16 दिस॰ 2007

समंदर पूछता है अब वो दोनो क्यों नहीं आते


समंदर पूछता है अब वो दोंनो क्यों नही आते
जो आते थे तो अपने साथ कितने खुवाब लाते थे
कभी साहिल से dheron सीपियाँ chunte थे
नंगे पाँव पानी मैं चले आते थे
भीगी ret से नन्हें gharonde भी बनाते थे
और उनमे सीपिया,रंगीन से कुछ संग्रीज़ यू सजाते थे
के जैसे अज के जुग्नूसय लम्हे
आने वाली कल कि मूठी मैं chhupate थे!


समंदर पूछता है अब वो दोंनो कियुं नही आते

समंदर ने खिज़ा कि सिस्किया लेती हुवे
एक शाम को वो नोजवान्नो को नही देखा
जो देर तक तनहा सारे साहिल रह bhaitha
फिर उसने dher सारे khat
बहुत से फूल सूखे और tasweerein
और अपने आखरी आंसू

samandar key hawale kar diye
ये आरजू थी तुझे गुल के रू-बा-रू करते

ये आरजू थी तुझे गुल के रू-बा-रू करते
हम और बुल_बुल-ए-बेताब गुफ्तगू करते

[रू-बा-रू = सामने; गुफ्तगू = बातचीत]

पयाम बार न मयस्सर हुआ तो खूब हुआ
ज़बान-ए-ग़ैर से क्या शर की आरजू करते

[मयस्सर = मौजूद है]

मेरी तरह से माह-ओ-महर भी है.न आवारा
किसी हबीब को ये भी है.न जुस्तजू करते

[माह-ओ-महर = चंद और सूरज; हबीब = दोस्त]

जो देखते तेरी जा.नजीर-ए-जुल्फ का आलम
असीर होने के आजाद आरजू करते

[असीर = कैदी]

न पूछ आलम-ए-बरगाश्ता ताली-ए-"आतिश"
बरसती आग मी.न जो बारा.न की आरजू करते

15 दिस॰ 2007

न किसी कि आँख का नूर हूँ

न किसी कि आँख का नूर हूँ
न किसी के दिल का करार हूँ
जो किसी के काम न आ सके
मैं वह एक मुष्ठ्र गुबार हूँ

न किसी कि आँख का नूर हूँ

न तो मैं किसी का हबीब हूँ
न तो मैं किसी का रकीब हूँ
जो बिगड़ चला गया वह नसीब हूँ
जो उजाड़ गया वह दयार हूँ

मेरा रंग रुप बिगड़ गया
मेरा यार Muhjse बिचाद गया
जो चमन खिजां में उजाड़ गया
मैं उसी कि फसल-ए-बाहर हूँ

न किसी कि आँख का नूर हूँ
न किसी के दिल का करार हूँ

पे- फातिहा कोई आए क्यों
कोई चार फूल चदाये क्यों
कोई आके शमा जलाये क्यों
कोई आके शमा जलाये क्यों
मैं वह बे-कासी का मजार हूँ

न किसी कि आँख का नूर हूँ
न किसी के दिल का करार हूँ

जो किसी के काम न आ सके
मैं वह एक मुस्थ-ए-गुबार हूँ
न किसी कि आँख का नूर हूँ

मैं कहाँ रहूँ मैं खाहन बसून
न यह मुझसे खुश न वह मुझसे खुश
मैं ज़मीन कि पीठ का बोझ हूँ
मैं फलक के दिल का गुबार हूँ
मुष्ठ्र किसी कि आँख का नूर हूँ

swagat

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