प्रस्तावना पढ़ ली आपने – प्रेमचंद द्वारा लिखित कहानी – “दो बैल” की.
पता नहीं क्यों जब में अपनी तुलना करने लगता हूँ तो मुझे ले दे के बैल ही नज़र आते हैं. और हाँ – एक दोस्त के शब्दों में रहंट के बैल. जिनको पानी निकालने के लिए जोता जाता था. उनकी आँखों में पट्टी नुमा कोई चीज़ बंधी जाती थी ताकि – वो दायें बाएं न देख सकें. ये भी न देख सकें कि मालिक है या नहीं – बस चलते जाएँ. गोल गोल –
फैक्ट्री से घर – घर से फैक्ट्री.
बिलकुल बैल कि तरह. दुनिया भर का बोझ उठाये. वजन ज्यादा या कम – ये हमारी किस्मत पर निर्भर करता है – कब गाडीवान को रुई लादने का भाड़ा मिला है या लोहा. अपना कुछ नहीं. अगर अपने कहने को है तो – मात्र किस्मत. जो अपनी होती तो बैल कि योनी में जन्म न लिया होता – अगर बैल कि योनी में जन्म लिया ही था – तो कोई धर्मात्मा छुडवा देता सांड कि शक्ल में – धर्म के नाम पर. पर नहीं खालिस बैल- बोझा उठाने को.
हाँ बैल चार पहिया वाले होते इन – और हम है दुपहिया.
अब वर्तमान पर आते हैं. दिल्ली में नारायणा रेड लाइट का एक दृश्य:
भारी लोहे के गार्डरों से बैल गाड़ी लदी हुई है. गाडीवान तीसरी कसम का राजकपूर नहीं है और ना ही प्रेमचंद का होरी या झूरी है. वो खालिस गाडीवान है जो उत्तर प्रदेश के किसी जिले का है और अभी २० वर्ष से दिल्ली वाला हो गया है, वो दारू के नशे में धुत है. लोहे के गार्डर जहाँ खत्म होते हैं वहाँ एक लालटेन – लाल चमकीले पनी में लपेट कर लटका रखी है. बेक लाइट का काम करने के लिए.
आजकल बैल भी समझदार हो गए हैं. रेड लाइट पर रुक गया है. बैलगाडी के पीछे कोई अमीरजादा अपनी लंबी होंडा सिटी गाड़ी में विलायती महेंगी शराब के नशे में मद हो कर होर्न पर होर्न दिया जा रहा है. और बैलगाडी के बगल में मैं अपने लड्डा (सेलेक्ट स्कूटर) पर बैठा सब देख रहा हूँ. बैल जानवर जरूर है पर है समझदार – पता है रेड लाइट है आगे नहीं बढ़ रहा. अमीरजादा बेखोफ सा गाडीवान को गाली देता है और गाडीवान की देसी शराब उतर जाती है – वो बैल पर दो चार डंडे से बरसाता है.
पर बैल को पता नहीं क्या डर है? आगे नहीं बढ़ रहा. गाडीवान के बैल की पुरुष ग्रंथि पर वो डंडा तेज तेज घुमाने पर बैल सरपट चल पड़ता है. पीछे से अमीरजादा भी निकल जाता है – ओवर टेक करके. मैं अपनी जगह मनमोस कर रह जाता हूँ. क्योंकि कुछ दर्द है – जो बैल की पुरुष ग्रंथि से होकर मेरे हृदय को कचोट रहा है.
दिन याद आया २००६ का दशहरा. झांकी सजाने के लिए १० बैलगाडी बुलाई थी. एक का गाडीवान दारू पी कर पता नहीं कहाँ चला गया था. और पूरी शोभा यात्रा में वो बैल गाडी मुझे हांकनी पड़ी थी.
जय राम जी की
चित्र : गूगल के साभार.
प्रेमचंद जी के दो बैलों के बिम्ब में यह बहुत सार्थक चिंतन है ।
जवाब देंहटाएंbahut sunder
जवाब देंहटाएंdo bail
जवाब देंहटाएंक्या बात है कौशल जी - पूरी कि पूरी पोस्ट ही ठेल दी टिपण्णी में.
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया...........
जवाब देंहटाएंहैं हम सारे ही बैल, बंधी बंधाई लीक और मान्यताओं पर चलने वाले।
जवाब देंहटाएंगधे, बैल और उल्लू के साथ जो अन्याय हम मानव करते हैं, उसका औचित्य मुझे भी आजतक समझ नहीं आया। गर्दभ राज के जिन सद्गुणों का बखान आपने किया है, उनका लेश मात्र भी इंसान में हो तो मजा आ जाए।
दर्द महसूस करने वाले दिल तो कई होते हैं, लेकिन बेजुज़्बान और बेपहचान वालों के दुख को भी खुद पर लेने वाले बहुत ज्यादा नहीं हैं, इतना मान लीजिये। आप उनमें से एक हैं।
दीपक जी, कल सुबह भी आया था आपकी पोस्ट पर, उस समय एक तो नैट बहुत स्लो था और दूसरे दनादन टिप्पणियाँ देखकर डर गया मैं, कि आपके मित्र पूरे मूड में जुते पड़े हैं तो क्यूँ कबाब के बीच में हड्डी बना जाये, हा हा हा।
बाकी उनका कहना ठीक है, दशहरे वाली पोस्ट का हमें भी इंतज़ार रहेगा।
बहुत सुन्दर और लाजवाब लिखा है आपने! बधाई!
जवाब देंहटाएंमेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/
:)
जवाब देंहटाएं