24 जुल॰ 2014

नहीं रहे वो जीने वाले.

दुनिया में कत्लोगेरत है, बारूद है, दीन है ईमान है पैसा है माया है तो दिखावा भी है अत: लोग जिए जा रहे हैं. ज़ेज है पॉप है पर शोर है लोग सुने जा रहे हैं. समाज में बहुत नासूर है फिर भी सब लोग जिए जा रहे हैं. झरने हैं.... बहते नहीं, झील हैं – सुखी हुई, आँखें हैं सुनी, आस – विश्वास नामक शब्द हैं रूठे हुए. प्याज़ हैं, टमाटर हैं, आलू और परवल भी – पर एकांत सी – भैया की ढकेल पर. कोई पूछता नहीं. जवानी है – बिना रवानी के. बुढापा है बिना तजुर्बे के. मानव है बिना मानवता के.
सच एक शरीर मात्र रह गए है बिना आत्मा के.
फिर भी एक जिद्द है. जिद्द है जीने की – कुछ पाने की – कुछ को समेटने की. चलनी में अमृत रखने की कवायद में जिए चले जा रहे हैं. कैसा ये रास्ता है – कहाँ तक मंजिल है मालूम नहीं. चले जा रहे हैं. कुछ मिथ जीने के लिए गड़ रखे हैं – सो फ़ॉलो किये जा रहे हैं. कुछ लकीरें खिंची है. कभी इस ओर – तो कभी दूसरी ओर. कहाँ कौन नायक है – कैसा ध्वज है – किसे परवाह. बस उछल कूद कर खिंची लकीरों में पाला ही बदले जा रहे हैं.
सच एक शरीर मात्र रह गए है बिना आत्मा के.
कौन देस से आया पथिक या फिर कौन देस जाना गौरी. जाने कब सुनी थी माँ की लौरी. हल्की थपकी. प्यार भरी बोली. सांझ को चूल्हे से महकती तरकारी. चोथरे की वो अड्डेबाजी वो भदेसपन – सच एक भरपूर जीवन.
नहीं रहे वो जीने वाले.
मर गए ढंग से पीने वाले.
सच एक शरीर मात्र रह गए है बिना आत्मा के.

18 जून 2014

प्रिय मैगी


प्रिय मैगी

पता नहीं संबोधन में तुम्हे सही शब्द दिया है या नहीं. पर शुक्र कीजिए एंग्लो संस्कृति का ... कि अनजान को भी चिट्ठी लिखते हैं, तो नाम से पहले डिअर लगा देते हैं. तुम्हारे और मेरे रिश्ते में कहीं डिअर जैसा शब्द हो मुझे याद नहीं आ रहा और मैं तुम्हे पत्र लिख रहा हूँ, ये बात मुझे हजम नहीं हो रही. ऐसा नहीं है कि भारतीय डाक सेवा से मेरा विश्वास उठ गया है. बात ऐसी है की खत लिखने का प्रचलन ही खत्म हो चला है. गए दिनों की बात हो गयी है कि अहम् कुशलम् अस्तु और आपकी कुशलता परम पिता परमात्मा से नेक चाहता हूँ. डर लगता है – चिट्ठी लिखते हुए. ऐसा लगता है कि कुछ चोरी कर रहा हूँ, अत: प्रिय मैगी इसे चिट्ठी मत समझना. 

मैगी आज तुम्हारी तुलना महंगाई से कर दी गयी तो मुझे ये तुम्हारी याद आ गयी. जैसेकि विज्ञापनों में सभी उत्पादों की तारीफ में कुछ न कुछ बढ़चढ़ बोला जाता है – वैसे ही ये दो मिनट का आकड़ा तुम्हारे साथ फिट बैठ गया ... पता नहीं कौन सा कॉपीराईटर था. अनाम सा. और अनाम ही रह गया. मैगी और दो मिनट तो एक दुसरे के समक्ष हो गए पर लिखने वाला गुमनाम रह गया.

कई नन्हे मुन्हे – मम्मी से भूख लगने पर दो मिनट का समय देते थे पर वो नादान अभी तक घडी देखना नहीं सीखे थे – कि दो मिनट कितना होता है. ये मम्मी पर निर्भर करता था कितनी जल्दी मैगी पका कर परोसती थी और आस पड़ोस के बच्चों को भी खिलाती थी. ऐसा नहीं कि पहले जमाने की मम्मी बहुत बड़े दिल वाली होती थी. पर ये कॉपीराइटर की मज़बूरी थी, कि तुम्हारी औकात कम दिखा कर मम्मी की दरियादिली दिखाना. वैसे उस समय भी माँ बस अपने बच्चों को मैगी बना कर खिलाती थी – वो भी जिनके घर में बड़ा सा काला सफ़ेद टेलीविजन होता था. बाकि तो दुपहर की बची सुखी रोटी पर चीनी या नमक लगा कर खाया करते थे.

प्रिय मैगी (इस 'प्रिय' शब्द को साथ ही चलने दो – प्रवाह है रोको नहीं मैगी), समय का चक्र घुमा, तुम्हे शायद याद हो, जो बच्चे मैगी खा कर बड़े हुए उनका एडमिशन डाक्टरी और इंजिनयरिंग में हुआ. वही कालेज के होस्टल में रात को भूख लगने पर इस दो मिनट का जादू करते नज़र आये. शायद वो इन पंक्तियों को पढ़ रहे होंगे प्रिय मैगी. धीरे धीरे ही सही, पर ये टेलीविजन नामक बक्सा गरीब की झोपडी में भी आया. और इसी के साथ तुम अवैध घुसपैठिये की तरह उस गरीब के घर में इंटर हुई. ऐसा समय था  - जब गरीब बजाय बच्चों के, घर में आये मेहमानों को मैगी परोसने लगा – चाहे भूख हो या न हो. 

तुम सार्वदेशिक और सार्वभौमिक हो मैगी. एक तुम्ही हो जिसने इस विकट ३६ जातपात और ६३ बिरादरी भरे देश में हर घर में अपनी पहचान बनाई. नादान है वो जो तुम्हें दो मिनट का जादू समझते हैं – अभी नए खिलाड़ी हैं. उन्हें पता नहीं कि ये पहाड़ों में हर ५०० मीटर की चढ़ाई के बाद मैगी का २० रूपये रेट बढ़ जाता है – बिना किसी सरकारी अधिसूचना के और तुम्हारी उपयोगिता १०० प्रतिशत अधिक. ऐसा भी समय आता है जब खराब मौसम में मैदान का मुसाफिर पहाड़ों पर एक कप चाय और एक प्लेट मैगी के लिए पुरे तीन महीने का टाक टाइम न्योछवर कर देता है.

प्रिय मैगी, तुम जिस हाल में भी हो खुश रहो. लोगों की भूख मिटाती रहो – चाहे दो मिनट में तैयार हो या फिर नखरैल बीवी की तरह एक घंटे में – क्या है कि घाटी में उपर बर्फ में रहने वाले बकरवाल भी मैगी एक घंटे में पकाते हैं.

अस्तु, हर हाल में खुश रहो - दो मिनट का जादू चलाती रहो और बाकियों की प्रेणना स्त्रोत बनी रहो.. जय रामजी की. 

तुम्हारा
दीपक बाबा.

17 जून 2014

तुम्हारे नाम ~ घाटी की ओ पवित्र लड़कियों


कितने गुमसुम से हैं
तुम्हारी घाटी में गुलाब के ये फूल
अमन पैगाम की भाषा भी क्या खूब समझते हैं.

***       ***      ***      ***      

आसमां से बातें करते चिनार के ऊँचे दरख्त
और नीचे कल कल बहती पवित्र सिन्धु भी 
सोचती है,
पवित्र फरिश्तों माफिक लड़कियों की जुल्फें
इस अमन पसंद घाटी में जाने क्यों नहीं लहराती.

***       ***      ***      ***      

दूर सुदूर तक फैली बर्फ की चादर पर
भेड़ें घुमाते चराते वो निराश/हताश बकरवाल 
पहाड़ों के उस पार तकता हुआ सोचता है ...
कैसे अमन पसंदों ने उसे अपने बिरादर से अलग कर दिया.
सच, उसकी उदास आँखें बर्फ से ज्यादा उदास लगती हैं.

***       ***      ***      ***      

विज्ञापन में दिखती स्कूटी में उड़ना
हाथ में फोन लिए चिट-चेट करना ..
बात-बात पर बिंदास खिलखिलाना
बिलकुल शेष देश की यौवनाओं माफिक
ओ जवां-हसीं लड़की तुम ऐसा ही सोचती हो न
पर नहीं कर पाती, घुट कर रह जाती हो,

कितना मजबूत पर्दा बुना है अमन पसंद पुरुषों ने
तुम्हारे चेहरे/जुल्फों को ढकने के लिए

~ जय राम जी की.

15 अप्रैल 2014

फुटकर बकवास.

वो जब सामने होती है 
मैं, निरीह सा,  छुप जाता हूँ.
धूप छाँव का अजीब खेला
ऐसे ही जीवन पर्यंत चलता रहा

*        *        * 

ईश्वर ने मेरे लिए कुछ जरुरी नायाब उपहार भेजे
मैं सदा उसकी गठड़ी पर निगाह गढ़ाकर
थोडा अक्षत पुष्प मीठा चढ़ाकर
और भी बहुत कुछ मांगता रहा.

*        *        * 

शट डाउन और री-स्टार्ट के बीच छोटे से
अंतराल को समझ पाना कितना दूभर है.
ज्ञानीजन जीवन और मृत्यु  के बीच के अंतराल को समझते हैं.

*        *        *  

स्वजन के मरने पर रोते-प्रलाप करते हैं
और अगले ही दिन काम पर चले देते हैं.
जीवन का खेल कितना विचित्र है 
और मृत्यु कितनी आसान सी
ऐसा सभी जानते  हैं.
पर कितने मानते हैं.

14 अप्रैल 2014

एक कहानी - जो कहानी नहीं है.



कहानियां कितनी नाटकीयता से भरी होती हैं, परतु कई बार जिन्दगी जैसी नंगी सच्चाई से परिपूर्ण. कई बार लफ्फाजी इतनी की चुनरी में गोटा और सितारे ज्यादा लगते हुए दिखाई देते हैं. पर कई बार एकाकी. कहानी कई बार एक कमरे में घटित दृश्य होती है और कई बार सुदूर पहाड़ों और दुनियावी सरहदों को फांदते हुए दृष्टिगोचर होती हैं.
जरुरी नहीं कि कहानी में नायक और नायिका हों – कई बार कहानी बिना हीरो हिरोइन के आगे बढती चली जाती है – पुरानी हिंदी कला फिल्मों मानिन्द. कई बार कहानी बेतरबी से बढती और कई बार सिलसिलेवार. कहानीकार पर निर्भर करता है – कई बार ढंग से कपड़े पहने, क्लीन शेव कहानीकार होते हुए भी कहानी को उलझाए चले जाते है और कई बार खिचड़ी दाड़ी, टूटे चप्पल और अस्त व्यस्त कपड़ों में सिलसिलेवार कहानी को आगे बढाये चले जाते हैं.
आधी रात में उनिंदी आँखे लिए या फिर कहीं भीड़ में खोये हुए कहानीकार की बैचेनी या कहें दिमागी अशांति उसे मजबूर कर देती है – कागज़ कलम उठाने के लिए. यहीं बैचेनी शब्दों में ढल कर कहानीकार को सकूँ देती है –कहानीकार उसे कई बार पढता है – फिर कुछ मिटाता है फिर से कुछ लिखता है. अंत में कोरे कागज़ पर एक हाशिया छोड़ कर पूरी कहानी ढंग से लिखता है. कहानी का प्रसव काल पूरा होता है. किसी अखबार या फिर पत्रिका में छप जाए तो कहानी अपने आप में सम्पूर्ण हो उठती है, अन्यथा बैचेनी में कई बार कहानीकार कागज़ फाड़ कर कहानी को फैंक देता है. और कहानी की भ्रूण हत्या हो जाती है.
कहानी कभी सन्देश कोई नहीं देती. कई बार प्रश्न छोड़ जाती है... कई बार कोशिश करती है कि किसी समस्या का समाधान देने की. कहानी अपने लिए प्रबुद्ध पाठक तलाशती है. जो उसे मथकर उसमे से कुछ ऐसा निकाले जो समाज उपयोगी हो सके. अध्यापकजन कहानी को पढ़ते पढ़ते पढ़ाने लग जाते है. विद्यार्थी को समझाते हैं कहानीकार के कहने का तात्पर्य अपने शब्दों में दोहराते हैं. पर वास्तव में कहानीकार क्या कहना चाहता है – ये कई बार तो न अध्यापक ही समझते हैं और न ही विद्यार्थी को समझा पाते हैं. परीक्षा में एक कहानी का मुल्यांकन ६ से १० नम्बर तक का होता है. इससे न ज्यादा न ही कम. कक्षा दस तक कहानी की इतनी ही महत्ता होती है.
कोई कहानी लम्बे समय तक पढते पढते से सुनते सुनते तक की प्रक्रिया में किसी भी सभ्यता/समाज में अच्छे से पैबस्त हो जाती है. उस कहानी के किरदार कहानी से बाहर निकल कर पाठक से ही बातें करने लग जाते हैं. बोलते हैं – पर सुनते नहीं हैं. और पाठक जानता है कि ये नालायक किस्म का किरदार है. सुनेगा नहीं  - फिर भी प्रबुद्ध पाठक / विद्यार्थी अपनी सलाह उस किरदार  को देने से नहीं चूकता – क्योंकि एक रिश्ता सा बन जाता है. यहाँ कहानीकार कामयाब रहता है. क्योंकि वो अपने किरदारों को वहीँ समाज में बिखेर देता है – जहाँ से उसने उठाये थे. यही आकर किरदार अमर हो जाते हैं. 
 जयरामजी की.