7 अग॰ 2010

कविता नहीं भी लिखनी आती - तो भी लिखो



















आओ तनहाई में मिले
फिर हम दोनों

मौन होकर
जहाँ चाँदनी भी न पहुंचे..
चाँद को भी चुगली की आदत है
फिर मिलें हम दोनों
तुम जज़्बात के उजाले को
अपने घर रख के आना
ज़माने की रावयेतें
जो एक अरसे से मेरे जिस्म पर चस्पा है

कहीं पढ न लो तुम, फिर
अँधेरे में ही आना....
आना अपरिचित बन
कुछ अपनत्व महसूस करेंगे

मैं ये और तुम ये
यहीं से शुरुवात हुई थी
हमारे अलगाव की
अपने अपने ख्याल की
और उस पुरे चाँद की रात में
तुम्हीं नें फाड़ दिए थे सारे पत्र
........
और उस रोज़,

दूर किसी ने कहा ,
और कईयों ने सुना.........
ज़माने पर एतबार करना

क्यों भाई, कितना सकूं मिलता है खामखा की कविता लिख कर भी. कश्मीर जल रहा, लेह बह गया है, बिहार बाद की चपेट में है. झारखण्ड में अलग खेल चल रहा है, २४ कांवरिये - भोले बाबा को प्यारे हो गए, शरद पवार से सबका ध्यान हट गया है, कलमाड़ी सोनिया गाँधी की तरफ देख रहा है - आप बोले तो इस्तीफा दूं, नहीं तो में यूँ ही माल बनाता रहूँगा - मिडिया चिल्लाये तो चिल्लाये.................. सब कुछ हो रहा है. गिल साहिब ने एक उद्घाटन में ही कह दिया, इन स्टेडियम (छत चूते हुवे) को देखने को ही तरस गया था, पर शीला मैया के चहरे पर परेशानिया नज़र आने लग गई है। खिलाड़ी उदास है..........
पर बाबा तुम परेशान मत हो.........
कविता नहीं भी लिखनी आती - तो भी लिखो
पर इन सब पर मत लिखो.....

3 टिप्‍पणियां:

  1. बाबा दीपक,लिखते रहो, जैसे जीने के लिए खाना जरूरी है, साफ रहने के लिए नहाना जरूरी है, संपर्क के लिए आना-जाना जरूरी है और शाम को दो घूंट लगाना जरूरी है वैसे ही दिमाग की बत्ती को रौशन रखने के लिए कुछ न कुछ लिख जाना भी जरूरी होता है ताकि सनद रहे और वक्त बेवक्त काम आए। -हरीश जोशी

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बक बक को समय देने के लिए आभार.
मार्गदर्शन और उत्साह बनाने के लिए टिप्पणी बॉक्स हाज़िर है.