30 दिस॰ 2011

राजधानी में सर्दी का प्रकोप - नपुंसक जनता एक बार फिर गिलाफ में गुस गयी

कारवाँ गुजर गया – गुबार देखते रहे .. वो निकल गयी बस से और हम बस देखते रहे. रोड पर साये उस कुहासे को दिमाग में औड लिया, माने, औड ली चुनरिया तेरे नाम की. रोड पर छाई पीलिया लिए वो प्रकाश स्तंभ भी मात्र देखते रहे ... गवाह बने रहे जो वक्त आने पर गवाही नहीं देंगे (पता नहीं क्यों – उनका पुख्ता वायदा लग रहा है), कि वो तेरे लिए खड़ा था जालिम – तेरे लिए, मैं ये जानता हूँ – तेरे बस में जाने के बाद वो बोझिल क़दमों से चल दिया था. न दामन ही पकड़ा, न उसने पुकारा, मैं आहिस्ता आहिस्ता सा चलता ही आया – बस तेज रफ़्तार से निकल गयी – और मैं – और मैं उससे जुदा हो गया – मैं जुदा हो गया. बेवफा कुछ तो ध्यान दिया होता. नहीं. ये दिल्ली है. सुना है चच्चा ग़ालिब की भी दिल्ली थी और पर हसीनाएं तब भी बेवफा थी और आज भी हैं... बड़े बेआबरू होकर तेरी कुचे से हम निकले ग़ालिब. चच्चा ने जब ये शयर इन बेमुर्रव्त बगेरत के लिए लिखा होगा तब भी शर्म नहीं आयी थी और आज क्या आएगी – जब शोर्ट्स पहन कर देर रात महानगरीय सडकों पर चहलकदमी करती हैं.

दिल वालों की है दिल्ली.. जी साहेब, अब मान गए... तभी तो यहाँ आकर बना हीरो मुंबई में जाके जीरो हो जाता है और देश के बाकी हिस्सों के जीरो (जो चुनाव नहीं जीत पाते) यहाँ दिल्ली में (उच्च सदन) में हीरो हो जाते हैं - कि दुनिया तमाशा देखती है रात के बारह बजे तक ... मुआ राज्य सभा न हुआ फिरोजशाह कोटला का मैदान हो और पाक-हिंद का क्रिकेट का मैच हो.


28 दिस॰ 2011

सांप

शनिवारी रात भयंकर तरीके से गुजरी ... नहीं वैसे नहीं. सांपला ब्लोग्गर मीट से वापसी में आशुतोष की गाडी खराब हो गयी ... और मंथर गति से चलने लगी.. कई जगह ऊँचाई पर जाने के लिए धक्का भी लगाना पड़ा.. जैसे तैसे कीर्ति नगर मेट्रो स्टेशन तक उसे पार्क किया. उसके बाद दिल्ली के औटोरिक्शा वालों से सर खपाई अलग... घर पहुँचते पहुँचते रात के १२ बज़ गए.. जाहिर है अगले अगले दिन चेहरे पर १२ बजने ही थे... सो मूड ठीक करने की गरज से आवारागर्दी करने झील पार्क की तरफ निकल गया. सांपला से आते समय जो जो घटित हुआ उस पर पोस्ट पता नहीं कौन लिखेगा – संजय या आशुतोष, या फिर बाकी कई यादगारी घटनाओं की तरह ये भी बताने को रह जायेगी.

झील - जो सूख चुकी है, उसी सूखी झील के किनारे धूप में बैठ कर बातें करना बहुत अच्छा लगता है. गुनगुनी सी धूप में बैठकर बतिया करना या गप्पे मारना या खुद को टटोलना - कभी कभार ही ये मौका मिलता है – जैसे चुराए पल. पर इन पलों में भी शांति भंग की उस चूहे मार सांप ने. शायद मेरी ही तरह धूप में विचरण करने निकला हो और ठीक मेरे पैरों के आगे से निकल गया. महाशय सफाई से मेरे सामने से निकल गये - बिना मेरा हालचाल पूछे. स्तब्ध रह गया मैं, कई दिन से सांप ला सांपला हो रहा था, और हम तो लाये नहीं, महाराज खुद मेरे सामने उपस्थित थे. :) ... ध्रुव बेटा सांप देखना है तो झील के पास आ जाओ - मैंने ध्रुव को फोन कर बताया और आते ही वह तुरंत फोटू खिचने लगा ... पहले क्लिक के साथ उसमे वाइल्ड डिस्कवरी फोटोग्राफर का दंभ नज़र आने लगा. आजकल की जेनरेशन के साथ चूहा, हल्दी की गाँठ और पंसारी वाली बात क्यों है. कुछ और बालक भी आ गए... पत्थर मारने का उपकर्म करने लगे अशांति सी हो गयी उस सूखी झील में. (पता नहीं क्यों वो बच्चे सब हमारे महान राजनीतिज्ञ और सांप अन्ना हजारे लगने लगा - जैसे अन्ना घर से बाहर निकलते हैं और उनमे अशांति सी हो जाती है) बेचारा सांप... हैरान परेशान दायें बायें भागने लगा... मैं थोडा परेशान हुआ, सांप की बाबत; बच्चो को पत्थर मारने से मना किया और उन्हें बताया की सभी सांप जहरीले नहीं होते... ये बेचारे तो चूहों को खा कर जीवन यापन करते हैं. उन्हीं चूहों को जो हमारे घर और रसोई में कोहराम मचाये रखते हैं.

25 दिस॰ 2011

राजू का जवाबी पत्र

राजू, 
कैम्प कार्यालय : खुंदकपुर
दिनाक : २५ दिसंबर २०११ 

अंधकपुर

दिखिए कैसी विडंबना है कि आपको अपने कुल का नाम अभी तक याद है... जबकि अभी तक कई लोग कुलनाम याद रखते हुए भी अपने कुल को भूले बैठे हैं... और इसके लिए वो उक्त जानकारी गूगल बाबा के साभार प्राप्त कर रहे हैं, और मज़े की बात तो यह है कि तमाम तरह की दिमागी हार्ड डिस्क, पेन ड्राइव के स्पेसे फुल होने के बाद भी उसी में भरने का विफल प्रयास कर रहे हैं जैसे रुकमनी की  ख़ुशी कि भांति. पर अमृत तो चलनी में न रुका है और न रुकेगा...
आपका पत्र प्राप्त हुए कई दिन बीत गए -  सोचते विचारते, कई विचार मन के सागर में, जो अपने लिए शब्द तलाशने उतरे थे, वापिस न पाए और इस खुंदकपुर में कैम्प लगने के कारन खुद पर और खुंदक बढ़ चली गयी.... जो कल सांपला में जाकर भी नहीं उतरी... 
आचार्य, खुद को टुकड़ों में बाँट कर देखना और फिर से टुकड़ों को एकत्र कर अपना एक नया रूप बनाने की कला में आप विशेष रूप से दक्ष हैं ... और ये हुनर मैं भी सीखता रहता हूँ, पर जब अपने ही हिस्से का एक टुकड़ा कोई लेकर उड़ जाए तो बहुत विडंबना होती है... कैसे अपने को पूर्णता एकीकृत करें,.... खासकर तब जब जमीर ही खंड-खंड विभक्त हो. 

27 नव॰ 2011

सब व्यर्थ है न प्राची..

मेरे लहू ने पुकारना बंद कर दिया था..
क्योंकि तुम्हारा जमीर भी तो सुन्न हो गया था..
और मेरा खून - पानी .
जैसे खून का दौरा बंद हो जाना... धमनियों में..
या फिर राजमार्गों पर एक के बाद एक
गाड़ियों का थम जाना..
और जाम की स्थिति का बन जाना..
इस जमीर पर विचारों के जाम होने
और मेरे खून के के पानी बनने में..
बहुत कुछ है प्राची...
क्या क्या बताऊँ तुम्हें.
क्या क्या समझाऊं तुम्हे..

25 नव॰ 2011

बनिया, बेटी की शादी और एफ डी आई....Retail FDI... Social responsibility

क्या करें, कुछ खबरें आपको बैचेन करती हैं.
जी, याद आता है जुलाई का महीना और सन १९९३ ... बहन की शादी थी... उस समय के हालात से (हालांकि ऐसे मामलों में हालात लगभग यही रहते हैं..)  और पैसे की तंगी .. बोले तो हाथ टाईट.
सुरेन्द्र जी हैं, तिहाड गाँव में ... किराने की दूकान करते हैं... और दूकान प्रसिद्ध है ढालू की दूकान के नाम से. पुराने बनिया हैं - हलवाई के सामान की लिस्ट लेकर चिंतित होकर उनके पास माताजी और मामा जी (जिनकी खुद गाँव में किराने का थोक का व्यवसाय है) ले कर गए. उन्होंने तुरंत लिस्ट का वाजिब पैसा जोड़ कर बता दिया और सहर्ष तैयार हो गए पैसा किस्तों में लेने के लिए... बिना किसी ब्याज बट्टे के.
एक बनिया या कहिये व्यापारी का सामाजिक उतरदायित्व था... बिना किसी 'कंपनी ला' के .... और आज भी है.. क्योंकि वो खुद उसी समाज का हिस्सा है... उसी का अंग है.
मेरे ख्याल से ये गांधी जी अर्थशास्त्र है या फिर दीनदयाल उपाध्याय जी का एकात्म मानववाद  का ... उसके हर दुःख सुख में इंसान ही इंसान के साथ खड़ा रह सके .... 
साहेब कंपनी ला नहीं था... बिना किसी कंपनी ला के समर्थ व्यक्ति (समाजिक इकाई) आपनी आपनी सामाजिक जवाबदेही तय कर लेता था.  आज आप कानून बना रहे हैं. बनाइये. बजाये उस बनिए को कोई सहुलि़त देने के आप उसे उलझा दीजिए विदेशी साहूकारों के हाथ ..कि वो सामाजिकता भूल कर दिन रात बस दूकानदारी ही सोचता रहे. जनता पिसती रहेगी साहेब.

15 नव॰ 2011

सावधान .. कुत्ते काले कपडे देख कर भड़क जाते हैं..

कलयुग है जी,
मैं तो कहता हूँ – घोर कलयुग...
"रंडियों ने रंडियों को और भिखारियों ने भिखारियों को लताड़ना शुरू कर दिया, नाइ कहाँ नाइ की हजामत मुफ्त में करेगा... पैसे दो मिंया....."
एक मोडर्न सैल्यून में ये बात सुनी थी, .... मैं तो कहता हूँ जी ... घोर कलयुग है...

फोटू आभार : hindustaantimes.com
ब्लॉग जगत में आने के बाद एक शब्द सुना था – कटहई कुतिया .... पर वास्ता नहीं पड़ा, पर टीवी पर देखा तो मालूम हुआ कुछ कंफुज़न हुई होगी ... कुतिया नहीं... कुत्ते होंगे - कटहए कुत्ते.. जो काले कपडे को देख कर भड़क जाते हैं,.... वैसे लाल कपड़ों को देख कर सांड भडकता है.... साक्षात तो नहीं देखा, पर कई फिल्मो में देखा है... और काले कपडे को देख कर कुत्तों का भडकना भी टीवी पर देखा...

10 नव॰ 2011

मत पूछिए क्या लिख गया और क्योंकर....

एक आदरणीय आज उत्तराखंड में एक रेलवे लाइन का शिलानियास करने जा रही थी, पर फिर से किसी रहस्यमय बिमारी के कारण नहीं जा पाई... बिमारी क्या थी – अभी तक मालूम नहीं, क्यों न जा पायी, ये सब आप यहाँ-वहाँ देख सकते हैं.

एक स्वामी जो कल तक जय हिंद का नारा लगा रहा था, आज बिग बॉस के घर में है, कई मंत्री और बड़े बड़े ओद्योगिक घरानों के संत्री आज मेरे पड़ोस ‘तिहाड जेल’ में हैं. मुझे कुछ समझ नहीं आता.... क्योंकि कई और लोग भी हैं जिन्हें इस पवित्र आश्रम में पहुंचना चाहिए था, पर कलियुग में बाहर मायावी दुनिया में उलझे हुए हैं.... उनकी दरकार थी..., कानून अपना काम रहा है,

आज से २७ साल पहले जब मैं नोवीं कक्षा का छात्र था- कुछ लोगों नें संगीन अपराध किया था, आज वो मज़े से सत्ता का सुख भोग रहे हैं, बिना राष्ट्र को शर्मसार किये हुए... और इसी २७ के अंक को जब से ३ से भागे देते हैं और जो अंक आता है, ९ साल पहले जब किसी से ऐसा तथाकथिक ‘अपराध’ हुआ तो आज सलाखों के पीछे पहुंचे का इंतज़ाम करवा दिए गए हैं...... धाराएं है साहेब, कानून है... जो विज्ञान है. 

5 नव॰ 2011

बकरे की माँ ... कब तक खैर मनाएगी..

तिहाड गाँव के पार्क में घास खा गिनती के दिन गुजारता
१०,५०० रुपये का बकरा..... इसकी कुर्बानी के लिए
जो शक्श्स आएगा वो ५०० रुपे मेहनताना लेगा..
इसका मांस मित्रों और रिश्तेदारों में बांटा जाएगा..
इसका चमड़ा दान दिया जाएगा... मदरसों को
'गरीब' विद्यार्थियों के लिए...

बकरे की माँ ... कब तक खैर मनाएगी..

जी कल रविवार तक और... बस
उसके बाद
उसके बाद कुर्बानी है...

2 नव॰ 2011

शराबी लात पर रखता है दुनिया को.

राणो... यारां दा टशन..
देसी दारू..

फोटू कर्टसी http://www.saanj.net
साहेब, शराबखोरी का कोई नियम नहीं होता, न ही इसके लिए देश काल का ध्यान रखा जाता है... शराबखोरी के लिए २ बातें आवश्यक होती हैं - शराब और शराबी... इसमें तीसरा पक्ष है बेमानी. चाहे क्यों न हो वो पानी. नमकीन का क्या हुआ, कहाँ बैठ कर पियेंगे...... यार अभी टाइम क्या हुआ है... सूरज देवता सर पर चमकते हुए मुंह चिढा रहे हैं... इ भी सब है बेमानी....
तु ला बस पानी....
वो भी न मिले तो कोई दिक्कत नहीं,
सरसों को पानी लग रहा है, 
क्या कहा, ट्यूबवेल बहुत दूर है,
कोई नहीं, धोरे (खेत की मुंडेर के साथ साथ पानी की नाली) से पानी ले लेंगे.
प्याला ?
क्या प्याला?
वो भी मिला तो कोई बात नहीं,
साइकल की घंटी उतार कर प्याला बना लेंगे, पौव्वा तो मेरी अंटी में हेगा. बस 'तु' आ.
'तु' यानी, मित्र, सखा, बंधू, प्रियतमा, परमेश्वर...... बस 'तेरा' साथ चाहिए, तु सामने होना चाहिए... मुझे किसी और की जरूरत नहीं.... मैं लात मारता हूँ इस दुनिया को...

जी शराबी लात पर रखता है दुनिया को.

21 अक्तू॰ 2011

जुगाड वैभव यात्रा ..... आइये स्वागत कीजिए

यात्राओं का युग है जी,

सोचते हैं कि हम एक यात्रा निकाले.. पर मुश्किल है... इस अभागे देश में हर मुद्दे को कोई न कोई पार्टी अथवा दल घेर कर / हांक कर लिए जा रहा है... क्वन सा मुद्दा उठाया जाए कि एक दम सटीक बैठे, मनमाफिक... बेशक न दिलाए सत्ता, पर सत्ता के द्वार तक तो ले जाए....
भाई, ये तो गयी जमाने की बातें थी, खुद्दारी, इमानदारी, सब्र, भरोसा... वगैरह, इन्ही सब पर भाषण दिया जाता था और इन्ही सब पर नेता लोगों को राशन(वोट) मिल जाता था... पर अब पब्लिक परम की स्थिति से उबर चुकी है. अब इन शब्दों लफ़्ज़ों और नारों से काम नहीं चलता ... महान परम है उ, जो आज भी इन शब्दों पर भरोसा जता कर मैदान में डटे हैं, गरीबों के साथ खाना खा, उन्ही का गेंहू डकार कैमरों के सामने ठंडी आहें भरते हैं.
पर हम महापरम हैं की अवस्था को प्राप्त हो चुके हैं, इसलिए सोच रहे हैं, कोई तो हो जो पुराने शब्द जैसे खुद्दारी, इमानदारी, सब्र, भरोसा पर अमल कर सके, हम अमल करेंगे, पुरे प्रदेश में यात्रा निकालेंगे, ‘जुगाड वैभव यात्रा’
जी, ‘जुगाड वैभव यात्रा’, लुच्चे लोग है, जुगाड को भूल गए, जिस भरोसे राज किया, माल अंदर किया, अपनों को ठिकाने लगाया, परायों को अपनाया वो अस्त्र ‘जुगाड’ था, उसे भूल गए.
हम पुरातनपंथी हैं, - जानते हैं जुगाड का बहुत योगदान है इस देश की राजनीति में, अत: जुगाड के वैभव और विश्वास को पुन: लौटना है..... तो ‘जुगाड वैभव यात्रा’ निकालनी ही पड़ेगी.
इस देश ने ऐसे कई नेता दिए हैं ... जिनकी काबलियत एक लोकसभा चुनाव जीतने की नहीं थी, पर जुगाड कर के देश के प्रधानमन्त्री पद पर आसीन हुए हैं, प्रधान मंत्री ही क्यों, राष्ट्रपति और न जाने क्या क्या, अपनी औकात से आगे बड कर ऊँचे औह्न्दे पर आसीन हुए .... मात्र जुगाड की वजह से.
विभिन्नताओं भरे देश में, जहाँ देखा जाए तो कबीले और जाति की खापों का राज होना चाहिए, उस देश में जुगाड से हमारी विधानसभाएं और लोकसभा चल रही है... नहीं, पूरा देश चल रहा है. और उस जुगाड को हम भूल बैठे हैं, आज वक्त है कि जुगाड को पुन: उसके वैभव पर पहुंचा कर ही दम लेंगे...
देखो भाई, एक समाजवादी नेता हुए, खिचड़ी दाढ़ी रखते थे, जिंदगी में कभी मंत्री नहीं बने, बने तो सीधे प्रधानमंत्री... एक विनम्र किसान थे, जुगाड देवता ने उन पर भी कृपा करी.. उन्होंने भी सोते सोते ही सही पर प्रधानमंत्री की कुर्सी को सुशोभित किया. क्या देसी, क्या विदेशी, और तो और फ्रेंचकत दाढ़ी वाले भी तर गए. क्या क्या आपार लीला है जुगाड देवता की, उस को भूल गए...
लेफ्ट राईट सभी मंज़ूर, सभी पर कृपया हुई है, कोई अछूता नहीं रहा, अब आप का समर्थन चाहिए,  ये यात्रा जुगाड देवता के लिए है, ताकि ये देवता अपनी कृपा इस गरीब पर भी करें,
आपके क्षेत्र से भी गुजरेगी जुगाड वैभव यात्रा का..... आइये स्वागत कीजिए, और समर्थन दीजिए, इन्ही कि कृपा हुई तो आगामी विधानसभा में हम जीते या हारें, पर जुगाड देवता की कृपा से लाल बत्ती वाली गाडी जरूर प्राप्त करेंगे.
**परम = पढ़िए काशीनाथ सिंह की 'काशी के अस्सी'

जय रामजी की.

11 अक्तू॰ 2011

क्या आपने लालटेन की मनमोहक रौशनी में खाना खाया है...

आपने कभी किसी दूर दराज पिछड़े गाँव में खाना खाया है...
दूर कहीं, भारत के पिछड़े गाँवों में, लालटेन की फीकी लेकिन मनमोहक रौशनी में, चूल्हे के मदम मदम आंच पर बनती जीरे की छौंक लगी अरहड की दाल, और दूसरे चूल्हे पर सिकती मोटी मोटी गेंहूँ की रोटी... प्याज और हरी मिर्च का आचार, दाल पर डालने के लिए देसी घी आप संग लाये हैं,... चारपाई पर आपको ये देशज खाना परोसती किसी गरीब घर की बाला...
जी सपने मत देखिये, आज हिन्दुस्तान में ये सब युवराज कर सकता है या फिर उनके चमचे और या फिर वे गरीब ग्रामीण जिनकी जीवनचर्या ही यही है. आप घर में बैठ टीवी पर खबरें देखकर ही इस स्वाद और माहौल का आनंद ले सकते हैं.
मैं शर्त के साथ कह सकता हूँ कि आपने ऐसा खाना नहीं खाया होगा, गर खाया होता तो आप भी युवराज की तरह कुछ हफ़्तों बाद, देर सवेर पिछड़े गाँवों में पहुँच जाते और खाने की मांग करते. खाना तो खा लिया साहेब, और अखबारों व अन्य मीडिया में आ भी गया; राहुल ने दलित के घर खाया खाना

9 अक्तू॰ 2011

लो भाई अपना रावण फूंको... हम चले - संजय कान्त

हमने इस बार दशहरा नहीं मनाया .....

जी, पिछले कई वर्षों से दशहरा का कार्यकर्म बहुत ही धूमधाम से मनाते आ रहे हैं... लगभग २०-२१ वर्षों से.. उस समय तो कई लड़के बहुत छोटे थे... और कई तो पैदा ही नहीं हुए थे ... खासकर जो शोभायात्रा में राम लक्ष्मण बनते है ... जुड़वाँ भाई, गोली सोनी... जैसा नाम वैसे ही चंचल. एक समय आया कि ये लव कुश बन कर सजे हुए घोड़े की लगाम पकड़ कर चलते थे, फिर वनवासी राम लक्ष्मण, और अब तक राजसी राम लक्ष्मण के स्वरुप में दशहरा की झांकी में अपना योगदान देते थे.

पर सबसे महतवपूर्ण योगदान रहता था संजय भाई का, संजय कान्त. वो 'रावण का काल' की झांकी सजाते थे, जो कि हमारे दशहरे की मुख्य आकर्षण होती थी. आसपास कि कई कालोनियों के दशहरा कमेटियों के प्रतिनिधि उनको अपने यहाँ बुलाते थे और मन माफिक पैसा भी देने को तैयार रहते ... पर तिहाड गाँव का प्रेम संजय को कहीं जाने नहीं देता..

तिहाड़ गाँव के फ्रंटियर भवन में जहाँ, सभी किरदार तैयार होते.... पर संजय अपनी तैयार खुद करता. मेक-अप वगैरह भी... बहुत विभात्सव लगता था... उसके कमर में जंजीरें बंधी रहती... जिसे ६-७ कार्यकर्ता पकडे रहते थे... एक हाथ में मिटटी के तेल की बोतल और दूसरे हाथ में मशाल.... मिटटी के तेल को मुंह में भर कर मशाल पर फुहार सा छोड़ता जिससे कि आग का भयंकर गोला बन जाता था, पब्लिक तित्तर बित्तर हो जाती... पर 'रावण के काल' को न छोडती... उमड़ी रहती ...

कम से कम १२ ढोलों के शोर के बीच संजय का वो अंदाज़ देखते ही बनता था.... आस पास की कोई और शोभा यात्रा तिहाड गाँव की यात्रा के मुकाबले काफी फीकी लगती थी, चाहे उन लोगों ने जितना मर्ज़ी पैसा खर्च किया हो. वो दीवानापन... वो बिंदासपन सिर्फ तिहाड के लड़कों में ही दीखता..

हर साल की भांति संजय इस बार भी सावन में अमरनाथ की यात्रा पर गया था सेवा करने ... पर वहाँ नदी में गिर गया ... जिसे बचाया न जा सका और वो भोले का अनुरागी भोले के धाम में ही फना हो गया..

शाम सात बजे मैं चौक पर बे-मन से आया ... तो रुवांसा चुन्नू मिला.... भरआई आवाज़ में बोला ... भैया अब तक तो जलूस वापिस आ जाता और संजय रेस्ट करने घर चला गया होता, ये बोल कर लो भाई अपना रावण फूंको... हम चले,

मैंने भी यहीं जवाब दिए, हाँ चुन्नू - संजय यही कह कर अपने पक्के घर चला गया, लो भाइयों अपना रावण फूंको... पर मन नहीं माना इस बार.

1 अक्तू॰ 2011

सरकारी सांडों का निजीकरण.

निजीकरण हो गया ......

पुरे देश का..

देश, बैंक, बिजली, रोड, पुल सब कुछ किसी न किस अनुपात में निजी हाथों को सोपं जा चुके हैं... पर ये समझ नहीं आता सांड कैसे छूट गया.
बात आज जुम्मन मियां के मुंह से निकली और हमने तुरंत लपक ली. पडोसी, कल्लन मियां को कह रहे थे;
"मियां लौंडे का बियाह क्यों नहीं कर देते, कब तक दाडी-जुल्फें बड़ाए, यारों की बाईक उधार मांग सरकारी सांड की तरह आवारागर्दी करते रहेंगे"
ओउचक रह गया मैं..
"सरकारी सांड; यानी/मतलब... जुम्मन चच्चा; ये क्या बात कर दी सरकारी सांड वाली"
अरे भाई सरकारी सांड; यानी .... कहीं मुंह मार ले, किसी की भी ढकेल पलट दे, किसी के भी पीछे भाग ले जैसे दिल्ली मुन्सिपल कारपोरशन के कर्मचारी... कहीं भी... किसी भी समय.. सरकारी नुमायेंदे हैं इसीलिए ... कुछ भी कर लेते हैं.. और मन माफिक पैसा पा कर ही बच्चू जी को छोड़ते हैं... तभी सरकारी सांड कहा जाता है.
यही इन लोगों का निजीकरण हो जाए, तो तरीके से तह्सीब से पेश आते हैं जैसे कि आजकल एयरटेल, वोडाफोन, वगैर निजी कंपनियों के मुलाजिम... सर के बिना बात नहीं करते, ये नहीं देखते सामने वाला, लुंगी पहने – बिना बनियान के है क्या वो सर कहलाने के कबिल है या नहीं, पर सर कह कर बात करते हैं; क्या सरकारी सांड यानी एमटीएनएल (दिल्ली, मुंबई के इतर – बीएसएनएल पढ़े) के नुमायेंदे होते ... और सर लगा कर बात करते ... नहीं मियां वो सर पकड़ कर बोलते थे... फोन ठीक नहीं होगा... अगले १०-१५ दिन तक... समझे... इंसान वही... (सांड वही)... काम वही, पर निजी होते ही व्यवाहर बदल गए, औकात बदल गए..

29 सित॰ 2011

किसी न किसी साथ, स्वयं को खड़ा पाता हूँ,

हर वक्त मैं, कहीं न कहीं, किसी न किसी साथ, स्वयं को खड़ा पाता हूँ,
कभी रेल हादसे में मारे गए मृतकों के परिजनों के साथ...मुआवजा पाने वाले लोगों की कतार में,
कभी माल के लिए उजाड़ी गई झोपडपत्तिओं में टूटे चूल्हों से उठते धुओं के गुबार में
रंगारंग समाराहो के बाद वीरान हलवाइयों की भाटियों के पास,
खाना ढूंढते, नग्न बच्चों के साथ., खुद में स्वयं को खड़ा पाता हूँ,
दिनभर रिक्शा खींचता, ८ नहीं बाऊजी १० लगेगें, से दिन निकाल, शाम को
व्यस्त किसी चौहोराहे पर नशे में गिरे पड़े उस मजदूर के साथ; मैं खड़ा नहीं, गिरा मिलता हूँ..
गाँव से मुंह चुराए, वह अब ३२ रुपये में तक्काज़ा मालिक मकान, किराया, खुराकी और नशे पत्ते में चुकता हुए रुपयों का हिसाब लगाते कंधे झुका टुक-टुक कर चलते, उस व्यक्तित्व पर मैं सवार दीखता हूँ,
वैशाली कि टिकट थामे, दिल्ली टेशन पर लाईन में लगे, गाँव पहुँच ‘रजा’ को खिलाने का अहसास मन में दबाये, पुलसिया डंडे खाकर भी नहीं डगमगाए, भैया तुम्हरे साथ हूँ,
अच्छी मिटटी के गारे में, १४ घंटे हाडतौड मेहनत के बाद, ईंट भट्टे की तपन को ठेकेदार के नरम बिस्तर पर उड़ेल; ३२ रुपये कमाने की कशमकश; हाँ देवी मैं वहीँ हूँ ... पर एक नपुंसक दर्शक....
pic courtsey :
http://en.artoffer.com/
halaburda-philippe/brigitte-sait/
तेज भागती महंगी गाड़ियों के गुबार को, सांस रोके देखते रह गए उस ट्रेफिक सिपाही को, अपनी नोट बुक संभाल भी नहीं पाया, और रईसजादा कुचल कर चला गया, पर मैं उठ कर चल पड़ता हूँ, कहीं ओर , किसी और के पास..

.
कि मैं,
अजर हूँ, अमर हूँ ....
बेबस हूँ, मजबूर हूँ, ....
मैं, समय हूँ.....


कलयुग में नीली पगड़ी बांधे... मैं, समय हूँ.....

25 सित॰ 2011

बालिका दिवस... कहानी.

फरीदाबाद से वापिस आते आते आनंद का स्कूटर कुछ तंग करने लगा और मोबाइल भी काफी देर से चिल्ला रह था, संकेत स्पष्ट थे, कुछ देर के लिए रुका जाए... बदरपुरफ्लाई ओवर के समानांतर नीचे चलती रोड पर, कुछ समय विश्राम के लिए ठीक लगी, कि इच्छुक वार्ताकारों से कुछ देर गुफ्तगू भी की जाय.

    बातें करते-करते आनंद की निगाह आसपास के माहौल पर पड़ी तो नियत उसकी भी थोडी ही सही, पर बेरहम हो गयी. सुनहले अक्षरों में लिखा इंग्लिश वाइनशॉप.... और साथ ही ठेका देसी दारू. मानो दो भाई... एक तो सत्ता की सीढ़ी पकड़ कर अमीर हो गया चमक-दमक वाला और दूसरा वही पुरानी लकीर का फकीर. वाइनशॉप के साथ ‘आहाता’ हरियाणा सरकार द्वारा अनुमोदित, वो रेस्टोरेंट जहाँ बैठ कर आप विस्की पी सकते हैं, और देसी ठेके के सामने ही दरियादिरी दिखता व्यक्ति, हर कस्टमर को एक प्लास्टिक का ग्लास, और एक पानी पाउच फ्री में दे रहा है. आसपास, पापड़, चने मुरमुरे, सिगरेट, अंडे फ्राई, छोटी-छोटी फिश फ्राई, मूंगफली, पानीवाला, गोलगप्पे...... बिलकुल मेले जैसे.
    पता नहीं क्यों आनंद को वो कुछ आमंत्रित करती सी लगी, मानो रंगमंच सज्जा हुआ हो, – चलने को तो आनंद नाक पर हाथ रख आगे भी चल सकता था, पर कुछ खोजी ‘कीटाणु’ उसके भी दिमाग में मचल कर रहे थे. अत: छोड़ा न गया, और स्कूटर को एक किनारे ‘पार्क’ कर टहलने लगा.

22 सित॰ 2011

मन और झील कभी नहीं भरती...




पता नहीं क्यों मुझे
झील और मानव मन बराबर लगते हैं.
जैसे खाली बैठे-बैठे मन अशांत हो उठता हैं,
और
गर्मी बितते-बितते झील सूख ज़ाती है,
किन्तु गंदगी मन और झील में
सामान रूप से तैरती रहती है...
मन को किसी चंचल विचारों का,
और, झील को सावन का, इन्तेज़ार रहता है

मन में कुछ ख्याल उमड़ आते है,
जैसे घने काले बादल छाते है...
झमाझम पानी बरसते ही 
गली नालों से बह बह कर पानी
पुन: आता है इस झील में

न भरने की कसम खाने वाली
झील फिर से 
भरने को आतुर हो उठती है.
और न बहकने वाला मन
फिर बहक उठता है,

पहली फुहार से हरियाली लिए 
ये आबाद होने लगती है
क्योंकि सावन का वो उत्साह 
उसे सूखने नहीं देता....
जैसे मित्रगण, मन को शांत होने नहीं देते

और झील में दूर तक फैली हरियाली
मानो मन में भारी अवसाद...

हाँ,
झील सूख कर पुन: भर ज़ाती है
मन .... पुन: अशांत हो उठता है.
 

झील में फैली गंदगी... 
मानो मानव मन की गन्दगी









तिहाड गाँव की झील ... सावन में हरी भरी ...
मानो किसी के पोस्ट पर लहराती टिप्पणियां 

21 सित॰ 2011

बेतरतीब विचार...


आप व्यापारी है या फिर कंपनी में पी आर ओहमेशा चेहरा पोलिश और इस्टाइलीश रखना पड़ेगानहीं तो ग्राहकों पर आपकी बातों कर प्रभाव नहीं पड़ेगा.
ग्राहक आपकी बीमार/मलीन सूरत देख कर दूकान से भाग खड़े होंगे और आप हाथ में की-बोर्ड थामे भाएँ भाएँ करती मक्खियों माफिक बेतरतीब विचारों को भागते/उड़ाते रहिये.
गाँव में कोई भैंस या ऊंट या फिर कोई अन्य पशु मर जाता था.. तो कुछ लोग इक्कट्ठे हो कर उसके स्वामी को कुछ सांत्वना देने पहुँच जाते थे. पशु की डेड बॉडी को खींच कर गाँव की सीमा से बाहर रख दिया जाता था. और कुछ लोग आतेअपने ओजार लिएउसकी चमड़ी को उधेड़-उधेड़ कर पता नहीं कहाँ ले जाते थे. वहाँ  अजीब लाल रंग का दुर्गन्धयुक्त मांस का, भयावह ढेर रह जाता.... कुछ समय पश्चात ऊँचे आसमान से एक दम चीलेकौवे और गिद्ध प्रकट होते... और उस मांस के ढेर को नोच नोच कर खाते थे. दो एक दिन में वो मांस कर ढेर खत्म हो जाता... और दुर्गन्ध भी..
दिल में ऐसे विचार आयेंगे तो चेहरा कैसे मुस्कुराता हुआगरीमा युक्त और शालीन रह सकता है.
कोई ऐसी छन्नी होनी चाहिए कि ऐसे विचार दूर तक रुक जाएँ...
शेष अस्थियों का पिंजर.. सूर्य की तीक्षण किरणों से धीरे धीरे सुख जाता.... पता भी नहीं चलता... फिर कुछ दिन बाद वहाँ हड्डियां भी नहीं मिलती ... पता नहीं कहाँ सब व्लीन हो ज़ाती थी.
यही सब साश्वत हैअब इस महानगर में मुद्दे ही मुझे पशु सामान लगते है. पर नियम उल्टा हैमुद्दों का जन्म ही मानो शुरुवात होती है जैसे कोई पशु मर जाता है. और लोग इक्कट्ठा होते हैं... फिर वही सब... उस मुद्दे को मुख्या जगह से हटा कर दूर कर दिया जाता है ... और दिलो-दिमाग से कसाई किस्म के लोग अपने अपने औज़ार लिए डट जाते हैफिर वही सब चील और कौवेगिद्ध तो ऐसी सडांध में मुंह मार के लुप्त हो गए हैं... फिर दुर्गन्ध पुरे वातावरण में फ़ैल ज़ाती है... और धीरे धीरे मुद्दे अपनी दुर्गन्ध लिए लुप्त हो जाते हैं.
कैसे ?
कैसे कोई मुस्करा सकता है... 
फिरक्या सेल्समैनी के उस पुरातन नियम को ताक पर रख विचारों को चिंगारी दें या विचारों पर ढक्कन कसकर चेहरा पोलिश रखें.
जय रामजी की 

14 सित॰ 2011

बड़े भाई साहेब


कई कार्य गुपचुप तरीके से करने होते है कि कानोकान घर में किसी को खबर न लगे. विशेषकर बड़े सयुंक्त परिवारों में. जैसे मद्य सेवन करना. खासकर चचेरे ममेरे और फुफेरे भाइयों के साथ. उसके लिए बहुत व्यवस्था करनी पड़ती है. सलाद काटनी... रसोई से चुपके से नमक मसाला वगैरा उठा लाना... भौजाई से चिचोरी कर के पापड़ भुनवा लेना और चुपचाप छत पर पहुंचा देना.. :) हालाँकि जितनी भी होसियारी (श ही माना जाए) की जाए पर थोडी देर में घर आंगन में ये बात पता चल ही ज़ाती हैं कि साहेब, मयखाना आबाद हो चुका है... चाहे वो छत के स्टोर में हो या फिर नीचे बरामदे में ठीक बगल वाले कमरे में जहाँ अखबार रद्दी वगैरह रखी ज़ाती है.

और उस दिन बड़े भैया यानि ‘बड़े भाई साहेब’ की बेचैनी देखते ही बनती है... जी ठीक पहचाने, प्रेमचंद ने उनका वर्णन तो कर ही दिया था, आपको तो मात्र संकेत देना भर था.
उस दिन की ही तो बात है, हम सब भाई लोग इक्कठा थे और दिन तो ‘सीप’ में निकल गया - शाम के इन्तेज़ार में. शाम होते होते भाइयों में मद्यसेवन व्यवस्था हेतु सलाह मशवरा शुरू हो गया. काम बाटें जाने लगे – और आर्थिक पक्ष पर भी जमकर चर्चा हुई. (क्या किया जा सकता है – देश जितनी मर्ज़ी तरक्की कर ले, पर आज एक युवा अपने भाइयों पर खर्च नहीं कर सकता – चाहे इस पर शोधपत्र लिखवा लो).
छत पर बना कमरा कई मायनों में उचित स्थान के लिए उचित लगता, कि बच्चे वहाँ कम आयेंगे, बड़े भी जरूरत पर आवाज लगाएंगे, और गर कोई भाई ‘बहक’ भी जाए तो नीचे तक पता नहीं चलेगा. एक एक कर के सभी उपर बस मेरे को छोड़ कर – जिसने ‘व्यवस्था’ करनी थी, रह गया हाथ में २५० रुपे और बाकी ५० मुझे अपनी जेब से मिलाने थे :)
और आधे घंटे के बाद उपरी उस कमरे में महफ़िल गुलजार थी, देसी हंसी ठहाकों के साथ – हालांकि किवाड बंद कर रखे थे.  १ पेग अंदर गया ही था कि, आवाज़ आई  और मेरे साथ ३ और भाइयों के कान खड़े हो गए.
रे पप्पे, खाना खा लो यार, खाना तैयार है....
बहेंच..... अभी तक तो खाने का आता पता नहीं था, अब खाना कहाँ से तैयार हो गया..
पप्पे, सुन रहा है न...
अरे, एक पेग बना कर बाहर दे दो, मझले भैया की अनुभवी आवाज़ थी..
भैया, हाँ अभी आ रहे हैं, ये लो..
ठीक है, .... (संतुष्टि से पेग निगलते हुए) देखो भाई घर के संस्कार होते है, कुछ ऊंच नीच देखी ज़ाती है.... तुम तो बिलकुल उज्जड हो, दारू पीने बैठ जाते हो घर में, बच्चो पर क्या प्रभाव पड़ेगा - सोचा कभी... अपनी मेहनत का पैसा यूँ उड़ाते हो, कुछ शर्म भी नहीं आती, चलो छोडो मैं भी क्या बकने लगा.... तुम एन्जॉय करो यार, पर खाना समय पर खा लेना. ठीक है, .... (संतुष्टि से पेग निगलते हुए) 
थोडी देर बाद कालू आलू की चाट ले कर आ गया......
रे कालू ये आलू की चाट किसने भिजवाई..
चचा, ताऊ जी ने भिजवाई है,
चाट यहाँ रख कर भाग कालू यहाँ से... तेरे ताऊ जी को भी चैन नहीं.. , 
देखो अभी तक खाने का पूछ रहे थे, अब आलू की चाट भिजवा दी.
अरे छोड़ पप्पे, जानता तो है न भाई साहेब को, हरकतों से बाज़ भी नहीं आयेंगे और अपने उच्च संस्कारों का दिखावा करते रहेंगे, तुम जानते तो हो न..
थोडी देर बीती थी, कि फिर से आवाज़ आयी..
अरे पप्पे, भाई याद आ गया, वो बनिया को पैसे देने गया था तो कलम कटवा तो आया था न, कई बार पैसे देने के बाद भी लिखा रहता है. .... वैसे ज्यादा पीना ठीक नहीं रहता..
 एक पेग बना कर और दो भाई, तभी शांति मिलेगी..
किवाड थोडा सा खुला और गिलास बाहर दिया गया,
उसके बाद २० मिनट तक भाई साहेब की आवाज़ सुनाई नहीं दी........
आधे घंटे बाद फिर से आवाज़ आई,...
देखो भाई जीतनी देर मर्ज़ी बैठो, अपना घर है और सब अपने ही हो, पर नीचे रसोई में इन्तेज़ार हो रहा है, वो बेचारी कब तक तुम्हारा इन्तेज़ार देखेंगी, खाना खा लेते तो अच्छा था..... खाना .. सुना न....
किवाड खुला, और एक पेग बाहर निकला जैसे पहले सिनेमा घरों में टिकट निकलती थी, टिकट देने वाले का चेहरा नहीं देख पाते थे.. :)
ठीक है, भाई ... बैठो, मौज करो, तुम कौन सा रोज बैठते हो... यही उम्र है....... , ध्यान देना दारू गटक कर बाहर आवारागर्दी मत करना सीधे नीचे आ खाना खाकर सो जाना, समझे,  और हाँ लेडिस को भी सोचना चाहिए, एक दिन तो खाने के लिए इन्तेज़ार किया जा सकता है...
जी, भाई साहेब, छद्म आवरण में अपने हिस्सा ले जा चुके थे बिना किसी अहेसान के, पप्पे मण्डली का कोटा भी समाप्त प्राय था.... थोडी देर में रसोई घर में...
भाभी खाना लगा दो... भैया कहाँ है,
भैया, तुम्हारे भैया तो खाना खा कर, देखो चद्दर ओढ़े खराटे मार रहे है, वैसे क्या बात है, आज बहुत प्रस्सन थे, बोले पहले बता देते ... कुछ प्रोग्राम वोग्राम करना है, तो मैं इनके लिए चिकन-मटन मंगवा देता... पैसे फूटी कोड़ी नहीं होता जेब में और बात करते हैं... चिकन-मटन..
अरे भाभी जाने दो, आप तो जानती है न हमारे भाई साहेब का स्वभाव ही कुछ ऐसा है... आखिर संस्कारों में पले बड़े हैं..... और सबसे बड़ी बात वो बड़े हैं... आखिर मरजात भी कोई चीज़ होती है न....
जी ये एक मित्र के भी मित्र के बड़े भैया थे,........ क्यों नहीं आपको ‘बड़े भाई साहेब’ याद आयें.
जय राम जी की 

2 सित॰ 2011

मैं और मेरी तन्हाई - क्या बातें करते हैं...

मैं और मेरी तन्हाई,
अक्सर ये बातें करते हैं तुम होती तो कैसा होता,
तुम ये कहती, तुम वो कहती
तुम इस बात पे हैरां होती,
तुम उस बात पे कितनी हँसती
तुम होती तो ऐसा होता, तुम होती तो वैसा होता
मैं और मेरी तन्हाई, अक्सर ये बातें करते हैं
तिहाड गाँव शमशान के पीछे, पार्क का हिस्सा, मैं और मेरी तन्हाई :)


हाँ, बीरान उस जगह....... दूर तक जहाँ फैले हैं घनी छायादार वृक्षों की कतारें... वहीं कहीं जहाँ चार बेंच लगे हैं, ... मैं और तुम. बैठ कर बतियाते... बातें करते ढेर सी. पर तुम नहीं हो. तुम नहीं हो, प्रिये, बस मैं हूँ एकांत में. मैं. अकसर ये बातें करता हूँ अपने आप से. तुम होती तो क्या होता और तुम न हो तो क्या है..
ये रात है, या तुम्हारी ज़ुल्फ़ें खुली हुई हैं
है चाँदनी तुम्हारी नज़रों से, मेरी राते धुली हुई हैं
ये चाँद है, या तुम्हारा कँगन
सितारे हैं या तुम्हारा आँचल

पता नहीं क्या क्या प्रिय, तुम्हारी जुल्फें, यूँ खुली हुई.... माने रात हो गयी. कितना अजीब लगता है न... काश तुमने जुल्फें न खोली होती... और ये रात भी न होती और वो भयंकर कारनामे जो रात में अंजाम दिए जाते हैं वो भी ना होते... प्रिय सोचो, कितनी बिचारी अबलायें दुष्कर्म से बच जाति. क्या तुम दोषी हो उन सब के लिए? नहीं.. मैं नहीं मान सकता... मानता हूँ कि तुम मतवाला बना देती हो.. पर उस स्तर तक कोई कैसे गिर सकता है प्रिय. नहीं तुम्हारी जुल्फों से रात नहीं होती... ये मात्र कवि का बकलोल है.. मात्र यही... और देखो चाँद और कंगन... सब जूठा है न प्रिय... चाँद आज भी विराजमान है और तुम्हारा कंगन... देखो कैसे शोहदों ने चौक पर रामपुरी दिखा कर लूट लिया था... अगर ये सत्य होता तो क्या ईद आती.. नहीं न. पर ईद आयी और सिवैयां हम दोनों ने खूब खाई... कितनी मोह्हबत से तुमने मुझे सैवियाँ खिलाई थी... यही तो ईद का भाईचारा है न. ईद का दिन है गले आज तो मिल ले ज़ालिम - रस्मे-दुनिया भी है, मौक़ा भी है, दस्तूर भी है..... पर नहीं, तुम्हे तो इस समाज कसे खौफ, कैसे मिल सकती थी गले, और न ही मिली... मैं बेफकूफ की तरह तुम्हारे भाईजान को ही ईद की मुबारकबाद देता हुआ घर आया. 
     कवि की कल्पना को रहने दो. और उस पर कहता है सितारे है या तुम्हारा आँचल... खामखा तुर्रमखा .... भैयाजी जाइए संभालिए महबूबा के आँचल को. बाईक पर सवार किसी आवारा ने लपक लिया तो .... छोडो अब क्या कहूँ. कई बातें कहने के लिए नहीं होती.. बस इशारे में समझ लिया जाता है.. भैयाजी अपनी इज्जत अपने हाथ. हवा का झोंका है, या तुम्हारे बदन की खुशबू 
ये पत्तियों की है सरसराहट के तुमने चुपके से कुछ कहा 
ये पत्तियों की सरसराहट ...... व्यर्थ ही न .. इस घनघोर जंगल में पत्तियों की सरसराहट... प्रिय तुमने ‘जंगल’ फिल्म देखी होगी न... मेरे तो रोंगटे खड़े हो जाते है और वो कह रहा है कि ‘तुमने कुछ कहा’... अमां यार तुमने कुछ कहना होगा तो फोन करोगी न....... या फिर बैलंस कम होने से तो मिसकाल, पर पत्तियों के इशारे से तो कुछ न कहोगी. मैं जानता हूँ प्रिय. पर इस वीराने में इस तरह पत्तियों की सरसराहट मात्र किसी जंगली जीव की उपस्तिथि का ही अंदाजा हो सकता है... देखो कवि मुझे ‘परम’ बनाने पर तुला है प्रिय... पर मैं इसके चक्रव्हूँ में नहीं फसुंगा..
कि जबकी मुझको भी ये खबर है
कि तुम नहीं हो, कहीं नहीं हो
मगर ये दिल है कि कह रहा है
तुम यहीं हो, यहीं कहीं हो
हाँ, अब सहमत हूँ उस से...... मुझे खबर है तुम नहीं हो, देखो मेरे लेप्पी में जी-मेल के अकाउंट में तुम्हारे नाम के आगे अभी तक हरी बत्ती नहीं जली है, और ये मुआ मोबाइल भी तुम्हारे नॉट रिचेबल की सूचना दे रहा है... पर ये कवि है प्रिय... कि बार बार मुझे आगाह कर रहा है ... कि तुम यहीं हो यहीं कहीं हो..., मैं जानता हूँ प्रिय तुम कहीं सुदूर दक्षिण दिल्ली में किसी महंगे शोरूम में अपने नए ‘दोस्त’ के लिए कुछ गिफ्ट खरीद रही हो... पर ये कवि कहीं न कहीं सत्य है उस बाबत भी कि तुम्हारे उस दोस्त की आवाज़ में आवाज़ मिला कर कह रहा है .... ‘तुम यहीं हो, यहीं कहीं हो’ पर मेरे से दूर हो प्रिय.
तू बदन है मैं हूँ साया, तू ना हो तो मैं कहाँ हूँ
मुझे प्यार करने वाले, तू जहाँ है मैं वहाँ हूँ
हमें मिलना ही था हमदम, इसी राह पे निकलते
हाँ प्रिय, ये तुम्हारी जैसी आवाज़ है.... बिलकुल ... ये भी कह सकता हूँ कि तुम ही बोल उठी हो, मैं बदन जरूर हूँ प्रिय, पर साया.......... साया कोसों दूर, बहुत दूर. दिल्ली के शेहरी कृत दिहातों की तंग गलियों में जहाँ ऊँची ऊँची बिल्डिंग भाई लोगों ने बना दी है, वहाँ मेरा साया ही मुझ तक नहीं पहुँच पाता, फिर तुम दूर बैठ कर नगमा गा रही हो... कैसे प्रिये कैसे.. कैसे तुम मेरे साथ हो सकती हो... वहाँ जहाँ उस शेहरीकृत गाँव के हर चोराहे पर मुझे थामने वाले मेरे बदनाम भाई मेरे साये को भी मेरे पास भटकने नहीं देते... तेरी आवाज़ तो वहीँ कहीं दब गयी न..
मजबूर ये हालात, इधर भी है उधर भी
तन्हाई के ये रात, इधर भी है उधर भी
कहने को बहुत कुछ है, मगर किससे कहें हम
कब तक यूँही खामोश रहें, और सहें हम
दिल कहता है दुनिया की हर इक रस्म उठा दें
दीवार जो हम दोनो में है, आज गिरा दें
क्यों दिल में सुलगते रहें, लोगों को बता दें
हां हमको मुहब्बत है, मोहब्बत है, मोहब्बत है
अब दिल में यही बात, इधर भी है, उधर भी
देखो प्रिय, दिल की बातें कई बार रेडियो में सुनाई दे ज़ाती हैं, क्या ऐसा नहीं लगता कि किसी ने हमारी बातें ही ‘एयर’ कर दी हों. हाँ मोहबत है...... अल्लाह मियां तुम्हारे वालिद को लंबी उम्र बक्शें, जिन्होंने इतनी मुश्किल से वो फिल्लिप्स का एफ एम सेट घर में ला कर रखा था, जिसमे रात को वो अपनी जवानी की याद में ‘पुरानी जींस’ को सुन गुनगुनाते मिलते और दिन में तुम, हाँ प्रिय, तुम मेरे फरमाइशी गीतों को सुनती... और दिलो के वो तार मिस काल द्वारा मिल जाया करते थे. 
        पर क्या कहा जाए प्रिय. देखो मैं किन भावुक क्षणों में तुम्हे मेवाड आइस क्रीम पार्लर की रेहडी पर ले गया था, और तुम्हारी फरमाइश पर मैंने दिल खोल कर १५ रुपे खर्च किये ... ये तो बेडा गरक हो उस पप्पू चाय वाले की दूकान का... न वो दूकान होती और न ही वहाँ मेरे बकलोल मित्र, जो बहुत देर से किसी ‘आसामी’ को ढूँढ रहे थे, और मुझे तुम संग देख कर सीधे हल्ला बोला मेवाड पार्लर पर........ वो झट से आइस क्रीम का कप ५ चमचों के साथ पेल गए... हम और तुम- प्रिय, दोनों देखते रह गए. और उसके बाद ये शिक्वे शिकायतों की सनातन परम्परा... प्रिय कसम से, कई दिन के वायदे को पूरा कर रहा था, अभी कल ही कंपनी से २०० रुपे मिले थे स्कूटर में पेट्रोल भरवाने को, वहीं से ३० रुपे का ‘जुगाड’ किया था, सोचा तुम्हे आइसक्रीम खिलाकर अपना वायदा ‘जेंटलमेंन प्रोमिस’ की तरह पूरा करूँगा... कितने मुश्किल से तुम्हे पटा कर लाया था, उफ़ कितनी मुश्किल से.....

Photo : Deepak Dudeja.... 

31 अग॰ 2011

जनता बेचारी नग्न है...


पूजा का दिया..
मंदिर की घंटी..
धूप कपूर और बाती 
प्रसाद, खीर और पूरी
पता नहीं कितना कुछ..
वाह
प्रभु आप तो  मग्न है..

जनता बेचारी नग्न है...

24 अग॰ 2011

नशा बुरी बात........ नहीं तो सब कुछ उल्टा पुल्टा........

लीना तरकारी काट के खाना बनाने का उपक्रम कर रही है... बच्चे डब्लू डब्लू ई, और मैं... बोतल खोल एक किनारे बैठ जाता हूँ..

सामने दिवार पर... चाचा नेहरु कोट पर फूल लगाए मुस्कुरा रहे है... और गाँधी जी.. १००० नोट के उपर..... जो सब्जी वाला लेने आया है.
टीवी पर अन्ना हजारे हैं... अर्धलेटे हुए ..... किरण बेदी तिरंगा लहरा रही है... सोनिया गाँधी...  लेक्चर दे रही है ... और मनमोहन सिंह आज्ञाकारी बच्चे की तरह सुन रहे हैं........ प्रणव दादा सहमति से सर हिलाते हैं ....... कपिल सिब्बल और दिग्विजय तिवारी मौन है..... क्लास लग चुकी है..
बोतले खुली पड़ी है ....... और मैं एक पेग ख़त्म करता हूँ .... अन्ना हजारे करवट बदल लेते हैं... किरण बेदी का हाथ थक गया है..... केजरीवाल झंडा थाम लेते हैं....
मनमोहन सिंह का सर झुका हुआ है..
सब्जी वाला चला जाता है...... गाँधी जी भी गए.... 
लीना झल्लाहट के साथ आती है... 
प्याज काटने से आंसू आ रहे है.... मैं अन्ना हूँ की टोपी पहने ... एक महिला भी रो रही है....... साथ ही प्याज काट रही है.....
मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता..
अन्ना फिर करवट लेते हैं...... भूखे पेट नींद नहीं आती.... डॉ. चेक कर रहे हैं...
३ पेग ख़त्म होने को है..
प्रणव मुखर्जी झंडा फिराने लग जाते है....  किरण बेदी... कुर्सी पर बैठ गयी है... केजरीवाल मौन है....... जैसे सब समझ आ गया... बच्चे थक कर देखते हैं...  संसंद में डब्लू डब्लू ई शुरू हो जाती है...... चित्र में से नेहरु मुस्कुराते हैं....
राहुल गांधी आते हैं... भूख बहुत लगी है... पर प्याज कटे नहीं और तरकारी बनी नहीं... दलित महिला के यहाँ पिछले ९ दिन से चूल्हा नहीं जला... राहुल को रोटी नहीं मिली....
बाबा आंबेडकर...... बुखारी साहेब की टोपी पहनते हैं........ गांधी जी की नहीं.... क्योंकि वो तो अन्ना ने पहन ली जो उत्तर गयी क्योंकि अन्ना करवटें बहुत बदलते हैं... भूखे पेट बुजुर्ग को नींद नहीं आती...
४ पेग भी जाता है जहाँ बाकी ३ गए ..
मैं रोटी के लिए आवाज लगता हूँ, लीना आग्नेय नेत्रों से घूरती है....... मनमोहन सिंह हाथ जोड़ते हैं..... सोनिया गाँधी रसोई में है..... उसे नमकदानी नहीं मिलती....... राहुल गाँधी मना करता है ...... उसे दलित के घर का खाना चाहिए... बच्चे सारा कौतुक देखते हैं... देश देख रहा है....... 
अन्ना फिर करवटें बदलते हैं.....
धीरे धीरे ....
मैं चारों तरफ देखता हूँ संशय वाली नज़रों से....
१ पेग और लेता हूँ ....
नेहरु अट्हास करने लग जाते हैं..... उनकी गांधी टोपी गिर जाती है......... जो लपक कर राहुल गाँधी उठा लेता है.... और पहनता हैं....
प्रणव आते हैं... और राहुल की टोपी उतार कर उसकी जेब में रख देते हैं...
बच्चे फिर कौतुक देखते हैं..
संसद में डब्लू डब्लू ई,  चलती रहती है.... 
अन्ना इंतज़ार में हैं.... रोटी के ... भूखे... पर सोनिया गाँधी खाना जला देती है......
मनमोहन सिंह विदा लेते हैं...... 
बोतल सामने रखी रखी ख़त्म होने को आती है....... 
दिवार से चाचा नेहरु परेशान दीखते हैं... गुलाब का फूल गायब है...
टीवी पर फिर अन्ना दिख रहे है... गुलाब का फूल हाथ में लिए हुए, मुस्कराहट के साथ...
राम लीला मैदान में फिर से...
सब्जी वाला १००० का गाँधी जी दान पेटी में डाल देते हैं...... क्योंकि  
मनमोहन सिंह लेटे लेटे करवटें बदलते हैं ....... नीली पगड़ी पहने.... संसद में डब्लू डब्लू ई,  ख़त्म हो जाती है....... सभी आकर सामने बैठे हैं..... नीली पगड़ी पहने...
सोनिया गाँधी तिरंगा लहरा रहीं है मंच से ..... चक्र की जगह हाथ है...... प्रणव गा रहे हैं..... हम होंगे कामयाब .... हम होंगे कामयाब एक दिन... 
अन्ना मुस्कुराते हैं लालकिले से ..... .... गरीब अटट्हास करता है...  झोपड़े से निकल कर... क्योंकि झोपड़े में तिरंगा लहरा रहा है..
बोतल खाली होकर गिर जाती है..... और मैं पूर्णत: भर कर नाचता हूँ..........  प्याज़ काटने से आंसू नहीं निकलते .... सभी नाच रहे हैं.... 
पर राम लीला मैदान में सभी बैठे हैं खामोश......... नीली पगड़ी पहने ..... 
और उनकी छाती पर लिखा है .....मैं मनमोहन ,,,,,,,,,,,,

जय राम जी की..




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जी, अर्चना जी को पोस्ट बहुत पसंद आयी और उन्होंने इस पोस्ट को आवाज़ भी दी कि 'देखी जायेगी' आप उनके ब्लॉग 'मेरे मन की'  पर सुन सकते हैं... 

18 अग॰ 2011

कुछ चुटकियाँ ....... अन्ना हजारे....२


Photographs : deepak dudeja 
काग भुशंडी..... अकेले बैठ ... बक बक करता रहता है ... सब बेकार ...
 मामा 
मोनू चल ..
कहाँ...
तिहाड़ जेल से सामने..
छोड़ यार, आज देट पर जाना है......
साले, छोड़ दे कुछ दिन के लिए ये देट वेट .... नहीं तो कल तुम्हारे बच्चे प्रशन करेंगे ... 
पापा जब देश में दूसरी आजादी की लड़ाई लड़ी जा रही थी तुम कहाँ थे?
और तुम मन ही मन सोच रहे होगे..
अरे बेवफा, जब मेरे दोस्त अन्ना के साथ आन्दोलन कर रहे थे और मैं तेरी जुल्फों की छाँव में गुलजार को पढ़ रहा था, उस पर भी तुम किसी और की हो गयी, और मैं आज तुम्हारे बच्चों से आँखे चुराता घूमता हूँ.... कहीं मामा न कह दें.....
बुढ़ापा 
पापा,
बेटा, बोलो.....
जाओ न, शर्मा अंकल भी जा रहे हैं... पड़ोस में ही .... अन्ना हजारे को छुडवाने..
अरे पपू, दूकान कौन संभालेगा, आजकल वैसे भी मोमबत्ती की शोर्टेज पड़ रही है..
जाओ न पापा... नहीं कल जब दूसरी आजादी वालों की भी पेंशन बनेगी... और तुम्हारा नाम तो होगा नहीं तिहाड जेल के रजिस्टर में..... 
कल तुम मेरे पर बोझ बनोगे... जाओ ... हो सकता है आंदोलनकारियों की पेंशन बन जाए ... और तुम्हारा बुढ़ापा आराम से कट जाएगा...
पनवाडी
रामू तुम क्यों परेशान हो.... दुनिया नाच गा रही है... और एक तुम हो कि चेहरे पर बारह बजा रखे हैं..क्या करें भाई, आम दिनों में, कैदियों को मिलने वाले आते है ... कुछ गुटखा और सिगरेट खरीद के ले जाते है... पर जब से ये अन्ना का दंगा शुरू हुआ है.... कोई खरीददार नहीं है...लोग अनशन की बात करते है ... रोटी तो खाते नहीं.... पान सिगरेट क्या पीयेंगे....इसलिए उदास हूँ...
किसानी
अंकल जी....क्या हुआ, क्यों उदास हो....
कुछ नहीं बेटा,  टीवी देख रहा हूँ, 
पर यहाँ तो अन्ना हजारे का लाइव निव्ज़ आ रहा है,
हाँ बेटा, मैंने भी देखा था जे पी को लाइव, पटना के गांधी मैदान में, बहुत उम्मीदें थी, 
फिर
फिर क्या बेटा, पब्लिक है, सब भूल जायेगी - जैसे जे पी को भूल गयी. जैसे मैं आज परेशान हूँ, ये युवा पीढ़ी भी १०-२० साल बाद परेशान होगी..... वो भी तब जब लोक पाल बिल पारित हो जाएगा ...... और ये देश यूँ ही बर्गर पिज्जा खाता हुआ विकास की राह पर चल रहा होगा, और किसानी करने को कोई नहीं होगा..... क्योंकि जमीने ही नहीं होगी... तब कोई नहीं पूछेगा, प्रधानमंत्री जी, गेंहूँ विदेश से ही क्यों आता है.... 
क्या अन्ना हजारे के मुताबिक़ लोकपाल बिल पास होने से सभी समस्याएँ हल हो जायेगीं ? 
क्या किसान आत्महत्याएं करना भूल जायेंगे?
क्या झोपडपट्टी में रहेने वाले, खुले रोड पर शौच करने वाले, रेड लाइट पर भीख मांगे वाले -इज्ज़त से रह पायेंगे ?
क्या हिन्दुस्तान का वो पुराना वैभव लौट आएगा.... एक हिंदू साध्वी जेल में जलील नहीं होगी?
क्या पडोसी लोगों को उनकी औकात दिखा दी जायेगी... कि एक भी हिन्दुस्तानी को मारने का क्या अंजाम होता है. हिन्दुस्तानी लोगों की जीवन की कीमत एक कीड़े-मकोड़े से उपर हो जायेगी.
क्या अपनी महनत के बल पर खड़ा हुआ एक कुशल कारीगर .... जो अपने व्यवसाय खोल कर ४-५ लोगों को रोज़गार दे रहा है.......इन इंस्पेकटरों (सेल्स, इन्कम, एम सी डी, लेबर, पोल्लुशन) के  पैर नहीं पड़ेगा.... गिडगिडायेगा तो नहीं... इंस्पेक्टर राज  का खात्मा हो जाएगा 
क्या मेंहनतकश मजदूर भी इज्ज़त की जिदगी के सपने देख पायेगा..
नहीं ...
नहीं तो सब बेकार है....
समय बर्बाद.
और कुछ नहीं....
 अन्ना हजारे जी, आपने रालेगन गाँव को आदर्श गाँव बना कर दिखाया ....  अगर आप भारत के एक एक गाँव में इसी परकार अलख जागते ... नशा मुक्ति करते, पानी बचाते, स्वालंबन सिखाते ... उनको शहर जाने से रोकते तो मेरे ख्याल से भारत देश पुन: अपने पूर्ण वैभव को प्राप्त करता, बिना किसी लोकपाल बिल के.....


जय राम जी की.
.................................................................................................................................

20.8.2011 को देर शाम जोड़ा गया : (पु:निश्चय) 

जी, १६ टीप प्राप्त हुई है......  कोई भी बात जो अन्ना के प्रति विद्रोह दिखाती हो, ब्लोग्गर बंधुओं को  स्वीकार नहीं...  कोई बात नहीं.. मन के विचारों को बाहर निकलना चाहिए... न की नासूर बनने के छोड़ दें मन में ही..... बाकि कौन क्या करता है या कौन क्या करेगा... ये तो देश के हालात बता रहे हैं....  और बताते रहेंगे.

जलाते रहिये मोमबतियां..........
गाते रहिये गीत क्रांतियों के

हम भी गीत लिख रहे हैं क्रांति पर..
मेरी नज़र में ....

जय राम जी की.