जब दिल्ली आये तो बस एक बात दिमाग में थी..... रुदावल वाले हनुमान जी. पिताजी बोले की सेवानिवृति के पश्चात सभी को वहाँ लेकर जायेगे....... और एक दिन पिताजी बिना सेवानिवृति के ही दुनिया से चले गए...... और वो जिम्मेवारी भी मेरे सर आ गयी.......
कई बार प्रयत्न किये पर जाना नहीं हो पाया........ बनते बनते - बीते वर्ष जून में रुदावल जाने की योजना बनी. मौसा जी को फोन किया गया...... कि वहाँ पंडितों को जिमाने का कार्यक्रम करना है..... आप वहाँ व्यवस्था कीजिए...... उनका जवाब होता था..... शादियों के भारे साये हैं...... कोई भी हलवाई खाली नहीं है.... अत: खुद ही हलवाई वगैरह की व्यवस्था ठीक करने मैं बयाना गया........ निजामुद्दीन (दक्षिण दिल्ली) से कोटा जनशताब्दी जो अपने तय समय से २ घंटे लेट थी......... बयाना मैं ७.०० शाम पहुंचा और सीधे भाग कर वहाँ बाजार में घूमने लगा........ हलवाईयों से बातचीत होती रही... २ दिन के अंतराल में ५०-६० व्यक्तियों के छोटे कार्यक्रम के लिए कोई तैयार नहीं था.... उन्होंने से सुझाव दिया की आप रुदावल जाओ....... वहीं के हलवाई ठीक रहेंगे...... तुरंत जाओ........ रात होने को है.... मैं रिक्शे से नज़दीक फाटक तक गया जहाँ बस तैयार खड़ी थी........ बिलकुल फुल ....... फेविकोल के विज्ञापन की तरह...... और मैं भी छत पर बैठ गया...... लगभग ८ बजे के करीब रुदावल........
ढूढते-ढूढते बंटी हलवाई के दूकान के चोतरे पर ही डेरा जमाया........ वहीं क्यों ? इसका एक कारन यह था कि.. जैसे ही उसकी दूकान पर पहुंचा तो उसके हाथ में पानी का लोटा था...... या तो पानी पी बैठा था या फिर पीना चाहता था..... पर वो पानी भरा लौटा मुझे थमा दिया, बिना कुछ बोले ...... और मैंने आराम से पानी पिया और चप्पल उतार कर उसी के पास बैठ गया. उसने कुछ प्रश्नवाचक दृष्टी से मुझे देखा... और मैंने १ कप चाय बोल कर उसे शांति दी. चाय पीने के साथ साथ... उससे मंदिर में चढ़ने वाली सवामणी की बात करने लगा ....... दिल्ली से आये हो साब.. नहीं अलवर से....... ठीक है, कहीं से भी आये हो... किसी से भी पूछ लो.... हमारे बारे में. मैंने कहा, मुझे किसी से नहीं पूछना........ तुमने बिना मांगे मुझे पानी पिलाया है, अत: अब तेरा मुरीद हूं, जैसा कहेगा..... वैसे करेंगे...... बस नाक मत कटवा दियो..
अरे क्या बात कर दी साब आपने.... बस आप हुक्म कीजिए.....
मेरे पास कोई और विकल्प नहीं था..... मौसा जी के पास जाना नहीं चाहता था..... और दूसरी और बंटी था – जो पैसों (हुक्म) का इन्तेज़ार कर रहा था.
दाल, बाटी, चूरमा, पूरी, गट्टे की सब्जी, रायता .... सब देसी घी में..... २० लोग हम आयेंगे..... और २१ बामण जिमाने हैं...
ठीक है, ५० लोगों के लिए बना दूंगा.......
अगर जीमने वाले ज्यादा आ गए तो.......
नहीं, जितने न्योतोगे उतने ही आयेगें ..
अगर और आ गए तो, फिर भी वही नाक वाली बात....
ठीक है साब, आप २० लोग ही आओगे न...... तो बाकी मुझ पर छोड़ दो....
ठीक है, मैंने ५,००० रुपे साही (एडवांस) देकर पुख्ता किया....... और उससे बोला की मुझे बयाना छुडवा दे?
नहीं साब, इस समय नहीं...... आप रात को मेरे यहाँ सो जाओ, सुबह चले जाना..
क्या बात कर रहे हो, मुझे वापिस जाना है....... तू बस बयाना छुडवा दे.......
नहीं साहेब, ८-९ इस समय कोई वहाँ नहीं जाएगा.......
पैसे दे दूंगा, बाइक से भिजवा दो......
नहीं जी,
ठीक है, जय राम जी की...
मैं तो कहता हूं, कि रात यहीं रुक जाओ.......
और थोड़ी ही देर में मैं रुदावल की उस छोटी सी मार्केट में घूमता रहा, दुकाने अधिकतर बंद हो रही थी........ और वाकई कोई साधन नहीं मिला.... मैं परेशान..... न तो बंटी हलवाई के पास जाना चाहता था और न मौसा जी के यहाँ..... अपनी जिद्दी धुन और आवारगी पर पूरा भरोसा था... और सामने अंग्रेजी शराब की देसी दूकान........ जिसको बढ़ाने की तैयार भी चल रही थी......
वाह.... मेरी बुद्धि..... ऐसी अनजान जगह पर भी....
पहले जाम दे साकी फिर जिंदगी की बात होगी,
रात के १० बजे का समय .... घुमते घुमते एक जगह देखा तो जो मिनी बस मेरे को ले कर आई थी.... उसी के पास ... २-४ लोग खड़े हैं.... क्यों साब, ये बस वापिस बयाना जायेगी....
जाती तो उसी समय...... पर लेट हो गए... बस में खराबी आ गई है.... जायेंगे तो जरूर बस बयाना की है.
..... हौसला हुआ और यकीन भी, मुल्ला का हो या नहीं, पर खुदा शराबी का जरूर होता है.
ठीक ११ बजे बस चल पड़ी ......... सुनसान .......... ले दे कर सवारी के नाम पर मैं अकेला..... कंडक्टर से बोला टिकट, कोई बात नहीं साब.... और उसने बस को ही मयखाने में बदल दिया. बयाना के सारे बाजार बंद..... कहाँ जाओगे, - रेलवे स्टेशन .... कोई बात नहीं, दिल्ली की गाडी रात २ बजे की है, अभी बहुत टाइम है.. और वहीँ बस में पता नहीं, कहाँ से खाना भी आ गया.........
१ बजे मैं स्टेशन पर था........ गाडी आई ३ बजे. और जो गर्मी जो तपिश उस समय तक थी, बयां नहीं कर सकता. ब्रिटिशकालीन वो लाल पत्थर का रेलवे स्टेशन अभी तक सुलग रहा था.
जैसे तैसे दिल्ली पहुंचे........... और एक दिन छोड़ कर बयाना के लिए चल दिए...... बढिया सफर, सुबह ४ बजे चले थे और १० बजे तक पहुँच गए..... बंटी भाई इन्तेज़ार कर रहे थे. धर्मशाला में उम्मीद से अच्छी व्यवस्था कर रखी थी, जाते ही नीम्बू की ठंडी शिकंजी से स्वागत किया... और फिर चाय. ये सब उसके साथ करार में शामिल नहीं था..... यानि अलग से व्यस्था कर रखी थी. पूजा के लिए सामान लिया और..... मंदिर में हनुमान जी की पूजा अर्चना की.
उसके बाद समय आया ब्राहमणों जो जिमाने का.. पर अभी तक तो कोई नहीं आया था...... बंटी भाई बोला, चिंता मत कीजिए, नोवे (नाइ) को भेजा था न्योतने, अभी आ जायेंगे....... थोड़ी देर में कोई दूकान बंद करके और कोई खेतों से पंडित जी आ गए........ मतलब ये था कि जरूरी नहीं कि वो कर्म से पंडित हो, जात से होना चाहिए....... कुछ साधू भी आ कर बैठ गए, थोड़ी देर बाद साधुओं की संख्या बदती चली गए....... मैंने उनको भी पंगत में बिठा दिया, बस इतना करने की देर थी,
२-३ ब्राह्मण देवता उठ खड़े हुए, बोले इन जोगियों को हमारे साथ नहीं बिठाओगे,
यानि,
यानि, पता नहीं कौन सी जात, और ये हमारे साथ बैठ कर भोजन करेंगे.......
उनकी जबरदस्त नाराजगी को देखते तय हुआ कि साधू लोग बाद में पंगत में बैठेंगे........ देखते देखते काफी लोग हो गए, माता जी कहने लगी तुमने तो ५० बन्दों का ही भोजन बोला था, इस पर में बंटी भाई की तरफ देखा तो वो बोला, साब चिंता मत करो...... जो भी आता है आने दो.
इस घटना से बयाना मेरे दिमाग ऐसे घर कर गया कि यहाँ जातिवाद कितना चरम पर है – जो साधू अपनी जाति छोड़ कर भगवा कपड़े धारण कर लेते है वो भी ताउम्र इसी जातिवाद के शिकार रहते हैं.
और चौधरी साहेब ... रेल की पटरी पर बैठे हैं....... बिहार जिस दलदल से धीरे-धीरे निकल रहा है – म्हारो रंगीलो राजिस्थान उस दलदल में धंस रहा है. फंस रहा है. ताज्जुब ये है लोग गुंडा गर्दी की बात करते हैं....... जातिवाद की क्यों नहीं करते.