हमने इस बार दशहरा नहीं मनाया .....
जी, पिछले कई वर्षों से दशहरा का कार्यकर्म बहुत ही धूमधाम से मनाते आ रहे हैं... लगभग २०-२१ वर्षों से.. उस समय तो कई लड़के बहुत छोटे थे... और कई तो पैदा ही नहीं हुए थे ... खासकर जो शोभायात्रा में राम लक्ष्मण बनते है ... जुड़वाँ भाई, गोली सोनी... जैसा नाम वैसे ही चंचल. एक समय आया कि ये लव कुश बन कर सजे हुए घोड़े की लगाम पकड़ कर चलते थे, फिर वनवासी राम लक्ष्मण, और अब तक राजसी राम लक्ष्मण के स्वरुप में दशहरा की झांकी में अपना योगदान देते थे.
पर सबसे महतवपूर्ण योगदान रहता था संजय भाई का, संजय कान्त. वो 'रावण का काल' की झांकी सजाते थे, जो कि हमारे दशहरे की मुख्य आकर्षण होती थी. आसपास कि कई कालोनियों के दशहरा कमेटियों के प्रतिनिधि उनको अपने यहाँ बुलाते थे और मन माफिक पैसा भी देने को तैयार रहते ... पर तिहाड गाँव का प्रेम संजय को कहीं जाने नहीं देता..
तिहाड़ गाँव के फ्रंटियर भवन में जहाँ, सभी किरदार तैयार होते.... पर संजय अपनी तैयार खुद करता. मेक-अप वगैरह भी... बहुत विभात्सव लगता था... उसके कमर में जंजीरें बंधी रहती... जिसे ६-७ कार्यकर्ता पकडे रहते थे... एक हाथ में मिटटी के तेल की बोतल और दूसरे हाथ में मशाल.... मिटटी के तेल को मुंह में भर कर मशाल पर फुहार सा छोड़ता जिससे कि आग का भयंकर गोला बन जाता था, पब्लिक तित्तर बित्तर हो जाती... पर 'रावण के काल' को न छोडती... उमड़ी रहती ...
कम से कम १२ ढोलों के शोर के बीच संजय का वो अंदाज़ देखते ही बनता था.... आस पास की कोई और शोभा यात्रा तिहाड गाँव की यात्रा के मुकाबले काफी फीकी लगती थी, चाहे उन लोगों ने जितना मर्ज़ी पैसा खर्च किया हो. वो दीवानापन... वो बिंदासपन सिर्फ तिहाड के लड़कों में ही दीखता..
हर साल की भांति संजय इस बार भी सावन में अमरनाथ की यात्रा पर गया था सेवा करने ... पर वहाँ नदी में गिर गया ... जिसे बचाया न जा सका और वो भोले का अनुरागी भोले के धाम में ही फना हो गया..
शाम सात बजे मैं चौक पर बे-मन से आया ... तो रुवांसा चुन्नू मिला.... भरआई आवाज़ में बोला ... भैया अब तक तो जलूस वापिस आ जाता और संजय रेस्ट करने घर चला गया होता, ये बोल कर लो भाई अपना रावण फूंको... हम चले,
मैंने भी यहीं जवाब दिए, हाँ चुन्नू - संजय यही कह कर अपने पक्के घर चला गया, लो भाइयों अपना रावण फूंको... पर मन नहीं माना इस बार.
जी, पिछले कई वर्षों से दशहरा का कार्यकर्म बहुत ही धूमधाम से मनाते आ रहे हैं... लगभग २०-२१ वर्षों से.. उस समय तो कई लड़के बहुत छोटे थे... और कई तो पैदा ही नहीं हुए थे ... खासकर जो शोभायात्रा में राम लक्ष्मण बनते है ... जुड़वाँ भाई, गोली सोनी... जैसा नाम वैसे ही चंचल. एक समय आया कि ये लव कुश बन कर सजे हुए घोड़े की लगाम पकड़ कर चलते थे, फिर वनवासी राम लक्ष्मण, और अब तक राजसी राम लक्ष्मण के स्वरुप में दशहरा की झांकी में अपना योगदान देते थे.
पर सबसे महतवपूर्ण योगदान रहता था संजय भाई का, संजय कान्त. वो 'रावण का काल' की झांकी सजाते थे, जो कि हमारे दशहरे की मुख्य आकर्षण होती थी. आसपास कि कई कालोनियों के दशहरा कमेटियों के प्रतिनिधि उनको अपने यहाँ बुलाते थे और मन माफिक पैसा भी देने को तैयार रहते ... पर तिहाड गाँव का प्रेम संजय को कहीं जाने नहीं देता..
तिहाड़ गाँव के फ्रंटियर भवन में जहाँ, सभी किरदार तैयार होते.... पर संजय अपनी तैयार खुद करता. मेक-अप वगैरह भी... बहुत विभात्सव लगता था... उसके कमर में जंजीरें बंधी रहती... जिसे ६-७ कार्यकर्ता पकडे रहते थे... एक हाथ में मिटटी के तेल की बोतल और दूसरे हाथ में मशाल.... मिटटी के तेल को मुंह में भर कर मशाल पर फुहार सा छोड़ता जिससे कि आग का भयंकर गोला बन जाता था, पब्लिक तित्तर बित्तर हो जाती... पर 'रावण के काल' को न छोडती... उमड़ी रहती ...
कम से कम १२ ढोलों के शोर के बीच संजय का वो अंदाज़ देखते ही बनता था.... आस पास की कोई और शोभा यात्रा तिहाड गाँव की यात्रा के मुकाबले काफी फीकी लगती थी, चाहे उन लोगों ने जितना मर्ज़ी पैसा खर्च किया हो. वो दीवानापन... वो बिंदासपन सिर्फ तिहाड के लड़कों में ही दीखता..
हर साल की भांति संजय इस बार भी सावन में अमरनाथ की यात्रा पर गया था सेवा करने ... पर वहाँ नदी में गिर गया ... जिसे बचाया न जा सका और वो भोले का अनुरागी भोले के धाम में ही फना हो गया..
शाम सात बजे मैं चौक पर बे-मन से आया ... तो रुवांसा चुन्नू मिला.... भरआई आवाज़ में बोला ... भैया अब तक तो जलूस वापिस आ जाता और संजय रेस्ट करने घर चला गया होता, ये बोल कर लो भाई अपना रावण फूंको... हम चले,
मैंने भी यहीं जवाब दिए, हाँ चुन्नू - संजय यही कह कर अपने पक्के घर चला गया, लो भाइयों अपना रावण फूंको... पर मन नहीं माना इस बार.
Koi bichar jaye to sabhi parv phike lagte hai.
जवाब देंहटाएंमार्मिक, संजय को श्रद्धांजलि।
जवाब देंहटाएंअरे यार,
जवाब देंहटाएंसैड कर दिया आज।
संजय के परिवार वालों तक हमारी संवेदनायें पहुँचाना दोस्त।
कुछ और सोच कर पढ़ रहा था. आँखें नम हो गईं. संजय जी हो श्रद्धांजलि.
जवाब देंहटाएंहर साल की भांति संजय इस बार भी सावन में अमरनाथ की यात्रा पर गया था सेवा करने ... पर वहाँ नदी में गिर गया ... जिसे बचाया न जा सका और वो भोले का अनुरागी भोले के धाम में ही फना हो गया..
जवाब देंहटाएंश्रद्धांजलि-- श्रद्धांजलि--श्रद्धांजलि--
ओह अंत तक आते आते मन इतना उदास हो गया ..दुखद यादें जो कभी नहीं भूलती
जवाब देंहटाएंभोले भक्त संजयजी को हार्दिक श्रद्धांजली...
जवाब देंहटाएंआपके पोस्ट पर कुछ और ही उम्मीद रहती है, पर इस बार तो वाकेई आपके पास कारण था दशहरा नहीं मनाने का।
जवाब देंहटाएंसंजय को विनम्र श्रद्धांजलि।
ओह! जानकर बहुत दुःख हुआ। संजय कांत को श्रद्धांजलि!
जवाब देंहटाएंओह-दुखद और प्रेरक पोस्ट।
जवाब देंहटाएंदेखें कौन फूंकता है अपना अपना रावण!
संजय को विनम्र श्रद्धांजलि।
जवाब देंहटाएंआपकी रोचक पोस्ट पर पहली बार आई थी शुरू में बहुत अच्छा लग रहा था की अंत दुखद होगया संजय जी को विनम्र श्र्द्धांजली।
जवाब देंहटाएंसमय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर भी आपका स्वागत है
http://mhare-anubhav.blogspot.com/
रोचक कथा का इतना दुखद अंत...
जवाब देंहटाएंमन भर आया....!
संजय जी को श्रद्धांजलि...!!
ओह दुखद घटना।
जवाब देंहटाएंतिहाड़ गाँव से एक बार गुजरना हुआ था, मगर यहाँ की रामलीला के बारे में पता नहीं था. संजय जी को श्रद्धांजलि.
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