23 जून 2012

हाय, इस बार भी गर्मी बेदर्दी से निकली.

मुझे ये बताते हुए जरा सी शर्म महसूस हो रही है कि मैं इस अभागी दिल्ली का अभागा बाशिंदा हूँ. जरा सी मीन्स ‘जरा सी’ जितनी अपने वामपंथी मित्रों को अपने को हिंदू कहने में महसूस होती है. :) खैर मजाक यहीं तक, और नहीं.
   जब देश के किसी भी हिस्से में बाड़-सुखाड़ आता है तो यही दिल्ली तुरंत मदद भेजती है. इसपर कोई तरस नहीं खाता. केरल से मानसून आता हुआ यू पी, बिहार, बंगाल तक पहुँच गया, मगर ऐसा नहीं हुआ कि कुछ बादल वो यहाँ भी भेज देते. नहीं, अभी से सावन गीत गाने लगे है. ऐसा नहीं कि दिल्ली को कुछ नहीं मिलता. वैसे आपको मालूम ही होगा कि दिल्ली का अपना कुछ भी नहीं है, न बिजली, न पानी, और तो और मौसम भी नहीं. पडोसी राज्य जो वही देते है जो उनसे संभलता नहीं, जैसे गर्मी आई तो राजस्थान उदार हो गया, गर्म हवाएं यहाँ भेजने लगा, पर सर्दी में सारी गर्मी अपने पास ही रख लेता है. सर्दी में पहाड़ मेहरबान हो जाते जाते हैं, लो जी हमारे पास बर्फ जयादा आ गयी है – कुछ सर्द हवाएं आप ले लो. गर्मी में ये दरियादिल्ली क्यों नहीं दिखाते. संपन्न दिल्ली वालों को अपने यहाँ बुला लेंगे, आओ मित्रों – अपना पैसा ले कर आओ – और यहाँ की ठंडक महसूस करो. इधर शीला मैया हरियाणा सरकार को पानी के लिए गिडगिडा रही है और चौधरी साहेब आँखे दिखा रहे है – किद्द से दे दें पाणी, अपना ही पूरा न हो रहा. यही दो चार ढंग से बरसात पड़ी नहीं तो चौधरी साहेब, तुरंत हुक्म दे देंगे, भाई दिल्ली वालों को दे दो पाणी, कई दिन से पाणी–पाणी रो रहे थे, बोलो संभलो यमुना को.

14 जून 2012

६० साल के जवान या बूढ़े.

“मौत” शब्द सुनते ही कई बार शरीर में झुनझुनी सी लहर जाती है. और कहीं हंसी ठहाकों के बीच मौत शब्द का उच्चारण भी अगर कर लिया जाये तो महफ़िल एक दम संजीदा हो उठती है. पर अपने अस्सी का क्या किया जाए... काशी सिंह के नहीं. तिहाड गाँव में झीलवाले पार्क में लगने वाली सुबह की महफ़िल की बात कर रहा हूँ. जहाँ नजदीक ही शमशान घाट है. और मौत, फट्टा, चादर, घाट नो. ३६ जैसे शब्दों का प्रयोग ऐसे किया जाता मानो फन सिनेमा में लगी किसी फिल्म का.
सायं को जब पैसे मिला कर दारू के व्यवस्था तो हो गयी, पर जब शीतल जल खरीदने की बारी आई तो मितर बोला, खाम्खावाह पैसे खराब करने वाली बात है. शमशान में से ही चिल्ड वाटर भर लाते है. रात के ८ बजे . तो क्या- सब तो जल गए – उठ थोड़े जायेंगे. हम कौन सा सेब आम लीची उठाने जा रहे हैं (चौथे कर्म निमित रखे गए फल एवं मिठाई) J और उठ भी गए तो क्या, दो पेग वो भी ले लेगा.
और सुबह ..
मितर एक बात बताऊं, जब तुम मरोगे तो मैं सुंदर सी चादर कम से कम ग्यारह सौ वाली तुम्हारे पर चढाऊंगा. सच्ची, हाँ मितर... दुनिया भी याद करेगी, कि यारी सी यारां दी.
पर मितर क्या करे आदत से मजबूर, पूरा दिन जुआ खेलने में निकल गया और किस्मत तो शुरू से ही पाण्डुओं वाली, शाम तक खाली हाथ. पुरे दिन की मेहनत और हार के गम को सहन करने के लिए फिर से एक हरे गांधी की दरकार हो उठी, कहीं कोई रास्ता नहीं सूझा तो, देर रात मितर के दरवाजे पर ही आस ले पहुंचे,
देखो मितर, तेरा प्रेम बिलकुल पवितर उन्दे विच कोई दो राय नई. पर जो ग्यारह सौ रूपए मेरी चादर वास्ते संभाल रखे हन, उन्दे विच पंच सौ रुपये मेनू हुने दे दे. कल किसने देखा है यार – मैंने मरुँ या न मरुँ. J

12 जून 2012

.. तुम्हारी चेष्टा को नमन चेष्टा

दुनिया जब दफ्तर जा रही होती है – तो मेरे जैसा आलसी सैर करने निकलता है. उसी झील वाले पार्क में. पिछले सप्ताह में एक लड़की, जो कुत्तों के समूह को कुछ बिस्किट और दूध पिलाने की कोशिश में लगी थी, मैंने सोचा चलो कुत्तों का कुछ अधिक कल्याण हुआ. वैसे भी सुबह कई लोग पार्क में इन आवारा कुत्तों, कवों और कबूतरों को कुछ न कुछ खिलाते हैं.

आपसी लड़ाई में जख्मी हुआ - कुत्ता
 कल देखा तो वो लड़की न केवल दूध पिला रही थी, अपितु एक घायल कुत्ते का उपचार भी कर रही थी, मुझे ताज्जुब हुआ. और पास के बेंच पर बैठ ब्लोगरी निगाह से देखने लगा.
घायल कुत्ता ख़ामोशी से बैठा रहा और लड़की एंटी-बाईटिक पाऊडर उसके सर पर लगे घाव पर छिडकती है. फिर वह अपने बैग में से एक साफ प्लास्टिक बाउल निकाल कर उसमे अमूल दूध के पैकट उड़ेल देती है, घायल कुत्ता सटासट दूध पीने लगता है, और बाकि तीन चार कुत्ते चारों तरफ ऐसे बैठे है जैसे मरीज़ का हाल पूछने आये हों, ताज्जुब होता है – उनमे इतनी ‘इंसानियत’ कहाँ से आ गयी कि घायल कुत्ते से छिना झपटी नहीं कर रहे.



लड़की ने अपना नाम ‘चेष्टा’ बताया.

9 जून 2012

शंघाई - राजनीति का स्टिंग ओप्रेशन करती फिल्म.

फिल्मे तो बहुत देखता हूँ, चोरी छुपे - : ) इस उम्र में भी  पर कभी किसी फिल्म की समीक्षा नहीं की. बक बक करने की आदत है तो शंघाई पर कर रहे हैं - 

दिबाकर बनर्जी के निर्देशन में बनी फिल्म शंघाई पुरानी कला फिल्म की तरह लगती है... याद कीजिए उन फिल्मो को जब तक दर्शक कुछ समझने की चेष्टा करते थे, परदे पर कलाकारों के नाम दिखने शुरू हो जाते थे, माने फिल्म खत्म हो जाती थी. कुछ वैसे ही.

जहां तक एक्टिंग की बात है, इमरान हाशमी, मुझे पहली बार एक अच्छे एक्टर के रूप में नज़र आया है, भट्ट खेमे की इमेज से उलट. दूसरा एक समय बाद सुप्रिया पाठक और फारूक शेख दिखे है. तीसरे अभय देओल – हाँ, आईएएस ऑफिसर टीए कृष्णन की भूमिका में अभय देओल जानदार अभिनय किया है.

सत्ताधारी पार्टी के IBP के पोस्टरों के साथ फिल्म शुरू हुई थी, और इस फिल्म में जिस डॉ अहमदी कार्यकर्ता (इन्ही के इर्द गिर्द कहानी की शुरुआत होती है) की मौत हो जाती है, उसकी पत्नी को ही अंत में उसी IBP पोस्टरों के साथ दिखाया गया है यानी राजनीति करती हुई अब वो सत्ता में आ गयी है. इस फिल्म में जो गुंडा डॉ अहमदी का मिनी ट्रक एक्सीडेंट से क़त्ल करता है वही अंत में भारत नगर को ढहाने के लिए जे सी बी चला रहा होता है – जो एक व्यक्ति के गिरगिट जैसे रंग बदलने की पराकाष्ठा है.


देखिये शंघाई,