सामने जाती रोड पर खड़े होकर ट्रेफिक को देखना भी एक कला है. आजमाइए . आप मात्र ट्रेफिक को ही देखिये ... पैदल चलने वाले मुसाफिरों को नहीं. क्योंकि जो मुसाफिर है – उसकी सवेदानाएं कहीं न कहीं उनके चेहरे पर अंकित होती है – और एक आम इंसान दूसरे इंसान क्या हर प्राणी की भावनाएं पढ़ सकता है, समझ सकता है. और कई बार तो दूसरे प्राणी के साथ नज़र मिलते ही एक दूरसंवेदी यंत्र की तरह सम्बन्ध भी स्थापित हो जाता है. और उसकी खुशी और उसके गम खुद महसूस किये जा सकते है. अत: मुसाफिर जो देखना छोड़ दीजिए... हो सके तो राम जी के बनाये अन्य प्राणी जैसे कुत्ता, बिल्ली या फिर कोई चिड़िया इत्यादि भी मत देखिये.......
आप देखिये.... वाहनों को....... कलपुर्जों के अंतर्द्वंद को. सही में. पहचान लेंगे..... वो देखिये, टाटा ४०७ आ रही है... डरी हुई सी..... पता नहीं कब कहाँ ... ट्रेफिक पुलिस वाला हाथ देकर रोक ले. पता नहीं, गाड़ी ही डरी हुई है या फिर ड्राइवर का डर गाड़ी पर झलक रहा है. ड्राइवर सचेत सा ... गाड़ी भी सचेत सी. कभी कुछ यू लगता है कि ड्राइवर का व्यक्तित्व ही गाडी पर हावी रहता है. कोई दबंग सा ड्राइवर टूटी फूटी ४०७ चला रहा है – तो गाडी भी घटर-पटर करती हुई निकल जाती है....... खूब धुआं उडाती हुई.... मनो किसी कि परवाह नहीं, ‘ये तो नू ही चालेगी” के तर्ज़ पर
उधर, एक सेवा निर्वुती को अग्रसर ब्लू लाइन आ रही है.... परेशान सी....... रुक रुक कर चल रही है. कोशिश है कि सामने वाली रेड लाईट पर जरूर रुके......... शायद कोई सवारी चढ जाए ... और पांच रुपे की टिकट कट जाए...... झम-झम ... खट-पट सी. किसी ज़माने में कितनी शान से चलती थी...... उतनी ही शान से ड्राइवर बैठा करता था..... मुंह में ‘दिलबाग’ डाले....... पर अब दोनों सुस्त. सुबह जब गाड़ी निकलती है तो मालिक भी बड़ी हसरत से देखता है... जैसे बिना दूध देने वाली गाय को दुधिया देखता है...... न तो बेच सकता है और न ही पाल सकता है.
लो जी, मारूति ८०० आ गयी........ सौम्यपूर्ण. जब से रोड पर उतरी है – हमेशा सौम्य रही है. शायद ही किसी को परेशान किया हो.... न तो पैदल यात्री को न मालिक को और न ही ड्राइवर को. आज भी ऐसे ही.... कंपनी ने बनाना छोड़ दिया तो क्या, मायका बिछुड गया तो क्या? कितनी शान्ति से चल रही है. अब देखो, आराम से बिना शोर के चलते हुए, पुराने दिन याद करते हुई दिखती है. कितनी घबराहट में उतरी थी – ससुराल में यानि रोड पर, दायें-बाएं बड़े-बड़े ट्रक, बसें, और सौत (अम्बेसडर) ... उनके बीच बहुत ही प्यार से फिट हो गयी..... मधुर रिश्ते रहे हरेक से......... कई कोठियों में अब भी खड़ी है.... बिना उदासी के, ड्राइवर रोज सुबह कपडा मारता है – और लालाजी का जब मन हुआ – मंदिर तक चला जाता है. नहीं बेच रहा....... कैरीअर के उठान पर ली थी..... आज कई कारें खड़ी हैं.. पर मारुती मारुती ही है.
ये सुफेद अम्बेसडर आ गई.... पूर्ण गरिमा युक्त...... दिव्य ..... माथे पर लगी ‘रेड लाईट’ मनो इसको और गरिमा प्रदान करते हों, अंदर जितने भी काले दिल वाले क्यों न बैठे हों .... पर सुफेद अम्बेसडर की गरिमा पर कोई दाग नहीं.... बड़ी बहु जितनी आज्ञाकारी ...... और बड़ी सेठानी जैसे राज-काज वाली शांत धमक. अम्बेसडर ड्राइवर भी एक गरिमा लिए मिलेंगे.
कीजिए साहेब........ नोटिस कीजिये.... इनको.
hmm :)
जवाब देंहटाएंदीपक साहब आपके दृष्टि को सलाम.. बहुत सुन्दर.. अदभुद..
जवाब देंहटाएंलगता है आजकल बाबाजी को ट्राफिक कमेन्र्टी का जॉब मिला है... वाह जी अच्छा है.
जवाब देंहटाएंवाह आपकी पारखी नज़र का जवाब नहीं...हर गाडी का अच्छा खासा अध्यन किया लगता है आपने...
जवाब देंहटाएंheere ki parakh jauhari hi janta hai babaji.
जवाब देंहटाएंशायद कोई सवारी चढ जाए ... और पांच रुपे की टिकट कट जाए.....
जवाब देंहटाएंमुझे लगा किसी सवारी पर चढ़ जाए और उसकी टिकट कट जाए...
दीपक बाबू!क्या गाड़ियों का परिवार बनाया है आपने! आज कोई मज़ाक नहीं (ब्लू लाइन पर किए गए मज़ाक को छोड़कर).. "दिलबाग" का तो पता नहीं, पर अपना दिल बाग-बाग हो गया!!
मित्रों ........ आज दुपहर के पहले चरण में रोड पर खड़े होकर धुप सेक रहा था..... उक्त बातें ध्यान में आ गयी........ सो लिख दिया..... अच्छा लग रहा है आपका टिपियाना .
जवाब देंहटाएं@सलील जी (चला बिहारी....) सही में ब्लू लाइन वाला मजाक नहीं है....... ये बिचारे डीज़ल और ड्राइवर का खर्चा पूरा करने को तरस रहे हैं........
जवाब देंहटाएं@सलील जी (चला बिहारी....) और हाँ, याद आया, दिलबाग एक गुटखे का नाम है ...... जो एक रुपे में एक आता है..... कभी पोस्ट का लेखक भी दिन में १५-२० खा लेता था...... और लोगबाग कहते थे कि इसमें छिपकली का जेहर मिला है........
जवाब देंहटाएंखुदा जाने क्या सत्य है
खूब.. बहुत ही बढ़िया ओब्ज़र्वेशन...
जवाब देंहटाएंखैर अब आप दिलबाग नहीं खाते तो क्या 'RT' ;)
मनोज खत्री
मनोज जी, कृपया RT पर थोडा परकाश डालते जाते...
जवाब देंहटाएंjai baba ji bahut sunder likha hai.
जवाब देंहटाएंबढ़िया चित्रण किया है जी !
जवाब देंहटाएंkya khoob kaha hai aapne to deepak baba ;) aur badhiya ovservation hai...too good :)
जवाब देंहटाएंआपका चित्रण मन मोहन में सक्षम है।
जवाब देंहटाएं---------
ईश्वर ने दुनिया कैसे बनाई?
उन्होंने मुझे तंत्र-मंत्र के द्वारा हज़ार बार मारा।
क्या observation शक्ति है भाईसाब आपकी .. वाह !
जवाब देंहटाएंआदरणीय दीपक जी
जवाब देंहटाएंनमस्कार !
.........बढ़िया चित्रण किया है
मनोज जी RT नहीं, RD कह रहे होंगे।
जवाब देंहटाएंसही समीक्षा करी है बाबाजी, एकदम सटीक।
जी सा आ गया।
जी बस अम्बेसडर दिल के करीब है बचपन की याद जुडी है | हमारी ज्वाइंट नहीं जी जाईंट परिवार में से आधे उसमे समां जाता थे और जब कही पर उस में से निकलते थे तो लोग बस हमें मुह खोल कर गिना करते थे की कितने लोग निकले उसमे से | और किसी दुर्घटना का भी डर नहीं ,जो हमसे टकराएगा चूर चूर हो जायेगा वाली भावना आती थी |
जवाब देंहटाएंwah....
जवाब देंहटाएंik chatur car....leke sawaar.......
पहली पंक्ति ने ही मोह लिया - सामने जाती रोड पर खड़े होकर ट्रेफिक को देखना भी एक कला है.
जवाब देंहटाएंनिर्वुति - निवृत्ति
@ आजमाइए . आप मात्र ट्रेफिक को ही देखिये ... पैदल चलने वाले मुसाफिरों को नहीं. क्योंकि जो मुसाफिर है – उसकी सवेदानाएं कहीं न कहीं उनके चेहरे पर अंकित होती है – और एक आम इंसान दूसरे इंसान क्या हर प्राणी की भावनाएं पढ़ सकता है, समझ सकता है. और कई बार तो दूसरे प्राणी के साथ नज़र मिलते ही एक दूरसंवेदी यंत्र की तरह सम्बन्ध भी स्थापित हो जाता है. और उसकी खुशी और उसके गम खुद महसूस किये जा सकते है. अत: मुसाफिर जो देखना छोड़ दीजिए... हो सके तो राम जी के बनाये अन्य प्राणी जैसे कुत्ता, बिल्ली या फिर कोई चिड़िया इत्यादि भी मत देखिये.......
अज्ञेय की कविता याद आ गई:
एक तनी हुई रस्सी है जिस पर मैं नाचता हूँ।
जिस तनी हुई रस्सी पर मैं नाचता हूँ
वह दो खम्भों के बीच है।
रस्सी पर मैं जो नाचता हूँ
वह एक खम्भे से दूसरे खम्भे तक का नाच है।
दो खम्भों के बीच जिस तनी हुई रस्सी पर मैं नाचता हूँ
उस पर तीखी रोशनी पड़ती है
जिस में लोग मेरा नाच देखते हैं।
न मुझे देखते हैं जो नाचता है
न रस्सी को जिस पर मैं नाचता हूँ
न खम्भों को जिस पर रस्सी तनी है
न रोशनी को ही जिस में नाच दीखता है:
लोग सिर्फ़ नाच देखते हैं।
पर मैं जो नाचता
जो जिस रस्सी पर नाचता हूँ
जो जिन खम्भों के बीच है
जिस पर जो रोशनी पड़ती है
उस रोशनी में उन खम्भों के बीच उस रस्सी पर
असल में मैं नाचता नहीं हूँ।
मैं केवल उस खम्भे से इस खम्भे तक दौड़ता हूँ
कि इस या उस खम्भे से रस्सी खोल दूँ
कि तनाव चुके और ढील में मुझे छुट्टी हो जाये -
पर तनाव ढीलता नहीं
और मैं इस खम्भे से उस खम्भे तक दौड़ता हूँ
पर तनाव वैसा ही बना रहता है
सब कुछ वैसा ही बना रहता है।
और वही मेरा नाच है जिसे सब देखते हैं
मुझे नहीं
रस्सी को नहीं
खम्भे नहीं
रोशनी नहीं
तनाव भी नहीं
देखते हैं - नाच !