29 सित॰ 2011

किसी न किसी साथ, स्वयं को खड़ा पाता हूँ,

हर वक्त मैं, कहीं न कहीं, किसी न किसी साथ, स्वयं को खड़ा पाता हूँ,
कभी रेल हादसे में मारे गए मृतकों के परिजनों के साथ...मुआवजा पाने वाले लोगों की कतार में,
कभी माल के लिए उजाड़ी गई झोपडपत्तिओं में टूटे चूल्हों से उठते धुओं के गुबार में
रंगारंग समाराहो के बाद वीरान हलवाइयों की भाटियों के पास,
खाना ढूंढते, नग्न बच्चों के साथ., खुद में स्वयं को खड़ा पाता हूँ,
दिनभर रिक्शा खींचता, ८ नहीं बाऊजी १० लगेगें, से दिन निकाल, शाम को
व्यस्त किसी चौहोराहे पर नशे में गिरे पड़े उस मजदूर के साथ; मैं खड़ा नहीं, गिरा मिलता हूँ..
गाँव से मुंह चुराए, वह अब ३२ रुपये में तक्काज़ा मालिक मकान, किराया, खुराकी और नशे पत्ते में चुकता हुए रुपयों का हिसाब लगाते कंधे झुका टुक-टुक कर चलते, उस व्यक्तित्व पर मैं सवार दीखता हूँ,
वैशाली कि टिकट थामे, दिल्ली टेशन पर लाईन में लगे, गाँव पहुँच ‘रजा’ को खिलाने का अहसास मन में दबाये, पुलसिया डंडे खाकर भी नहीं डगमगाए, भैया तुम्हरे साथ हूँ,
अच्छी मिटटी के गारे में, १४ घंटे हाडतौड मेहनत के बाद, ईंट भट्टे की तपन को ठेकेदार के नरम बिस्तर पर उड़ेल; ३२ रुपये कमाने की कशमकश; हाँ देवी मैं वहीँ हूँ ... पर एक नपुंसक दर्शक....
pic courtsey :
http://en.artoffer.com/
halaburda-philippe/brigitte-sait/
तेज भागती महंगी गाड़ियों के गुबार को, सांस रोके देखते रह गए उस ट्रेफिक सिपाही को, अपनी नोट बुक संभाल भी नहीं पाया, और रईसजादा कुचल कर चला गया, पर मैं उठ कर चल पड़ता हूँ, कहीं ओर , किसी और के पास..

.
कि मैं,
अजर हूँ, अमर हूँ ....
बेबस हूँ, मजबूर हूँ, ....
मैं, समय हूँ.....


कलयुग में नीली पगड़ी बांधे... मैं, समय हूँ.....

25 सित॰ 2011

बालिका दिवस... कहानी.

फरीदाबाद से वापिस आते आते आनंद का स्कूटर कुछ तंग करने लगा और मोबाइल भी काफी देर से चिल्ला रह था, संकेत स्पष्ट थे, कुछ देर के लिए रुका जाए... बदरपुरफ्लाई ओवर के समानांतर नीचे चलती रोड पर, कुछ समय विश्राम के लिए ठीक लगी, कि इच्छुक वार्ताकारों से कुछ देर गुफ्तगू भी की जाय.

    बातें करते-करते आनंद की निगाह आसपास के माहौल पर पड़ी तो नियत उसकी भी थोडी ही सही, पर बेरहम हो गयी. सुनहले अक्षरों में लिखा इंग्लिश वाइनशॉप.... और साथ ही ठेका देसी दारू. मानो दो भाई... एक तो सत्ता की सीढ़ी पकड़ कर अमीर हो गया चमक-दमक वाला और दूसरा वही पुरानी लकीर का फकीर. वाइनशॉप के साथ ‘आहाता’ हरियाणा सरकार द्वारा अनुमोदित, वो रेस्टोरेंट जहाँ बैठ कर आप विस्की पी सकते हैं, और देसी ठेके के सामने ही दरियादिरी दिखता व्यक्ति, हर कस्टमर को एक प्लास्टिक का ग्लास, और एक पानी पाउच फ्री में दे रहा है. आसपास, पापड़, चने मुरमुरे, सिगरेट, अंडे फ्राई, छोटी-छोटी फिश फ्राई, मूंगफली, पानीवाला, गोलगप्पे...... बिलकुल मेले जैसे.
    पता नहीं क्यों आनंद को वो कुछ आमंत्रित करती सी लगी, मानो रंगमंच सज्जा हुआ हो, – चलने को तो आनंद नाक पर हाथ रख आगे भी चल सकता था, पर कुछ खोजी ‘कीटाणु’ उसके भी दिमाग में मचल कर रहे थे. अत: छोड़ा न गया, और स्कूटर को एक किनारे ‘पार्क’ कर टहलने लगा.

22 सित॰ 2011

मन और झील कभी नहीं भरती...




पता नहीं क्यों मुझे
झील और मानव मन बराबर लगते हैं.
जैसे खाली बैठे-बैठे मन अशांत हो उठता हैं,
और
गर्मी बितते-बितते झील सूख ज़ाती है,
किन्तु गंदगी मन और झील में
सामान रूप से तैरती रहती है...
मन को किसी चंचल विचारों का,
और, झील को सावन का, इन्तेज़ार रहता है

मन में कुछ ख्याल उमड़ आते है,
जैसे घने काले बादल छाते है...
झमाझम पानी बरसते ही 
गली नालों से बह बह कर पानी
पुन: आता है इस झील में

न भरने की कसम खाने वाली
झील फिर से 
भरने को आतुर हो उठती है.
और न बहकने वाला मन
फिर बहक उठता है,

पहली फुहार से हरियाली लिए 
ये आबाद होने लगती है
क्योंकि सावन का वो उत्साह 
उसे सूखने नहीं देता....
जैसे मित्रगण, मन को शांत होने नहीं देते

और झील में दूर तक फैली हरियाली
मानो मन में भारी अवसाद...

हाँ,
झील सूख कर पुन: भर ज़ाती है
मन .... पुन: अशांत हो उठता है.
 

झील में फैली गंदगी... 
मानो मानव मन की गन्दगी









तिहाड गाँव की झील ... सावन में हरी भरी ...
मानो किसी के पोस्ट पर लहराती टिप्पणियां 

21 सित॰ 2011

बेतरतीब विचार...


आप व्यापारी है या फिर कंपनी में पी आर ओहमेशा चेहरा पोलिश और इस्टाइलीश रखना पड़ेगानहीं तो ग्राहकों पर आपकी बातों कर प्रभाव नहीं पड़ेगा.
ग्राहक आपकी बीमार/मलीन सूरत देख कर दूकान से भाग खड़े होंगे और आप हाथ में की-बोर्ड थामे भाएँ भाएँ करती मक्खियों माफिक बेतरतीब विचारों को भागते/उड़ाते रहिये.
गाँव में कोई भैंस या ऊंट या फिर कोई अन्य पशु मर जाता था.. तो कुछ लोग इक्कट्ठे हो कर उसके स्वामी को कुछ सांत्वना देने पहुँच जाते थे. पशु की डेड बॉडी को खींच कर गाँव की सीमा से बाहर रख दिया जाता था. और कुछ लोग आतेअपने ओजार लिएउसकी चमड़ी को उधेड़-उधेड़ कर पता नहीं कहाँ ले जाते थे. वहाँ  अजीब लाल रंग का दुर्गन्धयुक्त मांस का, भयावह ढेर रह जाता.... कुछ समय पश्चात ऊँचे आसमान से एक दम चीलेकौवे और गिद्ध प्रकट होते... और उस मांस के ढेर को नोच नोच कर खाते थे. दो एक दिन में वो मांस कर ढेर खत्म हो जाता... और दुर्गन्ध भी..
दिल में ऐसे विचार आयेंगे तो चेहरा कैसे मुस्कुराता हुआगरीमा युक्त और शालीन रह सकता है.
कोई ऐसी छन्नी होनी चाहिए कि ऐसे विचार दूर तक रुक जाएँ...
शेष अस्थियों का पिंजर.. सूर्य की तीक्षण किरणों से धीरे धीरे सुख जाता.... पता भी नहीं चलता... फिर कुछ दिन बाद वहाँ हड्डियां भी नहीं मिलती ... पता नहीं कहाँ सब व्लीन हो ज़ाती थी.
यही सब साश्वत हैअब इस महानगर में मुद्दे ही मुझे पशु सामान लगते है. पर नियम उल्टा हैमुद्दों का जन्म ही मानो शुरुवात होती है जैसे कोई पशु मर जाता है. और लोग इक्कट्ठा होते हैं... फिर वही सब... उस मुद्दे को मुख्या जगह से हटा कर दूर कर दिया जाता है ... और दिलो-दिमाग से कसाई किस्म के लोग अपने अपने औज़ार लिए डट जाते हैफिर वही सब चील और कौवेगिद्ध तो ऐसी सडांध में मुंह मार के लुप्त हो गए हैं... फिर दुर्गन्ध पुरे वातावरण में फ़ैल ज़ाती है... और धीरे धीरे मुद्दे अपनी दुर्गन्ध लिए लुप्त हो जाते हैं.
कैसे ?
कैसे कोई मुस्करा सकता है... 
फिरक्या सेल्समैनी के उस पुरातन नियम को ताक पर रख विचारों को चिंगारी दें या विचारों पर ढक्कन कसकर चेहरा पोलिश रखें.
जय रामजी की 

14 सित॰ 2011

बड़े भाई साहेब


कई कार्य गुपचुप तरीके से करने होते है कि कानोकान घर में किसी को खबर न लगे. विशेषकर बड़े सयुंक्त परिवारों में. जैसे मद्य सेवन करना. खासकर चचेरे ममेरे और फुफेरे भाइयों के साथ. उसके लिए बहुत व्यवस्था करनी पड़ती है. सलाद काटनी... रसोई से चुपके से नमक मसाला वगैरा उठा लाना... भौजाई से चिचोरी कर के पापड़ भुनवा लेना और चुपचाप छत पर पहुंचा देना.. :) हालाँकि जितनी भी होसियारी (श ही माना जाए) की जाए पर थोडी देर में घर आंगन में ये बात पता चल ही ज़ाती हैं कि साहेब, मयखाना आबाद हो चुका है... चाहे वो छत के स्टोर में हो या फिर नीचे बरामदे में ठीक बगल वाले कमरे में जहाँ अखबार रद्दी वगैरह रखी ज़ाती है.

और उस दिन बड़े भैया यानि ‘बड़े भाई साहेब’ की बेचैनी देखते ही बनती है... जी ठीक पहचाने, प्रेमचंद ने उनका वर्णन तो कर ही दिया था, आपको तो मात्र संकेत देना भर था.
उस दिन की ही तो बात है, हम सब भाई लोग इक्कठा थे और दिन तो ‘सीप’ में निकल गया - शाम के इन्तेज़ार में. शाम होते होते भाइयों में मद्यसेवन व्यवस्था हेतु सलाह मशवरा शुरू हो गया. काम बाटें जाने लगे – और आर्थिक पक्ष पर भी जमकर चर्चा हुई. (क्या किया जा सकता है – देश जितनी मर्ज़ी तरक्की कर ले, पर आज एक युवा अपने भाइयों पर खर्च नहीं कर सकता – चाहे इस पर शोधपत्र लिखवा लो).
छत पर बना कमरा कई मायनों में उचित स्थान के लिए उचित लगता, कि बच्चे वहाँ कम आयेंगे, बड़े भी जरूरत पर आवाज लगाएंगे, और गर कोई भाई ‘बहक’ भी जाए तो नीचे तक पता नहीं चलेगा. एक एक कर के सभी उपर बस मेरे को छोड़ कर – जिसने ‘व्यवस्था’ करनी थी, रह गया हाथ में २५० रुपे और बाकी ५० मुझे अपनी जेब से मिलाने थे :)
और आधे घंटे के बाद उपरी उस कमरे में महफ़िल गुलजार थी, देसी हंसी ठहाकों के साथ – हालांकि किवाड बंद कर रखे थे.  १ पेग अंदर गया ही था कि, आवाज़ आई  और मेरे साथ ३ और भाइयों के कान खड़े हो गए.
रे पप्पे, खाना खा लो यार, खाना तैयार है....
बहेंच..... अभी तक तो खाने का आता पता नहीं था, अब खाना कहाँ से तैयार हो गया..
पप्पे, सुन रहा है न...
अरे, एक पेग बना कर बाहर दे दो, मझले भैया की अनुभवी आवाज़ थी..
भैया, हाँ अभी आ रहे हैं, ये लो..
ठीक है, .... (संतुष्टि से पेग निगलते हुए) देखो भाई घर के संस्कार होते है, कुछ ऊंच नीच देखी ज़ाती है.... तुम तो बिलकुल उज्जड हो, दारू पीने बैठ जाते हो घर में, बच्चो पर क्या प्रभाव पड़ेगा - सोचा कभी... अपनी मेहनत का पैसा यूँ उड़ाते हो, कुछ शर्म भी नहीं आती, चलो छोडो मैं भी क्या बकने लगा.... तुम एन्जॉय करो यार, पर खाना समय पर खा लेना. ठीक है, .... (संतुष्टि से पेग निगलते हुए) 
थोडी देर बाद कालू आलू की चाट ले कर आ गया......
रे कालू ये आलू की चाट किसने भिजवाई..
चचा, ताऊ जी ने भिजवाई है,
चाट यहाँ रख कर भाग कालू यहाँ से... तेरे ताऊ जी को भी चैन नहीं.. , 
देखो अभी तक खाने का पूछ रहे थे, अब आलू की चाट भिजवा दी.
अरे छोड़ पप्पे, जानता तो है न भाई साहेब को, हरकतों से बाज़ भी नहीं आयेंगे और अपने उच्च संस्कारों का दिखावा करते रहेंगे, तुम जानते तो हो न..
थोडी देर बीती थी, कि फिर से आवाज़ आयी..
अरे पप्पे, भाई याद आ गया, वो बनिया को पैसे देने गया था तो कलम कटवा तो आया था न, कई बार पैसे देने के बाद भी लिखा रहता है. .... वैसे ज्यादा पीना ठीक नहीं रहता..
 एक पेग बना कर और दो भाई, तभी शांति मिलेगी..
किवाड थोडा सा खुला और गिलास बाहर दिया गया,
उसके बाद २० मिनट तक भाई साहेब की आवाज़ सुनाई नहीं दी........
आधे घंटे बाद फिर से आवाज़ आई,...
देखो भाई जीतनी देर मर्ज़ी बैठो, अपना घर है और सब अपने ही हो, पर नीचे रसोई में इन्तेज़ार हो रहा है, वो बेचारी कब तक तुम्हारा इन्तेज़ार देखेंगी, खाना खा लेते तो अच्छा था..... खाना .. सुना न....
किवाड खुला, और एक पेग बाहर निकला जैसे पहले सिनेमा घरों में टिकट निकलती थी, टिकट देने वाले का चेहरा नहीं देख पाते थे.. :)
ठीक है, भाई ... बैठो, मौज करो, तुम कौन सा रोज बैठते हो... यही उम्र है....... , ध्यान देना दारू गटक कर बाहर आवारागर्दी मत करना सीधे नीचे आ खाना खाकर सो जाना, समझे,  और हाँ लेडिस को भी सोचना चाहिए, एक दिन तो खाने के लिए इन्तेज़ार किया जा सकता है...
जी, भाई साहेब, छद्म आवरण में अपने हिस्सा ले जा चुके थे बिना किसी अहेसान के, पप्पे मण्डली का कोटा भी समाप्त प्राय था.... थोडी देर में रसोई घर में...
भाभी खाना लगा दो... भैया कहाँ है,
भैया, तुम्हारे भैया तो खाना खा कर, देखो चद्दर ओढ़े खराटे मार रहे है, वैसे क्या बात है, आज बहुत प्रस्सन थे, बोले पहले बता देते ... कुछ प्रोग्राम वोग्राम करना है, तो मैं इनके लिए चिकन-मटन मंगवा देता... पैसे फूटी कोड़ी नहीं होता जेब में और बात करते हैं... चिकन-मटन..
अरे भाभी जाने दो, आप तो जानती है न हमारे भाई साहेब का स्वभाव ही कुछ ऐसा है... आखिर संस्कारों में पले बड़े हैं..... और सबसे बड़ी बात वो बड़े हैं... आखिर मरजात भी कोई चीज़ होती है न....
जी ये एक मित्र के भी मित्र के बड़े भैया थे,........ क्यों नहीं आपको ‘बड़े भाई साहेब’ याद आयें.
जय राम जी की 

2 सित॰ 2011

मैं और मेरी तन्हाई - क्या बातें करते हैं...

मैं और मेरी तन्हाई,
अक्सर ये बातें करते हैं तुम होती तो कैसा होता,
तुम ये कहती, तुम वो कहती
तुम इस बात पे हैरां होती,
तुम उस बात पे कितनी हँसती
तुम होती तो ऐसा होता, तुम होती तो वैसा होता
मैं और मेरी तन्हाई, अक्सर ये बातें करते हैं
तिहाड गाँव शमशान के पीछे, पार्क का हिस्सा, मैं और मेरी तन्हाई :)


हाँ, बीरान उस जगह....... दूर तक जहाँ फैले हैं घनी छायादार वृक्षों की कतारें... वहीं कहीं जहाँ चार बेंच लगे हैं, ... मैं और तुम. बैठ कर बतियाते... बातें करते ढेर सी. पर तुम नहीं हो. तुम नहीं हो, प्रिये, बस मैं हूँ एकांत में. मैं. अकसर ये बातें करता हूँ अपने आप से. तुम होती तो क्या होता और तुम न हो तो क्या है..
ये रात है, या तुम्हारी ज़ुल्फ़ें खुली हुई हैं
है चाँदनी तुम्हारी नज़रों से, मेरी राते धुली हुई हैं
ये चाँद है, या तुम्हारा कँगन
सितारे हैं या तुम्हारा आँचल

पता नहीं क्या क्या प्रिय, तुम्हारी जुल्फें, यूँ खुली हुई.... माने रात हो गयी. कितना अजीब लगता है न... काश तुमने जुल्फें न खोली होती... और ये रात भी न होती और वो भयंकर कारनामे जो रात में अंजाम दिए जाते हैं वो भी ना होते... प्रिय सोचो, कितनी बिचारी अबलायें दुष्कर्म से बच जाति. क्या तुम दोषी हो उन सब के लिए? नहीं.. मैं नहीं मान सकता... मानता हूँ कि तुम मतवाला बना देती हो.. पर उस स्तर तक कोई कैसे गिर सकता है प्रिय. नहीं तुम्हारी जुल्फों से रात नहीं होती... ये मात्र कवि का बकलोल है.. मात्र यही... और देखो चाँद और कंगन... सब जूठा है न प्रिय... चाँद आज भी विराजमान है और तुम्हारा कंगन... देखो कैसे शोहदों ने चौक पर रामपुरी दिखा कर लूट लिया था... अगर ये सत्य होता तो क्या ईद आती.. नहीं न. पर ईद आयी और सिवैयां हम दोनों ने खूब खाई... कितनी मोह्हबत से तुमने मुझे सैवियाँ खिलाई थी... यही तो ईद का भाईचारा है न. ईद का दिन है गले आज तो मिल ले ज़ालिम - रस्मे-दुनिया भी है, मौक़ा भी है, दस्तूर भी है..... पर नहीं, तुम्हे तो इस समाज कसे खौफ, कैसे मिल सकती थी गले, और न ही मिली... मैं बेफकूफ की तरह तुम्हारे भाईजान को ही ईद की मुबारकबाद देता हुआ घर आया. 
     कवि की कल्पना को रहने दो. और उस पर कहता है सितारे है या तुम्हारा आँचल... खामखा तुर्रमखा .... भैयाजी जाइए संभालिए महबूबा के आँचल को. बाईक पर सवार किसी आवारा ने लपक लिया तो .... छोडो अब क्या कहूँ. कई बातें कहने के लिए नहीं होती.. बस इशारे में समझ लिया जाता है.. भैयाजी अपनी इज्जत अपने हाथ. हवा का झोंका है, या तुम्हारे बदन की खुशबू 
ये पत्तियों की है सरसराहट के तुमने चुपके से कुछ कहा 
ये पत्तियों की सरसराहट ...... व्यर्थ ही न .. इस घनघोर जंगल में पत्तियों की सरसराहट... प्रिय तुमने ‘जंगल’ फिल्म देखी होगी न... मेरे तो रोंगटे खड़े हो जाते है और वो कह रहा है कि ‘तुमने कुछ कहा’... अमां यार तुमने कुछ कहना होगा तो फोन करोगी न....... या फिर बैलंस कम होने से तो मिसकाल, पर पत्तियों के इशारे से तो कुछ न कहोगी. मैं जानता हूँ प्रिय. पर इस वीराने में इस तरह पत्तियों की सरसराहट मात्र किसी जंगली जीव की उपस्तिथि का ही अंदाजा हो सकता है... देखो कवि मुझे ‘परम’ बनाने पर तुला है प्रिय... पर मैं इसके चक्रव्हूँ में नहीं फसुंगा..
कि जबकी मुझको भी ये खबर है
कि तुम नहीं हो, कहीं नहीं हो
मगर ये दिल है कि कह रहा है
तुम यहीं हो, यहीं कहीं हो
हाँ, अब सहमत हूँ उस से...... मुझे खबर है तुम नहीं हो, देखो मेरे लेप्पी में जी-मेल के अकाउंट में तुम्हारे नाम के आगे अभी तक हरी बत्ती नहीं जली है, और ये मुआ मोबाइल भी तुम्हारे नॉट रिचेबल की सूचना दे रहा है... पर ये कवि है प्रिय... कि बार बार मुझे आगाह कर रहा है ... कि तुम यहीं हो यहीं कहीं हो..., मैं जानता हूँ प्रिय तुम कहीं सुदूर दक्षिण दिल्ली में किसी महंगे शोरूम में अपने नए ‘दोस्त’ के लिए कुछ गिफ्ट खरीद रही हो... पर ये कवि कहीं न कहीं सत्य है उस बाबत भी कि तुम्हारे उस दोस्त की आवाज़ में आवाज़ मिला कर कह रहा है .... ‘तुम यहीं हो, यहीं कहीं हो’ पर मेरे से दूर हो प्रिय.
तू बदन है मैं हूँ साया, तू ना हो तो मैं कहाँ हूँ
मुझे प्यार करने वाले, तू जहाँ है मैं वहाँ हूँ
हमें मिलना ही था हमदम, इसी राह पे निकलते
हाँ प्रिय, ये तुम्हारी जैसी आवाज़ है.... बिलकुल ... ये भी कह सकता हूँ कि तुम ही बोल उठी हो, मैं बदन जरूर हूँ प्रिय, पर साया.......... साया कोसों दूर, बहुत दूर. दिल्ली के शेहरी कृत दिहातों की तंग गलियों में जहाँ ऊँची ऊँची बिल्डिंग भाई लोगों ने बना दी है, वहाँ मेरा साया ही मुझ तक नहीं पहुँच पाता, फिर तुम दूर बैठ कर नगमा गा रही हो... कैसे प्रिये कैसे.. कैसे तुम मेरे साथ हो सकती हो... वहाँ जहाँ उस शेहरीकृत गाँव के हर चोराहे पर मुझे थामने वाले मेरे बदनाम भाई मेरे साये को भी मेरे पास भटकने नहीं देते... तेरी आवाज़ तो वहीँ कहीं दब गयी न..
मजबूर ये हालात, इधर भी है उधर भी
तन्हाई के ये रात, इधर भी है उधर भी
कहने को बहुत कुछ है, मगर किससे कहें हम
कब तक यूँही खामोश रहें, और सहें हम
दिल कहता है दुनिया की हर इक रस्म उठा दें
दीवार जो हम दोनो में है, आज गिरा दें
क्यों दिल में सुलगते रहें, लोगों को बता दें
हां हमको मुहब्बत है, मोहब्बत है, मोहब्बत है
अब दिल में यही बात, इधर भी है, उधर भी
देखो प्रिय, दिल की बातें कई बार रेडियो में सुनाई दे ज़ाती हैं, क्या ऐसा नहीं लगता कि किसी ने हमारी बातें ही ‘एयर’ कर दी हों. हाँ मोहबत है...... अल्लाह मियां तुम्हारे वालिद को लंबी उम्र बक्शें, जिन्होंने इतनी मुश्किल से वो फिल्लिप्स का एफ एम सेट घर में ला कर रखा था, जिसमे रात को वो अपनी जवानी की याद में ‘पुरानी जींस’ को सुन गुनगुनाते मिलते और दिन में तुम, हाँ प्रिय, तुम मेरे फरमाइशी गीतों को सुनती... और दिलो के वो तार मिस काल द्वारा मिल जाया करते थे. 
        पर क्या कहा जाए प्रिय. देखो मैं किन भावुक क्षणों में तुम्हे मेवाड आइस क्रीम पार्लर की रेहडी पर ले गया था, और तुम्हारी फरमाइश पर मैंने दिल खोल कर १५ रुपे खर्च किये ... ये तो बेडा गरक हो उस पप्पू चाय वाले की दूकान का... न वो दूकान होती और न ही वहाँ मेरे बकलोल मित्र, जो बहुत देर से किसी ‘आसामी’ को ढूँढ रहे थे, और मुझे तुम संग देख कर सीधे हल्ला बोला मेवाड पार्लर पर........ वो झट से आइस क्रीम का कप ५ चमचों के साथ पेल गए... हम और तुम- प्रिय, दोनों देखते रह गए. और उसके बाद ये शिक्वे शिकायतों की सनातन परम्परा... प्रिय कसम से, कई दिन के वायदे को पूरा कर रहा था, अभी कल ही कंपनी से २०० रुपे मिले थे स्कूटर में पेट्रोल भरवाने को, वहीं से ३० रुपे का ‘जुगाड’ किया था, सोचा तुम्हे आइसक्रीम खिलाकर अपना वायदा ‘जेंटलमेंन प्रोमिस’ की तरह पूरा करूँगा... कितने मुश्किल से तुम्हे पटा कर लाया था, उफ़ कितनी मुश्किल से.....

Photo : Deepak Dudeja....