29 सित॰ 2011

किसी न किसी साथ, स्वयं को खड़ा पाता हूँ,

हर वक्त मैं, कहीं न कहीं, किसी न किसी साथ, स्वयं को खड़ा पाता हूँ,
कभी रेल हादसे में मारे गए मृतकों के परिजनों के साथ...मुआवजा पाने वाले लोगों की कतार में,
कभी माल के लिए उजाड़ी गई झोपडपत्तिओं में टूटे चूल्हों से उठते धुओं के गुबार में
रंगारंग समाराहो के बाद वीरान हलवाइयों की भाटियों के पास,
खाना ढूंढते, नग्न बच्चों के साथ., खुद में स्वयं को खड़ा पाता हूँ,
दिनभर रिक्शा खींचता, ८ नहीं बाऊजी १० लगेगें, से दिन निकाल, शाम को
व्यस्त किसी चौहोराहे पर नशे में गिरे पड़े उस मजदूर के साथ; मैं खड़ा नहीं, गिरा मिलता हूँ..
गाँव से मुंह चुराए, वह अब ३२ रुपये में तक्काज़ा मालिक मकान, किराया, खुराकी और नशे पत्ते में चुकता हुए रुपयों का हिसाब लगाते कंधे झुका टुक-टुक कर चलते, उस व्यक्तित्व पर मैं सवार दीखता हूँ,
वैशाली कि टिकट थामे, दिल्ली टेशन पर लाईन में लगे, गाँव पहुँच ‘रजा’ को खिलाने का अहसास मन में दबाये, पुलसिया डंडे खाकर भी नहीं डगमगाए, भैया तुम्हरे साथ हूँ,
अच्छी मिटटी के गारे में, १४ घंटे हाडतौड मेहनत के बाद, ईंट भट्टे की तपन को ठेकेदार के नरम बिस्तर पर उड़ेल; ३२ रुपये कमाने की कशमकश; हाँ देवी मैं वहीँ हूँ ... पर एक नपुंसक दर्शक....
pic courtsey :
http://en.artoffer.com/
halaburda-philippe/brigitte-sait/
तेज भागती महंगी गाड़ियों के गुबार को, सांस रोके देखते रह गए उस ट्रेफिक सिपाही को, अपनी नोट बुक संभाल भी नहीं पाया, और रईसजादा कुचल कर चला गया, पर मैं उठ कर चल पड़ता हूँ, कहीं ओर , किसी और के पास..

.
कि मैं,
अजर हूँ, अमर हूँ ....
बेबस हूँ, मजबूर हूँ, ....
मैं, समय हूँ.....


कलयुग में नीली पगड़ी बांधे... मैं, समय हूँ.....

28 टिप्‍पणियां:

  1. विचारणीय प्रस्तुति ... मर्माहत हो लिखा गया लेख ..

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  2. निशब्द हूँ आपकी इस बेहतरीन रचना पर
    आभार

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  3. जब से आपके ब्लॉग पर पढने लगी हूँ ...अब तक की सबसे अच्छी प्रस्तुति ...शब्द शब्द मन को छू गया

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  4. संवेदनाएं तो ऐसी ही होनी चाहियें जैसी आपको मिली हैं !
    शुभकामनायें बाबा !

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  5. बाबा....आपकी संवेदना को सलाम.. काश की इस दर्द को हर कोइ समझता..?

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  6. मतलब साफ है - इंसानियत ज़िन्दा है अभी!

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  7. समय ऐसे बुरे दौर से गुजर रहा है कि मन से आह निकल जाती है।
    आपका रेखाचित्र संवेदनाओं को झकझोरने वाला है।

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  8. बकबक से निकलकर सार्थक लेखन हो रहा है। ऐसे ही लिखते रहिए।

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  9. रूहानी-तड़प को बनाए रख,
    आख़िर में यही तो साथ जाएगी !

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  10. baba Ye duniya badi bedardi hai......

    aur baba ke man main duniya jahan ka dard...

    jai baba banaras.....

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  11. बेहतरीन प्रस्तुति ... शुभकामनायें...

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  12. दिल से कह रहा हूँ ..दिल को छू गया बड़े भैया

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  13. ये भावना सबके अंदर आ जाये तो दुनिया कितनी अलग होगी..
    बहुत पीड़ा झलक रही है बाबाजी, बहुत पीड़ा।
    दिक्कत ये है कि ऐसे लेख पढ़कर बधाई देना मुझे कुछ अटपटा सा लगता है, निसार होना शायद सही है। ये मेरी व्यक्तिगत राय है, किसी को इंगित नहीं कर रहा हूँ।

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  14. आजकल ऐसी सोच रखने वाले को दुनिया दीवाना कहती है.. औत अगर यही दीवानगी है तो कौन कम्बख्त होश में आना चाहता है!!

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  15. सच में समय तो ऐसे ही चलता रहता है - नीले रंग में.

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  16. बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति ।

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  17. "नीली पगड़ी" आपके आलेख का मर्म यहीं है. हृदयस्पर्शी. उद्वेलित करती. काश नीली पगड़ीवाले पढ़ लेते इसे एक बार.

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  18. कुछ दिनों से बाहर होने के कारण ब्लॉग पर नहीं आ सका

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  19. सार्थक चिंतन पूर्ण मर्मस्पर्शी आलेख....शुभकामनायें !!!

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बक बक को समय देने के लिए आभार.
मार्गदर्शन और उत्साह बनाने के लिए टिप्पणी बॉक्स हाज़िर है.