मुझे पश्तो नहीं आती पर
पश्तो भाषा से बहुत प्यार है. मेरे दादा दादी – नाना नानी आपस में पश्तो में बात
करते थे. हालाँकि पश्तो विदेश भाषा रही होगी. क्योंकि हमारी मातभाषा किड़्रकी रही
है. वो बोली नहीं थी जैसा मैं घर मम्मी के साथ या श्रीमती के साथ बोलता हूँ – किसी
जमाने में वो पूर्ण भाषा ही थी, क्योंकि उसकी अपनी लिपि भी थी जो देखने में
गुरुमुखी के साथ मिलती जुलती दिखती है परतुं उससे जुदा है.
मुग़लकाल में पश्तो राजभाषा हो गयी होगी और उतरी पश्चिम सीमांत (North West Frontier Provinces - NWFP) इलाके के लोगों ने वही भाषा इस्तेमाल करनी शुरू कर दी होगी... जैसे आज दिल्ली में धीरे
धीरे पंजाबी की जगह हिंदी और हिंदी की जगह हिंगलिश और हिंगलिश की जगह पूर्ण रूपेण
इंग्लिश लेती जा रही है... माफ कीजियेगा पोस्ट लिखने के लिए जो भूमिका बाँधने लगा
था – वो भी अपने आप में पोस्ट से कम नहीं होने जा रही. छोडो – बहुत गंभीर विषय है –
पता नहीं कब कोई विद्वान मिलेगा थोड़ी और जानकारी होगी तो पोस्ट बनेगी.
अब इतना जान लीजिए कि पश्तो
से मुझे मुहब्बत है क्योंकि मेरे दादाजी और अन्य आदरणीय बुजुर्गों की भाषा थी,
लगभग सभी कालकलवित हो चुके हैं पश्तो के साथ.
सर गंगा राम अस्पताल में मनोरोग
विशेषज्ञ के केबिन के बाहर में अपनी बारी प्रतीक्षा कर रहा था तो अम्मिदुल्लाह (मैं
शायाद नाम का सही उच्चारण कर रहा हूँ) से मुलाकात हुई. २४-२५ साल का एक युवक आ कर
मेरे साथ बैठ गया – गर्दन झुका कर. कुछ अजीब तरह से मुझे देखते हुए कहा कि मेक्स
हॉस्पिटल से इलाज़ करवाया और ये दवाई में पिछले २ महीने से ले रहा हूँ, पर आराम
नहीं आ रहा.
क्या दिक्कत है.