सरकार तुम्हे मरने नहीं देगी,
... और मंटो तुम्हे जीने नहीं देगा.... बार बार आकर पूछेगा तुम्हारे जीने की वजह
और दांतों में हाथों के नाख़ून काटते काटते सोचते रहोगे पर जवाब देने की स्थिति में
नहीं रहोगे बाबु मोशाय...
बिलकुल नहीं,
मंटो तुम्हे घूर के देखेगा
और तुम आँखे निचे किये रहोगे, सामने मेज़ पर पेग दिख रहा होगा पर हिम्मत नहीं होगी,
उसे उठाने की ....
नहीं
दराज में और बोतल भी रखी है.
पर मंटो की आँखों में आँखे डाल
कर उसे पेग ओफ्फ्रर नहीं कर पाओगे बाबु मोशाय...
बिलकुल नहीं,
साहित्य बहुत कमीना होता
है, इश्क से भी ज्यादा – पर मंटो से कम. उसे दोजख नहीं डराता और न ही जहन्नुम में फोन लगते हैं... लेखक कमीनापन लेकर पैदा
नहीं होते, बल्कि, समाज से ये बला लेकर बड़े होते हैं ... काले काले स्याह ह्रदय,
वीभत्स चेहरे... रात अँधेरे में राजनीति की चौसर पर सजती बाज़ी, सभी कुछ .... अपने
कलम से उड़ेल कर उलटी कर देता है, उसी समाज में. वही मजबूरी जो शर्मो हया छोड़, बेशर्मी
की हद तक जा, अपने लिए छोड़े टुकड़ों को लपकती है...... सबके लिए २ जून की रोटी का अधिकार
आता है.... जम्हूरित में सबका हिस्सा है...
चुनाव के ठीक
पहले... पता नहीं दुनिया के इस खित्ते में क्या-क्या होना शेष है.,
अच्छा हुआ - मंटो,
तुम मर गए,
ख़ुशी है...
नहीं तो दुनिया
भर के पागलखाने कम पड़ जाते, तुम्हारी बिरादरी बढती चली जाती...
जय राम जी की.
पूजा की लहरें पढ़
कर सहन नहीं हुआ, अत: उडल डाला आभार....
ये बाबा की बक बक है या जिंदगी का एक सबक .....राम ही जाने
जवाब देंहटाएंsahi hai....
जवाब देंहटाएंसाहित्य बहुत कमीना होता है, इश्क से भी ज्यादा – पर मंटो से कम.
:)
sahi hai....
जवाब देंहटाएंसाहित्य बहुत कमीना होता है, इश्क से भी ज्यादा – पर मंटो से कम.
:)
sahi hai....
जवाब देंहटाएंसाहित्य बहुत कमीना होता है, इश्क से भी ज्यादा – पर मंटो से कम.
:)