खबरें कहीं से भी आ सकती हैं और कुछ खबरें आपको बैचेन करती हैं – इसी बैचेनी में बन्दा बक बक करने लग जाता है यही दीपक बाबा की बक बक है.
और जब ‘बक बक’ कोई सुनने के
लिए तैयार नहीं होता समय नहीं दे पाता तो ये बन्दा ब्लॉग्गिंग करने लगता है.
ब्लॉग्गिंग का तात्पर्य मात्र पोस्ट लेखन से नहीं है, टिप्पणी लिखना भी ब्लॉग्गिंग
का एक हिस्सा है ये मैंने माना है - पर आलस्य और कार्य दबाव अपने चरमोत्कर्ष पर है. अब देखिये जब से म्यांमार की घटनाओं पर अपने यहाँ
प्रतिक्रिया हो रही है तब से मुझे अपने बिहारी लाला (श्री सलिल वर्मा) की एक टीप
याद आ रही है, जिनमे वो मिस्र की घटनाओं में ब्लोग्गिंग को महत्व प्रदान करते हैं.
दीपक बाबा जी! उम्मीद है आपका सारा तकलीफ अब खतम हो गया होगा.. या फिर परहेज चल रहा होगा. तो सबसे पाहिले आपके स्वास्थ्य का कामना करने के बाद ब्लॉग्गिंग के ताकत का नमूना बताने के लिए मिस्र का उदाहरण देना चाहेंगे.. अउर टाइम्स ऑफ इंडिया के एक खबर का बिस्वास किया जाए तो एहाँ भी ब्लॉग्गिंग पर सिकंजा कसने का तैयारी चल रहा है.. टिपण्णी देना अउर उसका जो नियम कायदा है ऊ बीसी पर नहीं बोलते हुए हम तो एही कहेंगे कि टिपण्णी ब्लोगिंग में संबाद कायम करता है. जैसे जेतना लिखा जाने वाला अच्छा ही है नहीं कह सकते वैसे ही सब टिपण्णी सार्थक है, ई भी नहीं कहा जा सकता.. ब्लॉग्गिंग में मेरा सफ़र.........2 पर२२९५ टिप्पणियों में से उक्त टीप ढूँढना मेरे लिए टेडी खीर थी, मुझे ये तो याद था कि ऐसी कोई टीप सलील वर्मा जी ने दी है पर कौन सी पोस्ट पर दी है या कब दी है ये याद करना बहुत दुष्कर कार्य था. परन्तु थोड़ी जद्दोजेहद के बाद मिल ही गयी.
आज़ादी के बाद, हमारी कौम (हिंदुस्तानियों) की ये किस्मत है
कि हमें हर अधिकार/विशेषाधिकार समय से पहले ही मिल गए. सोचिये क्या हम लोग आज भी
मताधिकार के काबिल है? क्या ये शर्मिंदगी का वाकया नहीं है कि ६० प्रतिशत वोटिंग
को हम अच्छा समझते हैं, बढिया वोटिंग हुई. क्यों नहीं सरकार ९०% या फिर ९५% वोटिंग
की चेष्टा करती. होती ये भी होती गर शुरू में मत अधिकार धीरे धीरे तबके / क्लास को
वर्गीकृत करके दिया जाता. पर ऐसा नहीं हुआ.. अपना नुमायन्दा चुनने का सभी २१ वर्ष
के युवा को अधिकार मिल गया. मुफ्त में मिले माल की कोई कीमत नहीं होती. और लोगो ने
अपने इस अधिकार को छुट्टी का दिन समझ कर प्रोग्राम में बदलना शुरू कर दिया. इस
लोकतंत्र में जो लोग मात्र वोटिंग के अधिकार को नहीं समझ पाए वो इस सोशल मिडिया को
क्या समझेंगे. यही हुआ. अंतरजाल की जो मुक्त हवा अपने देश में बही उसका नतीजा आज
देश देख रहा है.....
“अपने ही लोग बेगानों के लिए अपनों को काटने पर उतारु हैं.”
जी खबरें यही कह रही हैं.
और फिर से मुझे बक बक की याद आ गयी. बंदर के हाथ में उस्तरा
थमा दिया गया है, या तो अपना गला काटेगा या फिर दूसरे का. हम इतने पढ़े लिखे या फिर
कहे मुक्त विचारधारा के नहीं है. कुछ लोगों की वजह से हमारा देश भी कहीं न कहीं
तालिबानी संस्कृति को आत्मसात कर चुका है, मात्र खबर सुन कर सड़कों पर उतर तोड़ फोड
करना हमारी जीवनचर्या का अंग बन गया है.
घटना कहीं हुई और प्रतिकार हम शहीदों के स्मारक उजाड/पुलिस पर पथराव कर के ले रहे हैं, कभी सोचा है, कि सामने वाले के भी अरमान जाग गए तो क्या होगा. अभी तक कितने ही शिखंडी टीवी मीडिया/कामरेड/एन जी ओ आये, आप लोगों के गुजरात के आंसू नहीं पोंछ पाए, फिर भी आप अलविदा कह देश को ललकारने का दंभ भर रहे हैं. ये सब क्या है ? क्यों दिमाग से नहीं सोचते. कि मुश्किल वक्त में पडोसी ही काम आता है चाहे वो हिंदू हो या सिख या फिर क्रिश्चियन... आपके हम मज़हब दूर रहते हैं. भाई जान पवित्र समय चल रहा है – आपके व्रत है, शुभ कर्म कीजिए – उपर वाले के यहाँ आजकल बही खाता खुला हुआ है.... आपके पवित्र कर्म सभी लिखे जा रहा है और वो सब प्लस हो रहे है काहे.... गलत कर्म कर के नेगटिव मार्क्स लेने के लिए जुटे हैं.
सोरी, भावनाएं कुछ सच्चाई की ओर मुड गयी. छोडिये इन सब
को... नव भारत टाइम्स ने अपने पोर्टल पर लगा रखा है – कि असलियत में वो कौन सी तसवीरें
थी, जिन्होंने हिंसा के ये सोये अरमान फिर से जगा दिए. आप खुद चेक कीजिए : तसवीरें कुछ और थी और केप्शन के कर कुछ और मतलब निकला गया. हमेशा की तरह पडोसी ने फायदा उठा ही लिया.
नेता जी को आज आप सब याद कर रहे हैं, सोचिये क्या वो होते तो देश ऐसा होता. इतनी आसानी से हम लोग वोट देते. क्या इतनी आसानी से अपनी बक बक को थोप देते दुसरे पर और क्या इतनी ही आज़ादी पर किसी के कहे पर लाठी बल्लम ले कर शहीदों के स्मारक तोड़ने निकल पड़ते, ये विडंबना ही है की शुरू से ही वोट के सौदागरों के हाथों सौंप दिए हम, और नेता जी का खिताब उन लोगों को दे दिया जो मात्र कुर्सी बचाने के लिए सभी डाव पेंच लड़ रहे हैं - और ये पहलवानी के असूल के भी खिलाफ है. :)
नेता जी को आज आप सब याद कर रहे हैं, सोचिये क्या वो होते तो देश ऐसा होता. इतनी आसानी से हम लोग वोट देते. क्या इतनी आसानी से अपनी बक बक को थोप देते दुसरे पर और क्या इतनी ही आज़ादी पर किसी के कहे पर लाठी बल्लम ले कर शहीदों के स्मारक तोड़ने निकल पड़ते, ये विडंबना ही है की शुरू से ही वोट के सौदागरों के हाथों सौंप दिए हम, और नेता जी का खिताब उन लोगों को दे दिया जो मात्र कुर्सी बचाने के लिए सभी डाव पेंच लड़ रहे हैं - और ये पहलवानी के असूल के भी खिलाफ है. :)
छोडो जी जो होना था हो गया, लोगों को छोड़ दिया गया है, भाड़ में जाए सी ए जी की रिपोर्ट हमे क्या लेना किसने कितने
लाख करोड़ अंदर किये, भाड़ में जाए जिसने कोयले में मुंह काला किया.... छोडिये इनको
और गीत सुनिए. गेंगस आफ वासेपुर-२ का तार
बिजली से पतले पिया मेरे... और महिला संगीत में उठते ठुमकों को छोड़, गीत के मध्यांतर में उठे दर्द को महसूस कीजिये.
हालत ऐसे हैं की पिया अब पतले ही रहेंगे. ये मानेरेगा या अन्य कोई योजना पिया को
तंदरुस्त नहीं कर सकती.
जय राम जी की.
http://loksangharsha.blogspot.com/2012/08/blog-post_18.html
जवाब देंहटाएंलिंक दिया है, संभावना है कि हटा दिया जाएगा :)
जवाब देंहटाएंगंभीर बातों को कहने का ये भी अंदाज है..
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया
सबसे मुश्किल काम था सलिल बाबू की टीप को दबोचना । बधाई।
जवाब देंहटाएंजरूरी आलेख। उस्तरे के गलत इस्तेमाल से होने वाले परिणाम के प्रति आगाह करना अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंगीत सुना क्या कहने!
जवाब देंहटाएंसत्य तो बस यही... “अपने ही लोग बेगानों के लिए अपनों को काटने पर उतारु हैं.” 'गैंग्स ऑफ वस्सेपुर' का संदेशप्रद गाना ये भी सुनें- फ्रस्टियाओ नहीं मूरा...
जवाब देंहटाएंअच्छे आलेख के लिए शुभकामनाएँ.
जी फ्रस्टियाओ नही मूरा ... सुंदर गीत है, पर काफी ध्यान देने के बाद समझ आता है... बेहतरीन गीत.
हटाएंक्या करें, हम छोटी छोटी बातों से प्रभावित जो हो जाते हैं..
जवाब देंहटाएंbaba ji ki aglee kadi ka intizaar....
जवाब देंहटाएंjai baba banaras....
जो उनका अपना मीडिया है वो चाहे जो भी करे ... वो नेता भी चाहे जो करें ... पाबंदी तो उन्ही के लिए है जो सरकार के विरुद्ध हैं या लिखते हैं ...
जवाब देंहटाएंआस पास चाहे जो होता रहे हम तो गीत सुनेंगे. हम और कर भी क्या सकते हैं?
जवाब देंहटाएंघुघूतीबासूती
हम फूस की झोपड़ी में रहेंगे तो पडोसी की चिंगारी आग लगा ही देगी!
जवाब देंहटाएं