8 सित॰ 2010

मैं कहाँ पहुँच गया हूँ...

कुछ बेवकूफी भरे अजीब विचार किसी महान विचारक के मोहताज़ नहीं होते.... किसी को भी आ सकते हैं. बाबा को भी.

आज जब सुबह नींद से जागा तो पता नहीं उठते ही कुछ गर्व हुवा अपने घर पर. बहुत ही सुंदर लगने लगा ............. परन्तु उसी समय दिल में बाबा भी जाग उठे ........ धिक्कारने लगे...... कितने लोग आते हैं तुम्हे मिलने........ इस घर में कितने लोगों का स्वागत करते हो...... कितने चाय या खाने पर आते हैं........ शायद कोई नहीं.


पुराना घर पिताजी का था........ उसकी तुलना में तो शायद नगण्य. सुबह कुछ निक्कर-धारी आते थे... चाय के साथ साथ समाज पर चर्चा होती थी. दोपहर माता जी के साथ – आस पड़ोस कि महिलायें जुट जाती थी .... दोपहर बाद बहनों की सखियों से घर आ
बाद रहता था......... दिन भर में कभी – डाकिया ... कभी कोई संत, कोई भिखारी दरवाज़े कि घंटी बजाये रहता था. देर रात को वो पगला ... बिट्टू .... जो दिन भर बावरे कि तरह घूमता था ....... रात्रि में १०-११ के बीच कभी भी किवाड खट-खता देता था....... रोटी के लिए. .... कभी माता जी पुरे मातृत्व भाव से उसको खाना देती और कभी ....... मन को कोस कर ...... पर खाना वो जरूर खाने आता था....... और हाँ, जब कभी उसको दाल-सब्जी अच्छी नहीं लगती थी........ तो वहीँ गली में बिखेर कर चला जाता था...... और मैं हँसता था....... देखो तुम्हारी बनाई हुई दाल तो बिट्टू भी नहीं खाता.....

और इस फ्लैट के प्रथम तल पर कोई भूले से एड्रेस पूछने भी नहीं आता...........

बाबा वाकई सही लताड रहे है ..........

ये दुनियावी मन अपने रुतबे और कमाई पर कभी-कभी घमंड करने लगता है, आ ही जाता है.... पर फिर से दिल में बैठा ... बाबा धमकाने लगता है......... क्या मैं जितना कमाता हूँ – उतनी इमानदारी और निष्ठा से से अपने व्यवसाय में ध्यान देता हूँ?. क्या अपने क्लाइंटो की जरूरत और क्वालिटी जो उनका हक है – जिसके लिए मुझे पैसा देते हैं....... का ध्यान रखता हूँ? नहीं रखता.... अगर रखता होता तो प्रेस में बैठ कर ये चिट्ठे नहीं लिखता....... शायद मेरी योग्यता नहीं है – मैं अपनी कुर्सी और पद से पूरी निष्ठा और इमानदारी से वहन नहीं कर रहा हूँ. भारत के राज परिवार कि तरह मैं भी बिना योग्यता से इस प्रेस से चिपका हूँ....... और बैठ कर खा रहा हूँ......... पर दुनिया का दस्तूर समझ कर अनजान बन कर बैठे हैं ......... दिल में बैठे बाबा को क्या मालूम खामख्वाह बक-बक करता रहता हैं.

हर जगह – हर लोगों से मुझे शिकायत है......... क्यों ? क्या कभी अपने गिरबान में झाँक कर देखा हैं – क्यों शिकायत करते हैं – बाबा पूछता है – तुमने समाज को क्या दिया. कुछ भी तो नहीं ? फिर समाज से क्या शिकवा-क्या शिकायतें. उस दिन सामने ही रोड पर एक मोटर साइकल सवार कार कि टक्कर से गिर गया और मैं अपने दफ्तर कि खिडकी से देखता रहा ........ किंकर्तव्यविमूढ़ सा............ क्यों शरीर में हरकत नहीं हुई ...... अपनी जिम्मेवारी से बचता रहा ....... बाबा लताड रहे है. ....... शराब धीरे-धीरे खून को पानी बना देती है. जिस समाज कि तनिक भी चिंता नहीं – कोई मरे या जिए ......... तो उससे शिकायत क्या. तुम्हारे (दीपक) से अछे तो वो नौजवान है जो किसी कि चिंता नहीं करते – अपनी खुशियों में रहते है – समाज को कुछ नहीं देते पर समाज से कोई शिकवा-या शिकायत भी तो नहीं करते......

पिताजी से आगे निकलते निकलते – मैं कहाँ पहुँच गया हूँ....... खोज जारी है..........

इत्ता ही.

जय राम जी की.

18 टिप्‍पणियां:

  1. self analysis is a best analysis i like it you will do somthing special in your own life .
    आज जब सुबह नींद से जागा तो पता नहीं उठते ही कुछ गर्व हुवा अपने घर पर. बहुत ही सुंदर लगने लगा ............. परन्तु उसी समय दिल में बाबा भी जाग उठे ........ धिक्कारने लगे...... कितने लोग आते हैं तुम्हे मिलने........ इस घर में कितने लोगों का स्वागत करते हो...... कितने चाय या खाने पर आते हैं........ शायद कोई नहीं.dunia badal rahi hai babu

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  2. पोस्ट की शुरुआत का डायलोग धाँसू है...आपके प्रश्नों ने व्यथित कर दिया है...ये ऐसे प्रश्न हैं जो किसी भी समझदार संवेदनशील इंसान को व्यथित कर सकते हैं...ये कह कर मैं ये नहीं सिद्ध कर रहा के मैं समझदार और संवेदनशील हूँ...मैं व्यथित हूँ क्यूँ के मैं भी वो सब कुछ करता हूँ जिसे करने के बाद या न कर के दुखी हो रहे हैं...
    नीरज

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  3. @ कौशल जी, आपकी पलिसी पर आज चल रहे हैं : "self analysis is a best analysis"

    @ नीरज जी, कुछ भी तो समझ नहीं आता -
    अमर कवि दुष्यंत के शब्दों में :
    "जीवन के दर्शन पर दिन रात
    पंडित-विद्वानों जैसी बात
    लेकिन - मूर्खों जैसी हरकत
    यह क्यों ? "

    अपने पर ये बात सटीक बैठती है

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  4. पिताजी से आगे निकलते निकलते – मैं कहाँ पहुँच गया हूँ....... खोज जारी है..........


    जब आपको पता लग जाए तो हमें भी बता दीजियेगा :):)

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  5. जायज सवाल हैं।
    लेकिन ऐसा सोचने वाले भी कितने हैं?
    आप सोच तो रहे हैं, कल को करेंगे भी। और करते भी होंगे लेकिन गाते नहीं, संस्कार समझ आ रहे हैं हमें। ........ दरिया में डालने वाले लगते हो बाबाजी, am I right?

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  6. @संजय, (मो सम कौन) भाई ज्यादा इतबार इस बाबा पर मत करना.......

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  7. ... परन्तु उसी समय दिल में बाबा भी जाग उठे ........ धिक्कारने लगे...... कितने लोग आते हैं तुम्हे मिलने........ इस घर में कितने लोगों का स्वागत करते हो...... कितने चाय या खाने पर आते हैं........ शायद कोई नहीं....



    अरे बाबूजी...
    एड्रेस लिखे होते...देखिये सबसे पाहिले हम ही धमकते..

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  8. शराब धीरे-धीरे खून को पानी बना देती है. जिस समाज कि तनिक भी चिंता नहीं – कोई मरे या जिए ......... तो उससे शिकायत क्या. तुम्हारे (दीपक) से अछे तो वो नौजवान है जो किसी कि चिंता नहीं करते – अपनी खुशियों में रहते है – समाज को कुछ नहीं देते पर समाज से कोई शिकवा-या शिकायत भी तो नहीं करते......
    बढ़िया लिखा है आपने ....

    "" DEEPAK BABA ने कहा…
    जरूरी नहीं कि हंसी मजाक के लिए भगवान के नाम का उपयोग करे
    ध्यान दें - क्या आप इसा- मसीह या मोहम्मद साहिब कर चुटकला बना कर पोस्ट कर सकते हो ? ""

    दीपक जी इसे जरुर पढियेगा ये खास आपके लिए ही लिखा गया है ....

    एक बार इसे जरू पढ़े -
    ( बाढ़ में याद आये गणेश, अल्लाह और ईशु ....)
    http://thodamuskurakardekho.blogspot.com/2010/09/blog-post_10.html

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  9. प्यो ते पूत जात ते घोड़ा बहुत नहीं ते थोड़ा थोड़ा

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  10. परन्तु उसी समय दिल में बाबा भी जाग उठे ........ धिक्कारने लगे...... कितने लोग आते हैं तुम्हे मिलने........ इस घर में कितने लोगों का स्वागत करते हो......

    बढ़िया लेखन ..... मंगल कामनाये आपके लिए की आप ऐसा ही अच्छा लिखते रहे ..


    मेरे ब्लॉग कि संभवतया अंतिम पोस्ट, अपनी राय जरुर दे :-
    http://thodamuskurakardekho.blogspot.com/2010/09/blog-post_15.html
    कृपया विजेट पोल में अपनी राय अवश्य दे ...

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  11. सुंदर प्रस्तुति.
    यहाँ भी पधारें:-
    अकेला कलम...

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  12. समय बदल रहा है तुम भी बदल जाओ, अब दरवाज़ा इन्टरनेट और फ़ोन हो चूका है और आधा दिन तुम इस दरवाज़े के आगे बैठते हो

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  13. अपनी हैगी काशी तो फिर क्यों जाऊं मैं काबा
    धन्य भाग हमारे जो तुम मिल गए हे बाबा !

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  14. बहुत सुन्दर और प्रेरक प्रस्तुती...

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  15. आपने महसूस किया और लिख दिया.. हम महसूस भर करके रह जाते हैं.. कहना नहीं हो पता.. खुद से भी नहीं.. अगर मन में कहीं कोई आवाज़ उठती है तो बस.. अगली आवाज़ आती है - be practical..

    manoj khatri

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बक बक को समय देने के लिए आभार.
मार्गदर्शन और उत्साह बनाने के लिए टिप्पणी बॉक्स हाज़िर है.