, उनकी मंशा देखें तो ऐसा लगता है कि २०-२५ साल बाद लाल सलामी होगी – लाल किले पर.
अभी गीत सुन रहा था, गेंगस औफ़ वासे पुर का .... चाँद और रोटियां, दिमाग घूम घूम कर वहीँ पहुँच रहा है.
“अम्मा तेरी सिसकियों पे कोई रोने आएगा” हाँ, कहीं जवानों की शहादत में और कहीं माओवादी केडर की मौत में सिसकियाँ कम होती जायेंगी... कोई रोने नहीं आएगा... क्योंकि ये रोज का धंधा हो जाएगा.
देश प्रेम, क्रिकेट, आसमान से बातें करती ऊँची इमारतें, ज्येष्ठ की दुपहरी में भी ठन्डे ठन्डे माल, मेट्रो, एअरपोर्ट – ये सब चाँद ही तो हैं, जिन्हें दिखा कर आम आदमी को बहकाया जा रहा है. जिसे रोटी की चाहत है.
होनी और अनहोनी की परवाह किसे है मेरी जां
हद से ज्यादा ये ही होगा कि यहीं मर जाएंगे
पिछले दिनों मानेसर में मारुती सुजुकी कंपनी में जो हुआ, उस पर मैं कोई टिपण्णी टिप्पणी नहीं करना चाहता. पर क्यों लग रहा है कि आने वाले दिनों में धार्मिक/भाषाई दंगे इतिहास की बातें हो जायेंगी. औद्योगिक फसाद शुरू होने को हैं... रोटी को तरसते मजदूरों को और उसमे भडकने वाले असंतोष को हवा/समर्थन दिया जा रहा है.
रोटी और चाँद का खूब खेल चलेगा. देखिएगा.
रोटी और चाँद का खेल खूब चलेगा।
जवाब देंहटाएं..सहमत।
रोटी और चाँद का खेल खूब चलेगा..
जवाब देंहटाएंफ़िर
रोटी और चाँद की लड़ाई में मजदूर पीसेगा....
एक तरफ पर चाँद होगा, एक तरफ पर रोटियाँ..
जवाब देंहटाएंबक बक में भी बहुत ही अच्छी बातें कह गए हैं आप |
जवाब देंहटाएंहोनी और अनहोनी की परवाह किसे है मेरी जां
हद से ज्यादा ये ही होगा कि यहीं मर जाएंगे |
@होनी और अनहोनी की परवाह किसे है मेरी जां
हटाएंहद से ज्यादा ये ही होगा कि यहीं मर जाएंगे |
जी इक बगल में चाँद होगा, इक बगल में रोटियां ....
इसी गीत के बोल हैं ये. गेंगस ऑफ वासेपुर.
ओह, आपने बहुत ही गंभीर विषय को सहजता से कह दिया, बहुत बुरा दिन आने वाला है पता नहीं क्या होगा, सबको जल्दी है।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब !!
जवाब देंहटाएंबक बक चाँद या
रोटी की नहीं होती
बक बक तब होती है
जब रोटी भी
चाँद हो जाती है
आसमान में दिखती तो है
पर हाथ में नहीं
कभी आ पाती है !!
:)
हटाएंआज बचपन को चाँद तो नसीब ही नहीं, कितने ही कालोनियों में चाँद के दर्शन दुर्लभ हो गए है, और भूख लगने पर पिज्जा या फिर मेगी की फरमाइश करता है... कहाँ का चाँद और कहाँ की रोटी.
जवाब देंहटाएंjai baba banaras.....
मन्दी बढ़ेगी तो मानेसर छाप घटनायें भी बढ़ेंगी। पर इस बात से मानेसर घटना की जघन्यता काम नहीं हो जाती।
जवाब देंहटाएंभविष्य का आउटलुक कुछ अच्छा नहीं दिख रहा इस हिसाब से :(
जवाब देंहटाएंआने वाला समय कठिन है!
जवाब देंहटाएंचिंता जायज है... पर सब कुछ चलता रहता है... जितनी चिंता में हम आज हैं उतनी ही चिंता में लोग पचास, सौ या हजार साल पहले रहे होंगे कि आगे क्या होगा...
जवाब देंहटाएंएक बगल में चाँद होगा एक बगल में रोटियां... पीयूष मिश्र जी के इस गीत में कितनी गहनतम सच्चाई है ये आपके इन चिंताओं से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है. पूरी दुनिया जिस बदहाली और संवेदनशीलता के दौर से गुजर रही है क्या होगा नहीं मालूम.
जवाब देंहटाएंBharat ko barood pe dher pe baitha diya Gaya hai ... Bas dekho chingari kab lagti hai ...
जवाब देंहटाएंBharat ko barood pe dher pe baitha diya Gaya hai ... Bas dekho chingari kab lagti hai ...
जवाब देंहटाएं@ रोटी और चाँद का खूब खेल चलेगा. देखिएगा.
जवाब देंहटाएं- रोटी और चाँद, दोनों ही हत्यारों की क़ैद में हैं, भूखों के हाथ से भूखों के पेट पर लातें पड़ रही हैं - हिंसा और हवस का दैत्य अपने को ईश्वर समझने लगा है ... अब तो नीन्द झटकनी ही पड़ेगी
ये गीत को जब भी सुनता हूँ, कहीं गहरे में डूब जाता हूँ.
जवाब देंहटाएं