एक बुजुर्ग भूखा रहकर धुप सहकर
भ्रष्टाचार-अव्यवस्था का
अलाव जलाकर
जनता का आह्वान करता है..
व्यवस्था मूक तमाशा देखती
है.
वह जनउपयोगी खिचड़ी का
अनुष्ठान करता है.
खिचड़ी की सुगंध से उद्वेलित
भूखे क्रांतिकारी
गुड पर मक्खियों की मानिन्द
बुजुर्ग के चारों ओर इक्कठा
होते हैं.
मजमा लगता है - नारे लगते
हैं...
तराने क्रान्ति के भी गाये
जाते है.
खिचड़ी खूब पकती है.
क्रान्ति हुंकार भरती है.
क्रांतिकारी विस्मय से देखते
हैं -
खिचड़ी, भूखी जनता और अन्नशनधारी
उस बुजुर्ग को
एक क्रांतिवीर तनकर और अधिक
हुंकारता है.
दो तीन क्रांतिवीर नारे
लगाते लगाते –
खिचड़ी की पतीली ले उड़ते
हैं.
व्यवस्था तुरंत हरकत में
आती है,
बुजुर्ग जेल की कोठरी जाता
है.
क्रांतिकारी मौन रह जाते
हैं.
अव्यवस्था का अलाव भयंकर
तपता है.
जनता क्रांति की मशाल उठा
सड़क पर उतरती है.
फिजा में क्रांति के तराने
फिर गूंजते हैं.
सशंकित क्रांतिकारी एक
दुसरे को घूरते हैं.
इधर बुजुर्ग थक कर गाँव लौट
जाता है.
लोकतंत्र के इस महापर्व में...
क्रांतिकारी फिर से उद्वेलित
हो..
बुजुर्ग के अलाव से उठाई गई
खिचड़ी
जनता में घुमाते हैं.
झाड़ू हाथ में ले व्यवस्था को
ललकारते हैं.
जनता खिचड़ी की सुगंध में
मग्न..
क्रांति को भूल
क्रांतिकारियों के संग
झाड़ू उठा व्यवस्था को
धकियाती है.
और भूखे क्रांतिकारियों पर
वोट लुटाती है.
वोटों से भरे पुरे
क्रांतिकारी..
बुजुर्ग को भुला... जनता को
झुठला
उसी व्यवस्था के संग खिचड़ी खाते
हैं.
अब क्रांतिकारी संपन्न
हैं...
जनता क्रांति के तराने गाती
है.
और अपने को लुटा पाती है.
कविता शब्द मांगती है - और मैं ये स्वीकार करता हूँ कि मेरे पास शब्दों का भारी टोटा है. औघड़घाट में लय और तुकबंदी का क्या काम - सो इसके भी बिना गुजारा चल जाता है. पर खबरें जब बेचैन करती हैं तो भावनाएं उमड़ पड़ती है... उन्हीं को गुजारे लायक शब्द मिल जाएँ तो अच्छा लगता है. ~ जय राम जी की.
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