27 जुल॰ 2010

भोलों की भीड़ में प्रदीप ने सिखाया जीने का जज्बा

२४ जुलाई की शाम मेरे लिए बेचैन करने वाली थी. कुछ भी समझ में नहीं आ रहा तो - मन हुवा चलो चले हैं - हरिद्वार - भोलों से मुलाकात करेंगे. भोले यानी शिवभक्त, अधिकतर दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान जैसे राज्यों से होते हैं, - जो की हर की पोड़ी से जल भरकर पैदल चलकर, अपने अपने गाँव के शिवालय पर जल चडाते हैं.
मैं जैसे तैसे शनिवार की रात को घर से छुटकारा पा कर दिल्ली के कश्मीरी गेट बस अड्डे पहुंचा. भाई, बसों में सीट की तो खैर सलाह, छत पर बैठने की जगह भी नहीं थी. जहाँ देखो वहीँ बम बम. कुछ भी समझ नहीं आ रहा था. एक बस आई उप्र परिवहन निगम की जो देहरादून की गंतव्य की थी, रूडकी के नाम पर बस में बठने को जगह मिली और जैसे तैसे हम हरिद्वार पहुंचे. सब से पहेले, होटल में कमरा पाने की जदोजहद पूरी की. फिर चले माँ गंगा की गोद में, भोलों के साथ ही स्नान संपन हुवा. समय बहुत था, काम कम. .. अत चल पड़ा गंगा तट पर तहेलते हुवे और हर की पोड़ी से २-३ किलोमीटर दूर गंगा तट पर प्रदीप से भेट हो गई. प्रदीप - समस्तीपुर बिहार निवासी - जात और पेशे से नाई . खाली बेठे बेठे मैंने उससे शेव करवाई और टाइम काटने के लिया उससे बात करने लगा। उसकी बातों ने झंझ्कोर दिया. बिलकुल फ़िल्मी हीरो की तरह.
प्रदीप ७ दिल पहले खाली हाथ घर से हरिद्वार आया. उसके शब्दों में खाली हाथ यानि की पैसे नहीं थे... बाकि उस्तरा, ब्रुश, कंघी इत्यादी साथ ही हमेश झोले में रहेते हैं. पर बिना कुर्सी और शीशे (आईने) के ये सब भी बेकार. कुछ दिन तो लंगर खा कर गुज़ारा किया. फिर एक नाइ की दूकान पर जाकर अपनी मजबूरी बताई तो उसने एक टूटी कुर्सी और आइय्ना किराए पर दे दिया. परदीप गंगा किनारे दूकान खोल कर बैठ गए. और कमाई का सिलसिला शुरू. हालाँकि "भोले" कम पैसे देते है, पर कई यात्री ज्यादा यानी १० रुपे भी देते हैं. भैया जब तक सावन का मेला है तो ठीक है, उसके बाद जो पैसे कमाएंगे, उससे दांत मंजन का बिज़नस शुरू करेंगे. यानि की, यानी की, मैं दन्त मंजन बनाना जानता हूँ, पारिया, दांतों का पीलापन, दांतों में कीड़ा लगाना जैसे रोग मेरे दंतमंजन से दूर हो जाते हैं. और वो मंजन बेचूंगा. यानी बिना पैसा लगाये एक शत्प्रिशत बिज़नस चालू करना. मैं हैरान रह गया. एक पिछड़े शेत्र का बन्दा, कम पैसों या बिना पैसों के भी बिज़नस चालू कर सकता है. लानत भेजता हूँ अपने शिक्षा पद्धति को, जहाँ १२-१५ साल पढने के बाद भी इतना ज़ज्बा नहीं होता की परिवार पाल लें. या कुछ कर गुज़र लें
mba करने के बाद भी लोग नौकरियों के लिए धक्के खाते हैं, पर प्रदीप जैसे लोग एक उद्धरण प्रस्तुत करते हैं और हम जैसे लोगों को जीने की कला सिखाते हैं - हिम्मत न हारना.
अगली पोस्ट में चाय वाले, राहुल की बात करूंगा.
हाँ, बाबा अपनी फक्कड़पण के चक्कर में कैमरा नहीं खरीद सका, (पैसे की कमी नहीं , पर फक्कड़ता कुछ भी गैर जरूरी खरीदने की इज़ाज़त नहीं देती), नहीं तो प्रदीप की फोटो भी चस्पा दी जाती.
बहरहाल जय राम जी की
अरे, माफ़ करना जय भोले की.

4 टिप्‍पणियां:

  1. Is sai ek baat siddh hoti hai ki hindusta ka aadmi na to pahala garib thaa na aaj gareeb hai woh apni roti kehi bhee kama sakata hai yehi haat ka hunar hoota hai humari dili chahat hai ki bhai deepak ji isi tarah aap puri duniya ka bharaman kar hum logo ka gyan vardhan kar unnanati kerta reha----

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  2. आपकी यह पोस्ट अच्छी लगी, सरलता से कही बात दिल को छूती है दीपक बाबा ! शुभकामनायें !

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  3. achche blloger hain aap...
    blogger..






    raajneeti mein try kyun nahin karte...?

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बक बक को समय देने के लिए आभार.
मार्गदर्शन और उत्साह बनाने के लिए टिप्पणी बॉक्स हाज़िर है.