राजस्थान का ये छोर जहाँ उतर-प्रदेश के साथ मिलता है वही स्थित है बयाना – कस्बाई स्वरुप है. जिला भरतपुर और भाषा के लिहाज़ से अत्यंत मीठी – बृज भाषा. भाषा और रीतिरिवाज से ये हिस्सा कहीं से भी राजस्थान का अंग नहीं लगता..... बयाना पर मैं कोई आधिकारिक जानकारी नहीं दे रहा. न ही इसके लिए मुझे राजस्थान सरकार अथवा गुजर सम्युदाय ने अधिकृत किया है. न ही इस पोस्ट को इन दोनों के बीच की कड़ी समझा जाए.... और रिश्तेदारियों से अनुरोध है कि न ही वे इस पोस्ट की बाबत मुझे नाराजगी भरे फोन करें.
बात कोई ८-१० साल पुरानी है जब में प्रथम बार बयाना गया था. ब्रह्म्बाद गाँव है बयाना रेलवे स्टेशन के लगभग १५ मील दूर. वहाँ एक मासी जी रहती है. मौसा जी उस समय इंटर कोलेज में प्रवक्ता थे. कालेज से आने के बाद .... बाहर बरामदे में कुर्सी लगा कर बैठते थे... गुटखे के भरा मुंह – लाल ... और नीचे पत्थर का फर्श भी लाल........ और जो छोटी सी नाली उधर से गुजरती थी, शायद वो गुटखे के लाल पानी को बहाने के लिए बनाई गई थी, अथवा खुद बन गयी थी इस समय ये कहना कठिन है. मौसा जी, गज़ब की बातें करते हैं ... बृज भाषा की चाशनी डाले... आस-पास के कुछ ग्रामीण उनके पास आकर बतिताते थे. यहाँ लाल पत्थर बहुत है, अत: घरों के निर्माण में इसका इस्तेमाल भी ज्यादा होता है... मकान की छतों पर उसी लाल पत्थर के पटाव... ८-८ फूट लंबे. दरवाजे के चौखटे.... नीचे फर्श सभी लाल पत्थर के. उस समय मोसेरी बहन की शादी का आयोजन था. और मैं मय परिवार वहाँ गया था.... बहुत गर्म दिन थे..... ज्येष्ठ का महीना... ... आम के पेड भी ज्यादा थे..... और कच्ची अम्बी उतरने लगी थी...... मेरे गाँव में आम के पेड नहीं होते .... बस किस्सों और कहानियों में ही पढ़े थे. घर के बगल आम का बगीचा था ... वहाँ चारपाई पड़ी रहती और ..... बाकि रिश्तेदारों के साथ मिल बैठ कर मैं भी उन लोगों की निंदा में व्यक्त गुजरता जो इस आयोजन में नहीं आ पाए थे और खाली समय में सीप (ताश) का खेल. एक बुजुर्ग से दोस्ती भी हो गई जो उसी बगीचे की देख भाल करता था. उसी ने वापसी समय पर ६-७ धड़ी अम्बी दी थी (मोल) गिफ्ट में नहीं....... घर ले आया था..... और सच, उस साल वो अचार बहुत उम्द्दा बना था.
दुबारा फिर जाना हुआ .... फिर एक बहन की शादी का आयोजन था. दूसरी बार जा रहा था अत: इस बार कुछ ज्यादा ही ‘लोकल’ बन गया - गले में गमछा डालकर . मौसा जी ने रुदावल वाले हनुमान मंदिर का भी जिक्र किया, जिस पर मेरे पिताजी की बहुत श्रद्धा थी, और संजोग से रिश्ते के भाइयों के साथ वहाँ चल पड़ा. रुदावल..... बहुत ही शांत जगह नज़र आई....... हनुमान जी का भव्य मंदिर, और आस पास धर्मशालाएं.
एक बात जो बार बार यहाँ दोहराई जाती कि यहाँ गुंडा-गर्दी और बदमाशी बहुत है......... देर शाम के बाद कोई घर से बहार नहीं निकलता....... पर मुझे ऐसा कुछ नज़र नहीं आया..... अगले रात शादी की थी..... और यहाँ मुझे जो जिम्मेवारी सोंपी गई वो... मुनीमजी की थी. दिल्ली में तो लोग लिफाफा जेब में डाल कर लाते है....... और घर के मुखिया को सीधे ही दे देते हैं....... पर गाँव और कस्बों में एक ‘जिम्मेवार’ व्यक्ति को बिठाया जाता है .... कापी कलम और एक बैग या झोला ले कर. पता नहीं मौसा जी को मुझ में कौन सा जिम्मेवारी वहन करने वाला जज्ज्बा नज़र आया कि मुझे वहीँ बिठा दिया...
एक के बाद एक लोग आते गए...... मुझे ५-११ या २१ रुपे देते....... और जब तक मैं कापी पर उनका पूरा नाम न लिखता तब तक वहीं खड़े रहते या फिर पास कुर्सी में बैठ जाते. ठीक गाँव में आये सरकारी कर्मचारी की तरह. कई व्यक्तियों को देख कर तो मैं चौक उठता...... बड़ी से पगड़ी....... बड़ी-बड़ी मूंछे .... कन्धों पर लटकती दुनाली...... ठीक चम्बल से आये लगते थे. शुरू शुरू एक दो को देख कर चौक गया था...... पर बाद में देखा की हर ४-५ व्यक्ति उसी प्रकार से तीनों में से एक न एक विशेषता तो लिए हुवे था. कई तो नवयुवक १८-१९ साल के भी ऐसे ही दुनाली लटका कर आते थे. हाँ, इन तीन विशेषताओं के अलावा एक बात जो सामान्य थी वो थी – गमछा........ जो मैं भी गले में डाल कर बैठा था ..... मेरे ख्याल से ९५% लोगो के गले में था.
यह कैसी बकबक हुई जो अधूरी ही रह जाए? अब कब तक इंतजार करना पड़ेगा?
जवाब देंहटाएंjai babaji ki
जवाब देंहटाएंbhai ham to sache ki babaji kisi nai bastu ka bayana kar aaye jakar dekha to gujjar wala bayana nikala------------
badiya prastuti,
जवाब देंहटाएंDipakji ki bak-bak jaari rahe , aage ka intjaar
अजित जी, ज्यादा इन्तेज़ार नहीं करवाऊंगा............ टुचवुड.
जवाब देंहटाएंदिलचस्प पोस्ट है...लेकिन इतनी जल्दी आपने खतम कर दी...बयाना अक्सर जयपुर से आगरा जाते हुए रास्ते में देखा है बस...इस से अधिक नहीं, इस से अधिक आपके माध्यम से जानेंगे...
जवाब देंहटाएंनीरज
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
जवाब देंहटाएंप्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (6/1/2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.uchcharan.com
रुदावल दर्शन में हमें बताने लायक कुछ नहीं था क्या? लगा तो था कि कुछ और रोचक बताओगे, पर गोली दे गये:)
जवाब देंहटाएंगमछे का इतिहास तो थोड़ा बहुत समझ आ रहा है, अमां प्रेरणा लेनी ही थी तो दुनाली वाली लेते, हम छेड़ते हुये कुछ तो लरजते।
सुन्दर ...आभार
जवाब देंहटाएंअगली किस्त का बेसब्री से इन्तजार हैं
जवाब देंहटाएंहमतो इंतज़ार कर रहे हैं.. काहे कि ई दुनाली, कट्टा अऊर गमछा तो हमरा चुनाव चिह्न है/था.. मतलब बिना ई तीन को घोंटे हुये एलेक्सन होइये नहीं सकता था.. चलिये आप जारी रखिये,वहाँ तो अब सांति, सांति है!!
जवाब देंहटाएंअच्छा संस्मरण है……प्रवाह शानदार है………दुनाली,मुंछ और गमछा………संग्राम निकट है……देखते है आगे क्या होता है।
जवाब देंहटाएंgood memorance//
जवाब देंहटाएंshow a way to come on my blog//
one of my poem is selected in charchamanch...just below your post //
baadal...baal kavita
आगे बोलो ...कमेन्ट बाद में देंगे ! पागल समझ रखा है क्या ?
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबाबा की बक बक तो अब शानदार संस्मरण का रूप ले रही है भाई.... अगले भाग की प्रतीक्षा में... बाबा का ही एक चेला....
जवाब देंहटाएंबाबा जब नाम ही बक बक है तो चुप कहे की पूरी करो न जल्दी। बहुत अच्छा संस्मरण। शुभकामनायें।
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