31 जन॰ 2009

हे शारदे माँ

माँ , आज तेरी वंदना जगत कर रहा है, बचपन से तेरे आशीर्वाद को तरसता हूँ माता। विद्या की देवी दूर ही रही मुझ से। आज तेरा दिन है मैया ...

हे शारदे माँ
अज्ञानता से हमे तार दे माँ
तू स्वर की देवी, ये संगीत तुझ से
हर शब्द तेरा है, हर गीत तुझ से
हम है अकेले, हम है अधूरे, तेरी शरण हम
हमें प्यार दे माँ

हे शारदे माँ ....
ऋषियों ने समझी, मुनियों ने जानी
वेदों की भाषा, पुरानो की बानी
हम भी तो समझे, हम भी तो जाने
विद्या का हमको अधिकार दे माँ

हे शारदे माँ

तू स्वेत वरनी, कमल पे विराजे
हाथों पे वीणा मुकुट सर पे साजे
माँ से हमारे मिटा दो अंधियारे
उजालों का संसार दे माँ
हे शारदे माँ

25 जन॰ 2009

कलम, आज उनकी जय बोल










कलम, आज उनकी जय बोल
- रामधारी सिंह दिनकर

जो अगणित लघु दीप हमारे
तुफानों में एक किनारे
जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन
मांगा नहीं स्नेह मुंह खोल
कलम, आज उनकी जय बोल

पीकर जिनकी लाल शिखाएं
उगल रही लपट दिशाएं
जिनके सिंहनाद से सहमी
धरती रही अभी तक डोल
कलम, आज उनकी जय बोल

दोस्तों बधाई सवीकार करो ... 6०वे गणतंत्र की . दुनिया के सामने सर ऊँचा और सीना चोडा है . ये है हमारी ताकत .. देख लें और तोले लें. हिमत है तो बोले ... हमारी आर्मी, नोसेना, वायुसेना, हमारे अर्ध सैनिक बल, कोस्ट गार्ड , ..... इस दिन हमें अपना जलवा दिखाते है और भरोसा दिलाते है की रात की नींद सुख चैन से लिया करो, चिंता की कोई बात नहीं हम है न . हम तैनात है वहां जहाँ २४ घंटे और १२ महीने बर्फ परती है ... वहां जहाँ वायु में ऑक्सीजन कम हो जाती है . हम तैनात है बस इसलिए की आप सुरक्षित हो. हमारा हिमालय जो मुकुट के रूट मैं माता की शोभा बड़ा रहा है वेह सुरक्षित रहे. ये पवन भूमि, पावन ही रहे जहाँ गंगा जमुना जैसी पवित्र नदियाँ बहेती है . अयोध्या , कशी, मथुरा द्वारका जैसे पवित्र स्थान है सदा पावन ही रहे किसी मलेछ या अन्य अंतिकी से अपवित्र न हों. हमारे बच्चे सदा की तरह स्कूल जायें. हमारे बुजुर्ग सदा की तरह आराम से जाप करें. सकूं से रहे. माता के चरणों को धोता अथाह जल प्रवाह -- इसे ही धोता रहे ..

इसलिए ये जवान कायम है अपने वचन पर , अपनी बात पर अपनी ओकात पर ... सदा चोकस इनकी निगाहें ... दुश्मनों के मन में खोफ पैदा करती है ...

आओ शपथ लें की कभी कोई सैन्य बल में कार्यरत व्यक्ति कभी कोई मदद मांगे तो जान से बड़कर देंगे.. क्योंकि इनकी बदोलत ही हम और हमारा अस्तित्व है .

एक राष्ट्रीय कवि की कविता प्रस्तुत है :

हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयंप्रभा समुज्जवला स्वतंत्रता पुकारती
अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़-प्रतिज्ञ सोच लो
प्रशस्त पुण्य पंथ हैं - बढ़े चलो बढ़े चलो

असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ विकीर्ण दिव्य दाह-सी
सपूत मातृभूमि के रुको न शूर साहसी
अराति सैन्य सिंधु में, सुबाड़वाग्नि से जलो
प्रवीर हो जयी बनो - बढ़े चलो बढ़े चलो


22 जन॰ 2009

काँच की बरनी और दो कप चाय - एक बोध कथा

जीवन में जब सब कुछ एक साथ और जल्दी-जल्दी करने की इच्छा होती है, सब कुछ तेजी से पा लेने की इच्छा होती है , और हमें लगने लगता है कि दिन के चौबीस घंटे भी कम पड़ते हैं, उस समय ये बोध कथा , "काँच की बरनी और दो कप चाय" हमें याद आती है ।

दर्शनशास्त्र के एक प्रोफ़ेसर कक्षा में आये और उन्होंने छात्रों से कहा कि वे आज जीवन का एक महत्वपूर्ण पाठ पढाने वाले हैं... उन्होंने अपने साथ लाई एक काँच की बडी़ बरनी (जार) टेबल पर रखा और उसमें टेबल टेनिस की गेंदें डालने लगे और तब तक डालते रहे जब तक कि उसमें एक भी गेंद समाने की जगह नहीं बची... उन्होंने छात्रों से पूछा - क्या बरनी पूरी भर गई ?

हाँ... आवाज आई...फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने छोटे-छोटे कंकर उसमें भरने शुरु किये, धीरे-धीरे बरनी को हिलाया तो काफ़ी सारे कंकर उसमें जहाँ जगह खाली थी , समा गये, फ़िर से प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा, क्या अब बरनी भर गई है, छात्रों ने एक बार फ़िर हाँ॥ कहा अब प्रोफ़ेसर साहब ने रेत की थैली से हौले-हौले उस बरनी में रेत डालना शुरु किया, वह रेत भी उस जार में जहाँ संभव था बैठ गई, अब छात्र अपनी नादानी पर हँसे... फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा, क्यों अब तो यह बरनी पूरी भर गई ना ?

हाँ॥ अब तो पूरी भर गई है॥ सभी ने एक स्वर में कहा..सर ने टेबल के नीचे से चाय के दो कप निकालकर उसमें की चाय जार में डाली, चाय भी रेत के बीच में स्थित थोडी़ सी जगह में सोख ली गई...प्रोफ़ेसर साहब ने गंभीर आवाज में समझाना शुरु किया - इस काँच की बरनी को तुम लोग अपना जीवन समझो... टेबल टेनिस की गेंदें सबसे महत्वपूर्ण भाग अर्थात भगवान, परिवार, बच्चे, मित्र, स्वास्थ्य और शौक हैं, छोटे कंकर मतलब तुम्हारी नौकरी, कार, बडा़ मकान आदि हैं, और रेत का मतलब और भी छोटी-छोटी बेकार सी बातें, मनमुटाव, झगडे़ है..अब यदि तुमने काँच की बरनी में सबसे पहले रेत भरी होती तो टेबल टेनिस की गेंदों और कंकरों के लिये जगह ही नहीं बचती, या कंकर भर दिये होते तो गेंदें नहीं भर पाते, रेत जरूर आ सकती थी...ठीक यही बात जीवन पर लागू होती है...यदि तुम छोटी-छोटी बातों के पीछे पडे़ रहोगे और अपनी ऊर्जा उसमें नष्ट करोगे तो तुम्हारे पास मुख्य बातों के लिये अधिक समय नहीं रहेगा... मन के सुख के लिये क्या जरूरी है ये तुम्हें तय करना है । अपने बच्चों के साथ खेलो, बगीचे में पानी डालो , सुबह पत्नी के साथ घूमने निकल जाओ, घर के बेकार सामान को बाहर निकाल फ़ेंको, मेडिकल चेक- अप करवाओ..टेबल टेनिस गेंदों की फ़िक्र पहले करो, वही महत्वपूर्ण है... पहले तय करो कि क्या जरूरी है... बाकी सब तो रेत है..

छात्र बडे़ ध्यान से सुन रहे थे॥ अचानक एक ने पूछा, सर लेकिन आपने यह नहीं बताया कि "चाय के दो कप" क्या हैं ?प्रोफ़ेसर मुस्कुराये, बोले.. मैं सोच ही रहा था कि अभी तक ये सवाल किसी ने क्यों नहीं किया... इसका उत्तर यह है कि, जीवन हमें कितना ही परिपूर्ण और संतुष्ट लगे, लेकिन अपने खास मित्र के साथ दो कप चाय पीने की जगह हमेशा होनी चाहिये ।

दोस्तों कितना सुंदर विचार है । पर चाह कर भी, अपने स्वाभाव के अनुरूप भी में ये नहीं कर सकता। पता नहीं क्यों दुनिया दोरंगी लगती है । जिससे भी मिलने जाता हूँ ... उस व्यक्ति का भावः हमेशा से कुछ स्संक्षित लगता है। ... जे राम जी ज्यादा नहीं दिल का गुबार निकला तो बात दूर तक जायेगी।

20 जन॰ 2009

मदरसों के बड़ते कदम ...


आदरनिये पॉप (रोम वाले) व् इटली से निर्यातित भारतीय महारानी (श्रीमती सोनिया गाँधी - भारतीय नाम ) के प्रताप से मनमोहन सरकार अपने पाँच साल पुरे करने जा रहे है । इन ५ सालों में सरकार ने मुसलमानों की शैक्षिक, सामाजिक, व् आर्थिक हालत सुधरने के लीये जो कदम उठाये थे उनके परिणाम आने लगे है । में बात करता हूँ शेक्षिक हालातों के बारे में ।

मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह ने मदरसों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों की शिक्षा को केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड और भारतीय स्कूल शिक्षा बोर्ड परिषद के समकक्ष मानने की सिफारिश को स्वीकार कर लिया है। इसके अलावा केंद्रीय मदरसा बोर्ड गठित करने का मामला भी विचाराधीन है।

लाल बादशाहों के राज यानिकि पश्चिम बंगाल में इन प्रयोग का प्रत्यक्ष देखने को मिल रहा है। वहां पर हिंदू विद्यार्थी बहुत संख्या में मदरसों में जाने लगे है. राज्य के उत्तेरी दीनापुर जिला, कूचबिहार, बर्दवान और पश्चमी मिदनापुर जिलों में तो ६० प्रतिशत तक स्टुडेंट हिंदू हैं. इसका मुख्या कारन इन इलाकों में मुस्लिम आबादी का कम होना है. यानी, आबादी कम और मदरसे ज्यादा। बहार से मिलती जबरदस्त आर्थिक मदद. तो पैसा तो कहीं लगेगा ही. और छोटेपण में बच्चो के अगर दिमाग को ही बदल दिया जाए तो .... अब मुस्लिम रणनीतिकारों को अपनी निति बदलनी पड़ रही है. तलवार के दम पर धर्म परिवर्तन तो हो नहीं रहा तो ईसाईयों की देखा देखि ये भी कर के देख लेते हैं.

गरीब हिंदू अभिवावक कम फीस की वजह से अपने बच्चों को यहाँ भेज देते है जो की राज्य द्वारा चलाये जा स्कूलों से भी कम है। औराए मदरसे अब कंप्युटर साइंस टेक्नोलोजी और वोकेशनल सुब्जेक्ट की बात करते करते ... अरेबिक और इस्लामिक पदाई करवाने लगते है।

सरकार को कम से कम इस विषय पर सोचना चाहिए की कम आबादी के होते हुवे ज्यादा मदरसे क्यों खोले जा रहे है खासकर उन शेत्रों में जहाँ इनकी आवश्कता नहीं है. दुसरे राज्य द्वारा चलाये जा रहे स्कूलों से कम इनकी फीस क्यों है.

18 जन॰ 2009

एक तनहा पेड़
एक दरवेश की तरह
मुझे बुलाता है
समझाता है
दुनिया का दस्तूर
जब तक हरे भरे थे
विकट थे , विकराल थे
पंछी आते थे पन्हा को
मुसाफिर aate the थकान मिटने को
आज तनहा यहाँ
दुनिया को कुछ दे नहीं सकता
तो दुनिया ने बेगाना किया
अपनों ने ही तो ये सिला दिया
परन्तु खुदा की सभी नियम्नते तो
मेरे लिए ही है
तुम्हारी आँखों का सकूं हों
तुम्हारी जज्बातों का
तुम्हारी खवा एइशों का सिला हूँ