12 दिस॰ 2010

गर गुमनामियाँ ही हमसफ़र हों तो क्या कीजिए.

कोई खिलौना ही दिल तोड़ दे तो क्या कीजिए....
कोई अपना ही बेगाना हो जाए तो क्या कीजिए....

दिया साथ तो हमने अंगारों पर चल कर..
अगर रास्ता ही लंबा हो जाए तो क्या कीजिए....

मेरे दोस्त, ये मय साकी ओ मयखाना....
सब एक रात में ही तवारीख हो जाए तो क्या कीजिए....

जो फूल बन बेबाक रस्ते में बिछ जाते थे....
शूल बन चुभते रहे बरास्ता, तो क्या कीजिए....

लाख बचाते रहे दामन हम अपना इन फूलों से ...
फिर भी शूल मिलते रहे किस्मत में तो क्या कीजिए....


बाबा तो चल निकले थे रस्ते ए शोहरत पर...
गर गुमनामियाँ ही हमसफ़र हों तो क्या कीजिए....



दोस्तों कुबूल फरमाएं इसे .... गज़ल नाम दे देंगे तो बाबा का सफर मस्त रहेगा... नहीं तो ओलख निरंजन

17 टिप्‍पणियां:

  1. “ओलख निरंजन” नहीं होने देंगे बाबाजी, सफ़र मस्त ही रहेगा। गुमनामियों को हमसफ़र बनाने का जिगरा रखो यार, शोहरत पीछे भागेगी।

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  2. आपके आलेख पर जब हमने अलख निरंजन नहीं कहा तो इसे ग़ज़ल कहें न कहें अलख निरंजन तो कहने से रहे...
    शोहरत और गुमनामियों की बात जाने दीजिए दीपक बाबू.. हम भी जब चले थे तो बिहारी थे आज लोग सलिल के नाम से जानते हैं...

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  3. दिया साथ तो हमने अंगारों पर चल कर..
    अगर रास्ता ही लंबा हो जाए तो क्या कीजिए....


    बहुत खूब ...खूबसूरत गज़ल ..

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  4. कसे हुए मन के तार
    छेड़ गाता हूँ

    सात सुरों के पार।

    शब्द कम, मात्रा भंग

    तुम भर लो अपने रंग
    न भेजूँगा कोई सन्देश।

    मैं हैंग, मेरा की बोर्ड हैंग
    पर मेरे शब्द रह जाएँगे
    यूँ ही झूलते उकसाते
    सुर ठीक करने को
    रंग भरने को
    ...मेरी सिद्धि यही है।

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  5. बाबा तो चल निकले थे रस्ते ए शोहरत पर...
    गर गुमनामियाँ ही हमसफ़र हों तो क्या कीजिए....
    badhiya gazal...

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  6. @संजय जी, जिगरा ही तो है ....

    @सलिल जी,
    @शोहरत और गुमनामियों की बात जाने दीजिए दीपक बाबू..
    कैसे जाने दूं.

    @आचार्य (गिरिजेश जी)
    सही में...... मेरी सिद्धि यही है... टचवुड

    @संगीता जी, कुमार पलाश जी, और पुरविया जी...
    आभार आपके आने का.

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  7. दिया साथ तो हमने अंगारों पर चल कर..
    अगर रास्ता ही लंबा हो जाए तो क्या कीजिए...


    सच कहा ... कभी कभी रास्ते भी दागा दे जाते हैं ... लाजवाब दीपक बाबू ...

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  8. क्या बात कही बाबा आपने !
    आज तो फिलासफर लग रहे हो ...भुलाओ और हंसो यार !

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  9. चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना ९ विद्रोही का ब्रह्मज्ञान और कविता ) कल मंगलवार 14 -12 -2010
    को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..


    http://charchamanch.uchcharan.com/

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  10. अलख निरंजन बाबा, ग़ज़ल ही है और वो भी बेहतरीन....

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  11. आदरणीय बाबा जी
    नमस्कार !
    बहुत खूब .....खूबसूरत गज़ल ..

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  12. लाख बचाते रहे दामन हम अपना इन फूलों से ...
    फिर भी शूल मिलते रहे किस्मत में तो क्या कीजिए....

    ---

    bhaagy aage-aage chaltaa hai.

    .

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  13. बाबा तो चल निकले थे रस्ते ए शोहरत पर...
    गर गुमनामियाँ ही हमसफ़र हों तो क्या कीजिए....

    बहुत बढिया बाबा साहेब...

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  14. वाह दीपक जी, एक खुबसूरत गजल है।

    कोई खिलौना ही दिल तोड़ दे तो क्या कीजिए।
    कोई अपना ही बेगाना हो जाए तो क्या कीजिए॥

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  15. जो फूल बन बेबाक रस्ते में बिछ जाते थे....
    शूल बन चुभते रहे बरास्ता, तो क्या कीजिए....


    यही जीवन का कटु सत्य है...बहुत उम्दा गज़ल.

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बक बक को समय देने के लिए आभार.
मार्गदर्शन और उत्साह बनाने के लिए टिप्पणी बॉक्स हाज़िर है.