27 अग॰ 2012

ध्रुव पूर्वा और हाथियों का घर


बच्चपन है साहेब,
बच्चपन.....
बस अपने धुन में मग्न रहने का समय...

ध्रुव और पूर्वा पिछले सप्ताह मेक डोनल गए थे? जी ये मेरे बच्चे हैं, और मेक डोनल गए थे, ये मैं भरी पंचायत में स्वीकृत कर रहा हूँ (थोड़ी शर्म के साथ, क्योंकि ऐसे वातावरण में, मैं अपने को एडजस्ट नहीं कर पाता). वहाँ से खाली डिब्बे/रेपर साथ ले आये, बोले पापा इसकी झोपडी बनायेंगे. (रिसाइकल और क्रेटीव के लिए आइडिया बुरा नहीं था.) निसंदेह इस झोपड़ी को बनाने में मेरा योगदान भी भरपूर है. साथ में ही इन्हें खिलोने भी मिले थे - हाथी. राम जी का शुक्र है कि एक से ही खिलोने मिले.

जब झोपड़ी बन के तैयार हो गयी तो आगे हाथी कर दिए और वे बोले पापा, ये हाथियों का घर है..

मैं मुस्कुराया....

हाँ, पडोसी राज्य में आजकल हाथी बेघर हो गए हैं. जो भी  हो, अपनों ने बेशक हाथी को दरकिनार कर दिया हो, पर बडकी मैडम का कोई भरोसा नहीं .. कब इनकी जरूरत पड़ जाए. अत: उन्हें समझाल कर रखने के लिए घर की जरूरत है. तुम लोगों ने ठीक किया जो हाथी के रहने के लिए जगह दे दी : )  
एक अफ़सोस है , हाथी नीले रंग में नहीं थे, ना ही वो झोपड़े. नहीं तो अगली बार नीली सरकार बनाने पर बहनजी से इस विषय में रोयल्टी की दरकार हो सकती थी. :)

जै राम जी की.

24 अग॰ 2012

मुस्कुराइए

मुस्कुराइए कि सरकार मुस्कुरा रही है, क्योंकि 'आपजी', २ जी से बाहर आ गए हैं, बिना किसी नुक्सान के.  मैदाम ने राहत की सांस ले, सरदार जी को भी धीरज बंधाया, जब इतनी ही जीरो वाला 2 जी सरकार की मुस्कान नहीं छीन सका तु ये मुया कोयला क्य छीनेगा : वो भी तब जब मीडिया ने इसे 'कोलगेट' नाम दिया है,

उधर सोशल मीडिया वालों पर निगाहें तो कभी से टेढ़ी थी, अच्छा ही हुआ, 'पडोसी' की हरकतों से कुछ लोगों ने  दंगा फसाद कर दिया और हमेशा की तरह फिर निशाने पर संघ है. अत: संघ परिवार के मुखपत्र के ट्विटर अकाउंट को बंद कर दिया.

18 अग॰ 2012

सोशल मिडिया : बंदर के हाथ में उस्तरा.


खबरें कहीं से भी आ सकती हैं और कुछ खबरें आपको बैचेन करती हैं – इसी बैचेनी में बन्दा बक बक करने लग जाता है यही दीपक बाबा की बक बक है.
और जब ‘बक बक’ कोई सुनने के लिए तैयार नहीं होता समय नहीं दे पाता तो ये बन्दा ब्लॉग्गिंग करने लगता है. ब्लॉग्गिंग का तात्पर्य मात्र पोस्ट लेखन से नहीं है, टिप्पणी लिखना भी ब्लॉग्गिंग का एक हिस्सा है ये मैंने माना है - पर आलस्य और कार्य दबाव अपने चरमोत्कर्ष पर है. अब देखिये जब से म्यांमार की घटनाओं पर अपने यहाँ प्रतिक्रिया हो रही है तब से मुझे अपने बिहारी लाला (श्री सलिल वर्मा) की एक टीप याद आ रही है, जिनमे वो मिस्र की घटनाओं में ब्लोग्गिंग को महत्व प्रदान करते हैं.
दीपक बाबा जी! उम्मीद है आपका सारा तकलीफ अब खतम हो गया होगा.. या फिर परहेज चल रहा होगा. तो सबसे पाहिले आपके स्वास्थ्य का कामना करने के बाद ब्लॉग्गिंग के ताकत का नमूना बताने के लिए मिस्र का उदाहरण देना चाहेंगे.. अउर टाइम्स ऑफ इंडिया के एक खबर का बिस्वास किया जाए तो एहाँ भी ब्लॉग्गिंग पर सिकंजा कसने का तैयारी चल रहा है.. टिपण्णी देना अउर उसका जो नियम कायदा है ऊ बीसी पर नहीं बोलते हुए हम तो एही कहेंगे कि टिपण्णी ब्लोगिंग में संबाद कायम करता है. जैसे जेतना लिखा जाने वाला अच्छा ही है नहीं कह सकते वैसे ही सब टिपण्णी सार्थक है, ई भी नहीं कहा जा सकता.. ब्लॉग्गिंग में मेरा सफ़र.........2 पर

8 अग॰ 2012

इक रास्ता है ज़िन्दगी जो थम गए तो कुछ नहीं


इक रास्ता है ज़िन्दगी जो थम गए तो कुछ नहीं
ये क़दम किसी मुक़ाम पे जो थम गए तो कुछ नहीं
इक रास्ता है ज़िन्दगी ..

बहुत सुंदर गीत है साहेब, जो थम गये तो कुछ नहीं, हमारा जीवन यात्रा ही तो है... ये कदम किसी मुकाम पर रूकने नहीं चहिये. चरेवेति चरेवेति... चलते रहे.... कहीं मंजिल तो होगी. नहीं नहीं, मंजिल कहीं नहीं होती, कई बार हम दिशा हीन होते है, पर मन ही मन में कहीं न कहीं एक पुकार/आवाज़ जरूर होती है .... अपने गंतव्य की तरफ, वहीँ जहाँ ढलान होती है, शायद मंजिल, किसी प्रेयसी माफिक वही कहीं हमारा इन्तेज़ार कर रही होती है .... और उसी प्रियतम/ प्रेयसी को मन में बसा चलना है... यही जिंदगी है,... नदी माफिक... जहाँ ढलान दिखी वहाँ राह बना लिया – ये मालूम होते हुए भी कि सागर या फिर वो बड़ी नदी जिसमे मिलना है बहुत दूर है. पता नहीं कितने दुःख रुपी नाले अभी और समायेंगे .... पर चलना है गर हार मान ली तो गंतव्य पर पहुंचे पहुँचते नदी नाले में भी बदल सकती है और हिम्मत हुई तो वही छोटी नदी गंगा में मिल कर गंगा जल में परिवर्तित होने का साहस भी रख सकती है. यानि जितना भी कचरा आ जाए, सभी कुछ बहा ले जाने का साहस... जिंदगी.
दुखो का तूफ़ान, प्रियों का बिछुडना, कुछ कुटिल लोगो का जिंदगी में आना, बहुत कुछ दुष्कर लग सकता है जीवन यापन के लिए. लगता है कि यहीं कहीं हम ठहर गए हैं कुछ नहीं है - इन लोगों में जीवन खराब कर दिया. पर ध्यान से सोचिये ये मंजिल नहीं, मंजिल बहुत आगे है, अत: इन लोगों को यहीं कहीं दफ़न कर दीजिए अपने विराट व्यक्तित्व में और आगे चलिए... किसी छोटी नदी माफिक - कहीं तो गंगा से संगम होगा ही.
गीत सुनते सुनते, दिमाग इसी ओर चला गया कर्म प्रधान जीवन है और ब्लॉग्गिंग ठंडी छाँव कुछ देर सुस्ता लिया और ये दो लाईने लिख दी. जय राम जी की.

22 जुल॰ 2012

मजदूर, चाँद और रोटियां

चाँद और रोटी की बात पता नहीं कब किस शायर/कवि ने सबसे पहले कही होगी... कहा नहीं जा सकता. रोटी को देख कर चाँद के प्रति जी ललचाया होगा या फिर चाँद को देख कर रोटी की याद आयी होगी. मेरे ख्याल से चाँद को देख कर रोटी को याद किया गया होगा... क्योंकि आज माध्यम वर्ग में न तो चाँद चाहिए और न ही रोटी. अब वो बचपन नहीं रहा जो चंदा को मामा कहता था और स्कूल से घर आते ही एक रोटी ढूँढता था... जी, उन दिनों भूख बहुत लगती थी. आज बचपन को चाँद तो नसीब ही नहीं, कितने ही कालोनियों में चाँद के दर्शन दुर्लभ हो गए है, और भूख लगने पर पिज्जा या फिर मेगी की फरमाइश करता है... कहाँ का चाँद और कहाँ की रोटी. 

घटनाएं जल्दी जल्दी घटती हैं, दादा को राष्ट्रपति भवन में जाने की जल्दी है, पवार साहेब को नम्बर २ की कुर्सी पर बैठने की जल्दी... दारा सिंह और काका को ज्यादा जल्दी थी, सो वो जल्दी निकल गए. युवराज को कोई जल्दी नहीं है, ..... वो और इन्तेज़ार करना चाहते है. सरकार है बार बार करवट बदल रही है. छोडिये, इन लोगों को न तो चाँद से मतलब है न रोटी से. व्यर्थ ही लिख दिया इनके बारे में. 

पिछले दिनों “सलाम बस्तर” पढ़ी थी, “क्यों जायूं बस्तर, मरने” के चक्कर में. रोटी हाथ से निकल रही है... माओवादी बढ़ रहे हैं, उनकी मंशा देखें तो ऐसा लगता है कि २०-२५ साल बाद लाल सलामी होगी – लाल किले पर. 

अभी गीत सुन रहा था, गेंगस औफ़ वासे पुर का .... चाँद और रोटियां, दिमाग घूम घूम कर वहीँ पहुँच रहा है. 

“अम्‍मा तेरी सिसकियों पे कोई रोने आएगा” हाँ, कहीं जवानों की शहादत में और कहीं माओवादी केडर की मौत में सिसकियाँ कम होती जायेंगी... कोई रोने नहीं आएगा... क्योंकि ये रोज का धंधा हो जाएगा. 

देश प्रेम, क्रिकेट, आसमान से बातें करती ऊँची इमारतें, ज्येष्ठ की दुपहरी में भी ठन्डे ठन्डे माल, मेट्रो, एअरपोर्ट – ये सब चाँद ही तो हैं, जिन्हें दिखा कर आम आदमी को बहकाया जा रहा है. जिसे रोटी की चाहत है. 


होनी और अनहोनी की परवाह किसे है मेरी जां

हद से ज्‍यादा ये ही होगा कि यहीं मर जाएंगे 


पिछले दिनों मानेसर में मारुती सुजुकी कंपनी में जो हुआ, उस पर मैं कोई टिपण्णी टिप्पणी नहीं करना चाहता. पर क्यों लग रहा है कि आने वाले दिनों में धार्मिक/भाषाई दंगे इतिहास की बातें हो जायेंगी. औद्योगिक फसाद शुरू होने को हैं... रोटी को तरसते मजदूरों को और उसमे भडकने वाले असंतोष को हवा/समर्थन दिया जा रहा है. 

रोटी और चाँद का खूब खेल चलेगा. देखिएगा.

7 जुल॰ 2012

भारत के सबसे तेज़ ब्लोगर डॉ अनवर जमाल DR. ANWER JAMAL

डॉ अनवर जमाल साहेब, दिसम्बर २००९ से ब्लॉग्गिंग कर रहे हैं, ये पूर्ण कालीन ब्लोगर हैं, नून आटा दाल चावल सोरी ये सब तो ये खाते नहीं, अंडे चिकन मटन सब इन्हें ब्लॉग्गिंग से ही प्राप्त होता है. रात रात भर जाग कर डॉ साहिब न केवल पोस्ट लिखते/कट पेस्ट करते हैं अपितु कमेंट्स भी करते हैं : इन्ही के शुभ हाथों द्वारा कि-बोर्ड पर पंच “भाई साहब हम भी आ गए हैं जोत जलाने और वह भी रात को 3 बजे । बिना सनकामीटर के ही भाँप लीजिए कि किस ग्रेड की सनक सवार है ?

3 जुल॰ 2012

Life is incomplete without Plastic. प्लास्टिक बिना जीवन सूना


१३-१४ साल पुरानी बात कर रहा हूँ, प्रगति मैदान में एक प्रदर्शनी लगी थी, प्लास्टिक उद्योग के उपर .... और उस का नारा था, Life is incomplete without Plastic.  तब ज्यादा समझ नहीं आया. पर आज राशन की दुकान पर शेम्पू के, रसोई मसोलों के, टाफी, चाकलेट, नमकीन, बिस्कट, कुरकुरे, पानी, देसी शीतल पेय आदि के पाउच देख कर लगता है कि वास्तव में सही बात है. : Life is incomplete without plastic.
पहले छोटू (१०-१२ साल का लड़का) चाय लेकर केतली में या फिर छीके’ (5-6 या ८ चाय के छोटे गिलास रखने का खांचा) में लाता था. बाद में वो खाली गिलास व केतली या छीके में रख कर वापिस ले जाता था. बाल मजदूरी पर रोक से ये 'छोटू' लोग चाय दूकान से गोल हो गए. अब पार्कों में बैठ कर नशा कर रहे हैं या छोटी मोटी चोरी चकारी. पढ़ने से तो रहे, सरकार जितना भी जतन करे. 
प्लास्टिक की पन्नी में चाय ओर प्लास्टिक के कप, किसी भी व्यावसायिक क्षेत्र में चाय वाला रोज की १२५ से २०० चाय के कप डिस्पोज करता है.
चाय वालों के पास इतना सामर्थ्य नहीं था कि किसी बालिग़ को अपनी दुकान पर नौकर रखे, एक तो उसकी तनख्वाह ज्यादा होती है दुसरे छोटू की तरह फुर्ती से काम भी नहीं कर पाते. अब चाय वालों ने ऑफिस/फेक्टरी में फ्री डिलिवेरी बंद कर दी, गर आपको चाय चाहिए तो आप दूकान से ले कर जाईये. यहाँ भी लोचा था अपनी जरूरत को तो ऑफिस बॉय चाय ले जाता पर केतली या वो खांचा उस दूकान पर वापिस करने नहीं आता.
इसका रास्ता ये निकला कि चाय अब प्लास्टिक की पन्नी में आने लगी और शीशे की ग्लास की जगह प्लास्टिक के कपों ने ले ली. आप किसी भी व्यावसायिक स्थल पर चले जाए, आपको ऐसे प्लास्टिक के कपों के ढेर मिल जायेंगे.

23 जून 2012

हाय, इस बार भी गर्मी बेदर्दी से निकली.

मुझे ये बताते हुए जरा सी शर्म महसूस हो रही है कि मैं इस अभागी दिल्ली का अभागा बाशिंदा हूँ. जरा सी मीन्स ‘जरा सी’ जितनी अपने वामपंथी मित्रों को अपने को हिंदू कहने में महसूस होती है. :) खैर मजाक यहीं तक, और नहीं.
   जब देश के किसी भी हिस्से में बाड़-सुखाड़ आता है तो यही दिल्ली तुरंत मदद भेजती है. इसपर कोई तरस नहीं खाता. केरल से मानसून आता हुआ यू पी, बिहार, बंगाल तक पहुँच गया, मगर ऐसा नहीं हुआ कि कुछ बादल वो यहाँ भी भेज देते. नहीं, अभी से सावन गीत गाने लगे है. ऐसा नहीं कि दिल्ली को कुछ नहीं मिलता. वैसे आपको मालूम ही होगा कि दिल्ली का अपना कुछ भी नहीं है, न बिजली, न पानी, और तो और मौसम भी नहीं. पडोसी राज्य जो वही देते है जो उनसे संभलता नहीं, जैसे गर्मी आई तो राजस्थान उदार हो गया, गर्म हवाएं यहाँ भेजने लगा, पर सर्दी में सारी गर्मी अपने पास ही रख लेता है. सर्दी में पहाड़ मेहरबान हो जाते जाते हैं, लो जी हमारे पास बर्फ जयादा आ गयी है – कुछ सर्द हवाएं आप ले लो. गर्मी में ये दरियादिल्ली क्यों नहीं दिखाते. संपन्न दिल्ली वालों को अपने यहाँ बुला लेंगे, आओ मित्रों – अपना पैसा ले कर आओ – और यहाँ की ठंडक महसूस करो. इधर शीला मैया हरियाणा सरकार को पानी के लिए गिडगिडा रही है और चौधरी साहेब आँखे दिखा रहे है – किद्द से दे दें पाणी, अपना ही पूरा न हो रहा. यही दो चार ढंग से बरसात पड़ी नहीं तो चौधरी साहेब, तुरंत हुक्म दे देंगे, भाई दिल्ली वालों को दे दो पाणी, कई दिन से पाणी–पाणी रो रहे थे, बोलो संभलो यमुना को.