8 अक्तू॰ 2012

2 अक्टूबर - गाँधी जयंती और विज्ञापन - पार्ट १


    २ अक्टूबर - गांधी जी का जन्मदिन मेरे को विशेष रूप से स्मरणीय रहता है... दुनिया कहती है बापू राष्ट्रपिता हैं, होंगे – पर मेरे को एक दिक्कत है इस दिन दारु के ठेके बंद रहते हैं. और १ अक्टूबर को ठेकों पर भारी भीड़ रहती है. दूसरे अगर बापू राष्ट्रपिता हैं तो अपन भी धरतीपुत्र. कहीं न कहीं राष्ट्र और धरती – पिता और पुत्र के रिश्तों की पड़ताल के लिए पूरा दिन मिलता है. क्योंकि उस दिन सरकारी ‘घोषित’ छुट्टी होती है. जब झंग का नवाब छुट्टी पर हो तो घोषित छुट्टी की पूर्व संध्या बहुत ही कष्टदायक हो जाती है ... हालाँकि मैंने उसे तक्सीद कर रखा है कि किसी भी घोषित छुट्टी से एक दिन पहले गैरहाजरी नहीं होनी चाहिए. पर क्या किया जाए नवाबी चली भी गयी तो क्या - हैं तो नवाब. और झंग के नवाब १ अक्टूबर को छुट्टी पर थे.

6 अक्तू॰ 2012

फिर से वही झील और वही छठ पूजन

एक बार फिर से घोषित करना चाहता हूँ कि मैं तिहाड़ गाँव झील वाले पार्क में रोज सुबह जाता हूँ, और सूर्य देव के विपरीत मेरी सुबह का कोई समय नहीं है. जब जागो तभी सवेरा... आज ८.४० पर गया... और पार्क के गेट पर ही ठिटक गया ...
तिहाड़ झील के घाट पर भई नेतन की भीड़.
अधिकारी सब मनन करें कि दे नेता बहुते पीड़
   लाल बत्ती वाली गाडी और माननीय नेता, युवा नेता, छोटे नेता, बड़े नेता, अफसर नेता, मजदूर नेता, पूंजीवादी नेता और समाजवादी नेता जैसे लोगों की भीड़ थी. छठ पूजा की तैयारी को लेकर पशिचमी दिल्ली से सांसद श्री महाबल मिश्र जी का दौरा था.

गत वर्ष - छठ पूजा के लिए अपनी मेहनत से बना घाट.



गत वर्ष : छठ पूजन के लिए तैयारी करता श्रद्धालु
   49 एकड़ में फैले हुआ यह पार्क, जिसमे पुराना जोहड भी है, डीडीए के अंतर्गत है. पिछले कई दिनों से इस जोहड (जिसे झील का नाम दे दिया गया है J) में उगी घास को हटाया जा रहा था. वैसे ही मैं समझ गया था कि छठ पूजा नज़दीक है अत: उसी के तैयारी हेतु इस घास को हटाया जा रहा है. वैसे हमारे देश की की अफसरशाही संसार में सबसे विचित्र है. ये जोहड सुखा पड़ा था तो इसमें कोई घास फूस नहीं थी, जैसे जैसे बारिश आयी इसमें पानी भरने लगा और कुछ पानी आसपास लगे ट्यूववेल से भरा जाने लगा तो ये घास भी उगनी शुरू हो गई.... उसी समय इसका सफाया क्यों नहीं हुआ ? जब बारिश रीत चुकी है और ये घास बड़ी होकर गलने लग गयी तो जो थोडा बहुत पानी जोहड में है वो सड़कर काले रंग का हो, बदबू मारने लगा है - कैसे पूजा होगी? अब इसमें से से घास निकालनी शुरू कर दी गयी है..... पुरे तालाब में से तो घास निकालना बहुत दुरह कार्य है... छठ पूजा निम्मित मात्र किनारों से निकाली जायेगी.

4 अक्तू॰ 2012

मैंने भी खैनी खाना शुरू किया.

कई दिन से कोई भी पोस्ट या टीप लिखते हुए आलस सा आता है... पता नहीं क्यों. अत: कुछ लिखने की कवायद के नाम से बक बक शुरू कर रहा हूँ, मित्रजन संभाल लेंगे :)

अस्वीकरण :  इस पोस्ट में तम्बाकू या उससे जुड़े हुए कोई भी प्रोडक्ट की मार्केटिंग का प्रपंच नहीं रचा जा रहा. तम्बाकू को लेकर जो जी में बार बार बातें  याद आती हैं उन्हीं को शब्द रूप देने हेतू इस पोस्ट को लिखने बैठा हूँ.

आर्टिस्ट (चित्रकार – ग्राफिक डिजाइनर) निरंजन
    पुरानी बात है, जब मैं प्रेस लाइन में डी टी पी ओपेरटर के रूप में कार्य करने लग गया था और ‘उस्ताद’ का खिताब भी प्राप्त कर लिया था. पर जहाँ नौकरी करता था मात्र कम्पोजिंग ही होती थी और किसी प्रेस को देखने के लिए मैं हमेशा उतावला रहता था. पर मौका नहीं मिलता. ऐसे उमंग भरे दिनों मैं राह चलते, दिवार पर चस्पे पोस्टरों को खासकर जैमिनी सर्कस के पोस्टरों को बड़े चाव से देखता था, कलात्मक तरीके से हाथ से ही लिखे और फ्लोरोसेंट इंक से छपे पोस्टरों को. उसी दौरान मेरा परिचय एक आर्टिस्ट (चित्रकार – ग्राफिक डिजाइनर) निरंजन से हुआ. बिहार या यु पी का तू पता नहीं पर था पूर्व का बाशिंदा... घोर काले रंग का. तिहाड़ गाँव में ही एक कमरा किराए पर ले कर रहता था. जिसमे कुछ उसकी ड्राईंग का सामान (रंग, कागज, ब्रुश) और कुछ स्क्रीन प्रिंटिंग का... बाकि बची जगह में एक छोटी सी फोल्डिंग चारपाई के साथ एक स्टोप और २-४ बर्तन. दूकान-मकान सभी एक १० बाई १० के कमरे में. गर मैं कभी जल्दी छुट्टी पा जाता तो घर में शक्ल दिखाने के बाद मेरा ठिकाना निरंजन का कमरा ही होता था. बेचारा बहुत गरीब आदमी था. कहीं से स्टिकर बनाने का काम मिल जाता था तो पहले डिजाइन बनाता फिर उसको खुद ही गम्मिंग शीट पर छाप कर सप्लाई करता था. जिसके पैसे भी उसे कभी मिलते कभी नहीं.. जैसे तैसे जुगाड कर जिंदगी चलाता था.

1 अक्तू॰ 2012

"क्या हिन्दुस्थान में हिंदू होना गुनाह है ?" का प्रोडक्शन.

राष्टीय गौरव संस्थान ने अशिवनी कुमार, संपादक पंजाब केसरी की पुस्तक "क्या हिन्दुस्थान में हिंदू होना गुनाह है ?"  महेश समीर जी के संपादन में प्रकाशित की. मैं पिछले सप्ताह उसी में व्यस्त रहा.

गत शुक्रवार को महेश जी का आगमन हुआ और अपने कार्यकर्म की रूप रखा बताने लगे, कि ३० सितम्बर को पंचकूला, हरियाणा में  उनका संस्थान एक कार्यक्रम कर रहा है - जिसकी डॉ सुब्रामनियन स्वामी अध्यक्षता करेंगे और श्री अशिवनी कुमार के कुछ चुनिन्दा सम्पादीय को एक पुस्तक की शक्ल में विमोचित किया जाएगा. ये मुद्रण व्यवसाय की विडंबना ही है कि कार्यकर्म के कार्ड तो पहले से ही बंट जाते है और किताब की सामग्री जिसका विमोचन होना है उसका अता-पता नहीं होता. :) 

मैं लगभग १९९० से लगभग २० वर्षों तक पंजाब केसरी का नियमित पाठक रहा हूँ, और उनकी कलम और राष्ट्रवादी विचारों से बहुत प्रभावित हुआ हूँ.  मेरे लिए ये बहुत खुशी का मौका था कि उनके लिखे लेख मेरी प्रेस में छपेंगे.

मैंने पंजाब केसरी पढ़ना क्यों छोड़ा ये भी काफी दिलचस्प है.
मैं सुबह अखबार खोल कर सबसे पहले ज्योतिष वाले पन्ने पर अपनी कर्क राशि देख कर दिन का अनुमान लगाता था ... कैरियर का उठान था, अधिकतर समय भयभीत ही रहता था. जिस दिन राशि नहीं छपी होती - उस दिन सुबह से ही परेशान रहता था. जिस दिन राशि बढिया आयी, उस दिन बोस को भी बोस नहीं समझना और जिस दिन राशि बेकार आई उस दिन चपरासी से भी डर कर रहना. :) ये बहुत ही भयानक आदत हो गयी थी. मैं अपनी आदत बदलना चाहता था, तो  लगा कि पहले पंजाब केसरी को पढ़ना छोडो. और एक बात और.... अखबार पढ़ने में दिक्कत आने लगी, एक दिन चाचा जी ने पंजाब केसरी देख कर कहा कि अंधा होना है तो ये अखबार पढ़ना. :)  ये बात मेरे घर कर गयी. पर बाद में पता चला कि मेरी नज़र कुछ कमज़ोर हो गयी थी. जो भी हो... २००९ से सभी अखबारें बदल बदल कर आने लगी... मैं अपना टेस्ट बनाने लगा. अन्त: मैं दैनिक हिन्दुस्तान रुक गयी.. पर अब अखबार पढ़ने का चाव भी कम हो गया है.