एक लघु कथा है, जो गुज़रे जमाने में हर दादी माँ किशोर पोते को सुनाती थी.. मकसद एक होता था, कि बच्चा संस्कारित बने. शादी के बाद भी माँ बाप को भूले नहीं जिन्होंने बड़े जतन से उसे पाल पोस कर बड़ा किया.
एक श्रापित गृस्थ थे, श्राप ये कि घर में हर प्राणी को दो रोटी मिलेंगी – न इससे कम न इससे ज्यादा. पहली पत्नी अपनी दो बेटियां छोड़ कर चल बसी थी. सो ग्रुस्थी निभाने के लिए श्रापित ने दूसरी शादी कर ली. चूल्हा जला कर पुरे परिवार को खाना खिलाने के पश्चात बचेखुचे से खाना ये परम्परा समाज में थी. पर यहाँ एक पेच था कि पत्नी चटोरी थी. गृह स्वामी दो रोटी खाएं और वो भी दो ... पर गोलोक वासी पूर्व गृह स्वामिनी की बेटियां भी दो-दो रोटी खाएं ये उसे नागवार गुजरता था. उसने उसी श्रापित गृस्थ से कहा कि तुम इन दोनों बेटियों को जंगल में छोड़ आओ, उसके बाद इनके हिस्से की दो-दो रोटियां भी हम खाया करेंगे.
वो ज़माना ही ऐसा था जब दस्तूर
को मानना पड़ता था, हर समर्थवान की एक रखैल होती थी. और जो लोग रखैल नहीं रख सकते
थे वो वैश्या का सहारा लेते. बाबु साहेब भी ऐसे थे... इज्ज़तदार मगर पैसे से कमज़ोर,
एक वैश्या से दिल लगा बैठे.... अब तक कोई दिक्कत नहीं थी. जैसा की पेशा ही था, कि वैश्या
से कई लोग दिल लगाते थे, पर इस मामले में एक पेच था... वो वैश्या इस बाबु साहेब से
दिल लगा बैठी थी.
बाबु साहेब तो वैश्या के संपर्क
में बस अपना दिल बहलाने को जाते, पर वैश्या के मन में कई अरमान - कई सपने जी उठे
थे - अपना बच्चे, अपना मकान, गिरहस्थी... आयदा-इलाय्दा.
सपने कैसे सच होंगे,
गिरहस्थी कैसे चलेगी. शाम को घर में लौटना.. जो कमा कर लाना उसी को देना, बच्चों
को पुच्क्कारना.. कैसे. गर धंधा छोड़ कर इसके साथ चल दी ... और बाबु साहेब ने बीच
बाजार छोड़ दिया तो... आजमाना चाहिए.
अगले दिन जब बाबू साहेब,
वैश्या के कोठे पर पहुंचे तो, उसने बड़े प्यार से उसके कमीज़ के बटन बंद करते हुए
कहा
सुनिए, सुनते है,
सुनो.... जैसे की तुम्हे मुझ से प्यार है,अब मैं भी तुम्हे चाहने लगी हूँ... चाहती हूँ कि कहीं दूर चल दूँ तुम्हारे साथ... और इत्मीनान से जिंदगी बसर करूँ,
तो, तो इसमें दिक्कत क्या
है, चलो अभी चलो... मैं भी इस बदनाम कोठे पर आ आ कर थक गया हूँ, चलो जहाँ चाहोगी
वहीँ चलेंगे.
ठीक है, पर इस से पहले
तुम्हे एक इम्तिहान देना पड़ेगा.
क्या
तुम अपनी माँ के साथ रहते हो, तुम उस विधवा के एकमात्र पुत्र हो, इस दुनिया में तुम दोनों का एक दूसरे के सिवाए कोई नहीं, पर मैं चाहती हूँ कि इस बेदर्द दुनिया में हम दो ही रहें, जिसमे तीसरे की कोई जगह न हो...
तो
तो, इसके लिए एक काम करो, तुम
अपनी माँ का ह्रदय काट कर मेरे पास ले आओ... फिर मैं तुम्हारे साथ चल दूंगी...
इत्ती सी बात, नो प्रोब. कल ही ला देता हूँ, पर मेरी जान उसके बाद तो तुम बस मेरी ही हुई न.
हां,... वो मुस्कारती, होंठो
को दांत से काटी चल दी.
बाबु साहेब भला बुरा सोचते घर
पहुंचे... माँ बैठी इन्तेज़ार में थी, कि बेटा आये और वो खाना परोस कर रसोई समेत
ले. पर बाबु साहेब को कहाँ भूख... आते ही वो बोल माँ आज तुम्हारा ह्रदय चाहिए...
माँ के आँखों में आंसू थे, बोली बेटा ठीक है पहले खाना खा ले, फिर मेरा ह्रदय भी ले लेना...
नहीं माँ, खाना वाना कुछ
नहीं
ठीक है बेटा, जैसे तुम्हारी
मर्ज़ी.
और बाबु साहेब में छुरा माँ
की गर्दन पर कसाई मानिन्द चला दिया... जल्दबाजी में ह्रदय लेकर तुरंत भागे... भागते
भागते रास्ते में ठोकर खा कर गिर पड़े.. उसकी झोली से माँ का ह्रदय छिटक दूर जा गिरा
...
और गिरते ही आवाज आई,... “बेटा तू ठीक तो है”
हाय हाय ये मैंने क्या कर दिया.
एक वो वैश्या जिसने मेरी माँ का ह्रदय माँगा, और एक मेरी माँ – जो मरने के बाद भी
मेरी चिंता कर रही है...
“माँ का दिल बस माँ का दिल
होता है”
अब एक दूसरा किस्सा...
एक श्रापित गृस्थ थे, श्राप ये कि घर में हर प्राणी को दो रोटी मिलेंगी – न इससे कम न इससे ज्यादा. पहली पत्नी अपनी दो बेटियां छोड़ कर चल बसी थी. सो ग्रुस्थी निभाने के लिए श्रापित ने दूसरी शादी कर ली. चूल्हा जला कर पुरे परिवार को खाना खिलाने के पश्चात बचेखुचे से खाना ये परम्परा समाज में थी. पर यहाँ एक पेच था कि पत्नी चटोरी थी. गृह स्वामी दो रोटी खाएं और वो भी दो ... पर गोलोक वासी पूर्व गृह स्वामिनी की बेटियां भी दो-दो रोटी खाएं ये उसे नागवार गुजरता था. उसने उसी श्रापित गृस्थ से कहा कि तुम इन दोनों बेटियों को जंगल में छोड़ आओ, उसके बाद इनके हिस्से की दो-दो रोटियां भी हम खाया करेंगे.
श्रापित तो श्रापित ही था, इसलिए
बात उसको जम गयी... गर ये दोनों घर न हों तो आठ रोटी आयेंगे, और हम दोनों चार चार
रोटी खायेंगे.
अगले दिन वो दोनों बेटियों
से बोला कि चलो जंगल चलते है... लकड़ी चुनने.. कहीं दूर जंगल में वो उन दोनों को ले
गया.... बहुत दूर, जहाँ से ये वापिस न सके.
और वहीँ सुस्ताने बैठ गया,
बोले बेटियों, तुम यहाँ लड़की बीन लो, मैं थोडा सुस्ता लूं,
दोनों लड़कियां लकडियां
बीनने में व्यस्त हो गयी, तो उसने चुपके से अपनी चीची (छोटी) ऊँगली काट कर उहीं रख
दी. उस चीची ऊँगली से आवाज आती रही, “बेटी तुम लकडियाँ चुनो, मैं आराम करता हूँ,”
लड़कियां व्यस्त रही.
और वह श्रापित गृस्थ चल कर दूसरी पत्नी के पास आ गया.
पर उस दिन भी दोनों को
दो-दो रोटी ही मिली. दूसरी पत्नी ने समझाया ... अभी उन दोनों की परछाई यहीं है न
इसलिए कुछ दिन तक दो दो रोटी ही मिलेंगे. उसके बाद हम चार चार रोटी खायेंगे.
महीने साल बीत गए. पर उनको
वो दो दो रोटी भी धीरे धीरे कम होती गयी... एक दिन ऐसा आया.. उनको अन्न का दाना भी
नहीं मिलता. श्रापित गृस्थ को बहुत पश्चाप हुआ, उसे लगा जब दोनों लड़कियां घर में
थी तो कम से कम दो रोटी तो मिलती थी. एक दिन वो अपनी बेटियों को ढुंढने का संकल्प
कर जंगल में लकड़ी बीनने जंगल गया ... लकड़ी नहीं मिली ... वो काफी दूर जंगल के
दुसरे छोर तक निकल गया... वहाँ पहुँच कर उसके के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा.
वहाँ दो महल जगमगा रहे थे, दरबान बाहर टहल रहे थे...
दरबान ने बताया, कि हमारे सेठ के दो बेटे किसी कारण सेठ से लड़ झगड जंगल में भाग गए. और इस जंगल में दो कन्याओं से वो मिले. इन दोनों को उन जगली कन्याओं से प्रेम हो गया. अत: उन्ही के साथ गन्धर्व विवाह कर रहने लगे. उधर सेठजी भी बिना बेटों के बेचैन हो उठे, और जब उन्होंने अपने बेटों की खोज खबर में लठैत दोड़ये तो उन्होंने आकार इस बाबत सुचना दी कि तुम्हारे दोनों बेटे शादी कर के तुम्हारी बहुओं के साथ जंगल में रह रहे हैं. सेठ जी, घोडा गाढ़ी सभी तामझाम कर के जंगल तक पहुंचे और घर चलने की जिद्द करने लगते. बहूँ बोली कि हमारे पिता कभी भी हमें ढूंढते आ सकते है... हम यहीं रहेंगी... वो उन्होंने ये दो महल यहाँ बना दिए. अब सेठजी के बेटे-बहुएं कभी भी यहाँ रहने आ जाते हैं. बाकि समय में हम यहाँ रहते है कि कभी पिता जी आयें तो हम मिल लें.
श्रापित गृस्थ भारी मन से
घर गया. पत्नी से खूब लड़ा....
"पता नहीं भगवान... किसके भाग से हम क्या खाते है. मेरी वो दोनों बेटियां जब तक घर में थी वो तो कम से कम हमें भूखे नहीं सोना पड़ता था."
दादी माँ की इस कहानी का
निष्कर्ष मैंने ये निकला कि
“हर औलाद का अपना भाग्य होता होता” बच्चों को पढाने में उन पर खर्च करने में कभी कोफ़्त नहीं करनी चाहिए.
जै सिया राम बाऊ जी.
जै सिया राम बाऊ जी.
बहुत ही शिक्षाप्रद कहानियाँ ...
जवाब देंहटाएंजी धन्यवाद.
हटाएंदोनो किस्से प्रेरक हैं।
जवाब देंहटाएंBahut satik, khas jo beti ko bojh samajh rahe he...
जवाब देंहटाएं’धूम’ 'धूम 2' 'बंटी और बबली’ जैसी कहानियों के युग मे भी ये कहानियाँ हम लोगों को अपील करती हैं तो इसके पीछे है इनसे जुड़ी प्रेरणायें। नई पीढ़ी इन कहानियों को क्या मानती है, नहीं मालूम क्योंकि अब न इन्हें सुनाने वाली जुबान है और न ही सुनने वाले कान। लेकिन हम भी पक्के वाले वो हैं, किसी न किसी तरीके से इन्हें सामने लाते ही रहेंगे, पक्का वादा है बाबाजी।
जवाब देंहटाएंजय राम जी की।
बहुत दिनों बाद ये कहानियाँ पढ़कर आपने नैतिकता का रिविजन करवा दिया.. धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंseekhne ko milega
जवाब देंहटाएं1.“माँ का दिल बस माँ का दिल होता है”
जवाब देंहटाएं2.SABKA APNA APNA BHAGYA HOTA HAI AUR KABHI BHEE KISI KE HISSE PAR NAZAR NAHI RAKHNI CHAHIYE...
JAI BABA BANARAS.,,,
बढ़िया प्रस्तुति !
जवाब देंहटाएंलड़केयों के भाग्य से ही घर चलते हैं। ससुराल भी उन्हीं के भाग्य से सम्पन्न बनते हैं।
जवाब देंहटाएंउत्साह वर्धन के लिय आप सभी का बहुत बहुत आभार.
जवाब देंहटाएंये गुज़रे ज़माने की बातें नहीं हैं। समय थोड़ा बदला ज़रूर है,मगर आज भी प्रासंगिक हैं ये मामले।
जवाब देंहटाएंsundar kahaniyan - aabhaar :)
जवाब देंहटाएंलाख टक्के की बात कही है बाबा ......कौन किसकी किस्मत का खाता है ये कोई नहीं जानता...
जवाब देंहटाएंमाँ का दिल तो माँ का ही होता है।
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया उम्दा कहानी ,,, बधाई।
जवाब देंहटाएंrecent post हमको रखवालो ने लूटा
दीपक बाबा की जय ...
जवाब देंहटाएंजय हो गुरुदेव
हटाएंmoral of the story is that :
जवाब देंहटाएंdeepak baba is a real good story-teller.
सत्य है दोनों कहानियों में ... माँ माँ ही होतई है ओर कौन किसके भाग्य से खाता है ये किसी को नहीं पता होता इसलिए संपर्क में आए सभी के साथ अच्छा करने का प्रयत्न करना चाहिए ...
जवाब देंहटाएंBahut sundar kahaniyaan.
जवाब देंहटाएंShayad ye bhi Apko pasand aayen- Causes of flood in India , Prevention of radioactive pollution