कल टी वी पर अमोल पालेकर और विद्या सिन्हा कि फिल्म “छोटी सी बात” देखि .......... वैसे तो ये फिल्म पहले कई मर्तबा देख बैठे हैं......... पर कल पता नहीं एक ब्लोगर के मूड से देखी होगी....... पता नहीं.
फिल्म का ऊ हिस्सा बढिया लगा जब तक प्रभा (माला सिन्हा) को अरुण (अमोल पालेकर) नहीं पटा पा रहे था . .......... कैसे दब्बू सा बन्दा .......... पता नहीं क्या क्या सोचता है ...... पर जब प्रभा सामने आती है तो सांप सूंघ जाता है.......... शायद १९७० के ज़माने में ऐसा ही होता होगा ये तो हमें ६०-६५ साल के ब्लॉगर भाई बतायेंगे....... अगर कोई है तो .......
बेवकूफी वाला जमाना.......... दब कर रहना........ हालांकि ये बॉम्बे कि स्टोरी है.............. जहाँ कि सामाजिक परिवेश दिल्ली जैसे शहर से १० एक साल आगे चलता है. जिस परिवेश में हम लोगों का जन्म हुवा है या जहां हम बड़े हुवे है वहाँ तो कसम से १९९० तक यही दब्बूपण वाला जमाना था....... ये भगवान भला करे नरसिम्हा राव का जिसने मनमोहन सिंह को घर की खिडकी दरवाज़े खोलने के लिया कहा और खिडकी दरवाज़े खुलने कि देर थी कि शाहरुख खान जैसे लौंडे दीपा साही जैसी “माया मेमसाब” से सरे आम इश्क लड़ाने लग गए थे........ मैं मानता हूँ कि इससे पहले और भी फिल्मे आयी होंगी – इसी टोपिक पर – पर अपन ने जो देखी उसकी बात कर रहे हैं.
आप कह रहे होंगे कि बात तो प्रभा और अरुण से चालू हुई थी...... पता नहीं बाबा कहाँ रुख करते हैं........ कहीं नहीं........
खुद अपनी याद आ गई..................
ये बात सत्य कि छोटी सी प्रेम-कहानी में अपन घोषित कर चुके हैं कि इश्क-और प्यार वाली गली से बाई-पास हो कर निकल गए .......... अपन का ऐसा-वैसा कोई चक्कर नहीं था..........
पर ये भी सत्य है कि कहीं न कहीं अपन के हृदय के तार स्पंदित होते थे. और अरुण कि तरह सोच कर सोच रह जाते थे......... दोस्तों के साथ हंसी मजाक में तो खूब तीर छोड़े जाते पर ........... जंग-ए-मैदान में सब बेकार हो जाते थे. दिल कि बात सिर्फ दिल में ही रह पाती थी. .........
इस चालबाज़ दुनिया में अरुण को तो कर्नल जुलिअस नागेन्द्रनाथ सिंह जैसा उस्ताद कहैं या फिर गुरु मिल जाता है जिससे न केवल उसे अपना प्यार प्रभा मिल जाता है अपितु भावी जीवन में इज्ज़त और दबंगपन से जीने के गुर भी सीख जाता है.
पर अपन को आज तक ऐसा गुरु नहीं मिला.
kuch samajh main nahi aaya ki aap kaehana kiya chahata hai suruat to theek thee lakin rasta bhatak ??////
जवाब देंहटाएंदेखिये कौशल जी, ये बाबा कि खालिस बक बक है - आप यहाँ से कोऊ विचार मंथन या सिद्धांत निकालना चाहते हैं ......... तो ये आपकी भूल है.
जवाब देंहटाएंjai baba bakbak ki
जवाब देंहटाएंमुझे भी ये फिल्म काफी पसंद है और नागेश जैसे व्यक्तित्व के लोगों से सिर्फ आप ही नहीं मैं भी त्रस्त हूँ ........:):)
जवाब देंहटाएंआप जैसे बाबा न हों
जवाब देंहटाएंतो बहुत सारे लोग
इंतजार में ही बैठे रहें।
उस दौर की कामेडी फ़िल्में बहुत पसंद रहीं है मुझे। खास तौर पर ऋषिकेश मुखर्जी, उत्पल दत्त और अमोल पालेकर की। ये मूवी भी बहुत पसंद रही है। माल में तो हम भी नहीं गये, अपने लिये अपने पड़ौस का दुकानदार ज्यादा बढ़िया है जिससे सिर्फ़ सामान खरीदने का रिश्ता नहीं है।
जवाब देंहटाएंआपका ब्लाग अच्छा लगा .ग्राम चौपाल मे आने के लिए धन्यवाद .आगे भी मिलते रहेंगें
जवाब देंहटाएंवाह दीपक जी, ये फिल्म तो हमें भी पसंद है, अच्छा नजरिया है आपका, फिल्म के जरिये अच्छी बात कही
जवाब देंहटाएंमजेदार फिल्म थी दीपक जी...इसमें माला सिन्हा नहीं थी विद्या सिन्हा थी...इसका गाना जाने मन जाने मन तेरे दो नयन खूब चला था...उस ज़माने में बासु चटर्जी की फिल्मों की धूम हुआ करती थी....अच्छा याद दिलाया आपने...
जवाब देंहटाएंनीरज
असरानी ने जो “नागेश” कि भूमिका निभाई है........ उस प्रकार के व्यक्तित्व से मैं आज भी त्रस्त हूँ..............
जवाब देंहटाएंक्या कह डाले हो जी आप...!!
सचमुच..बड़ी प्यारी सी फिल्म है...पल भर भी बोर नहीं हओने देती..
और इन कलाकारों की अदाकारी.....क्या कहने...