21 सित॰ 2011

बेतरतीब विचार...


आप व्यापारी है या फिर कंपनी में पी आर ओहमेशा चेहरा पोलिश और इस्टाइलीश रखना पड़ेगानहीं तो ग्राहकों पर आपकी बातों कर प्रभाव नहीं पड़ेगा.
ग्राहक आपकी बीमार/मलीन सूरत देख कर दूकान से भाग खड़े होंगे और आप हाथ में की-बोर्ड थामे भाएँ भाएँ करती मक्खियों माफिक बेतरतीब विचारों को भागते/उड़ाते रहिये.
गाँव में कोई भैंस या ऊंट या फिर कोई अन्य पशु मर जाता था.. तो कुछ लोग इक्कट्ठे हो कर उसके स्वामी को कुछ सांत्वना देने पहुँच जाते थे. पशु की डेड बॉडी को खींच कर गाँव की सीमा से बाहर रख दिया जाता था. और कुछ लोग आतेअपने ओजार लिएउसकी चमड़ी को उधेड़-उधेड़ कर पता नहीं कहाँ ले जाते थे. वहाँ  अजीब लाल रंग का दुर्गन्धयुक्त मांस का, भयावह ढेर रह जाता.... कुछ समय पश्चात ऊँचे आसमान से एक दम चीलेकौवे और गिद्ध प्रकट होते... और उस मांस के ढेर को नोच नोच कर खाते थे. दो एक दिन में वो मांस कर ढेर खत्म हो जाता... और दुर्गन्ध भी..
दिल में ऐसे विचार आयेंगे तो चेहरा कैसे मुस्कुराता हुआगरीमा युक्त और शालीन रह सकता है.
कोई ऐसी छन्नी होनी चाहिए कि ऐसे विचार दूर तक रुक जाएँ...
शेष अस्थियों का पिंजर.. सूर्य की तीक्षण किरणों से धीरे धीरे सुख जाता.... पता भी नहीं चलता... फिर कुछ दिन बाद वहाँ हड्डियां भी नहीं मिलती ... पता नहीं कहाँ सब व्लीन हो ज़ाती थी.
यही सब साश्वत हैअब इस महानगर में मुद्दे ही मुझे पशु सामान लगते है. पर नियम उल्टा हैमुद्दों का जन्म ही मानो शुरुवात होती है जैसे कोई पशु मर जाता है. और लोग इक्कट्ठा होते हैं... फिर वही सब... उस मुद्दे को मुख्या जगह से हटा कर दूर कर दिया जाता है ... और दिलो-दिमाग से कसाई किस्म के लोग अपने अपने औज़ार लिए डट जाते हैफिर वही सब चील और कौवेगिद्ध तो ऐसी सडांध में मुंह मार के लुप्त हो गए हैं... फिर दुर्गन्ध पुरे वातावरण में फ़ैल ज़ाती है... और धीरे धीरे मुद्दे अपनी दुर्गन्ध लिए लुप्त हो जाते हैं.
कैसे ?
कैसे कोई मुस्करा सकता है... 
फिरक्या सेल्समैनी के उस पुरातन नियम को ताक पर रख विचारों को चिंगारी दें या विचारों पर ढक्कन कसकर चेहरा पोलिश रखें.
जय रामजी की 

13 टिप्‍पणियां:

  1. महानगर में मुद्दे ही मुझे पशु सामान लगते है. पर नियम उल्टा है, मुद्दों का जन्म ही मानो शुरुवात होती है जैसे कोई पशु मर जाता है. और लोग इक्कट्ठा होते हैं... फिर वही सब... उस मुद्दे को मुख्या जगह से हटा कर दूर कर दिया जाता है ... और दिलो-दिमाग से कसाई किस्म के लोग अपने अपने औज़ार लिए डट जाते है, फिर वही सब चील और कौवे, गिद्ध तो ऐसी सडांध में मुंह मार के लुप्त हो गए हैं... फिर दुर्गन्ध पुरे वातावरण में फ़ैल ज़ाती है... और धीरे धीरे मुद्दे अपनी दुर्गन्ध लिए लुप्त हो जाते हैं.
    aap muskarye kyoki aap babaji ke blog par hai .....

    jai baba banaras.....

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  2. बहुत गहरी मगर सटीक बात कह दी।

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  3. हमें बात पूरी तरह से समझ नहीं आयी। बस इतना ही समझा गया कि दुर्गन्‍धयुक्‍त वातावरण में कोई स्‍वस्‍थ चेहरा बनाकर नहीं रह सकता। लेकिन यह शायद किसी टिप्‍पणी पर प्रति टिप्‍पणी है, ऐसा मुझे लग रहा है।

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  4. माननिय अजित जी,

    बस मुद्दों के उठती दुर्गन्ध को दर्शाया है ....

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  5. कृत्रिम मुखभंगिमा बना जीवन नहीं जिया जा सकता है। प्रभावी प्रस्तुति।

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  6. वाकई सच बात है ....
    हार्दिक शुभकामनायें बाबा !

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  7. स्प्राईटात्मक विचार। वैसे, वातावरण को साफ़ रखने के लिये चील, कौवे, गिद्ध वगैरह बहुत कारगर हैं। कल्पना करके देखिये कि इनके बिना क्या हाल होता?
    जुटे रहो बाबाजी, ताकि हमें तरतीब से बेतररतीब विचार जानने को मिलते रहें और अपने विचार(बेशक असहमति के हों) भी रखने का मौका मिलता रहे।

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  8. दीपक जी ये बक-बक नहीं है और न ही विचार बेतरतीब है। एक विचारणीय प्रश्न है यह, मुद्दा गंभीर है और यथार्थ का वर्णन है इस आलेख में। आपका यह चिन्तन सोचने में मज़बूर करता है।

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  9. इस सदी में तेरे चेहरे पर हँसी की नमूद
    हँसने वाले तेरा कलेजा पत्थर का होगा.

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  10. इतनी तेज़ ज़िंदगी में चेहरे को तरतीब देना कई बार मुश्किल हो जाता है. मुद्दे तो रहेंगे उसे समेटने वाले भी. बहुत बढ़िया पोस्ट.

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  11. कहीं पढ़ा था - sales is selling yourself. जब तक आप आकर्षित कर सकते हैं, माल बेचते रहेंगे.

    धांसू पोस्ट

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बक बक को समय देने के लिए आभार.
मार्गदर्शन और उत्साह बनाने के लिए टिप्पणी बॉक्स हाज़िर है.