एक आदरणीय आज उत्तराखंड में एक रेलवे लाइन का शिलानियास करने जा रही थी, पर फिर से किसी रहस्यमय बिमारी के कारण नहीं जा पाई... बिमारी क्या थी – अभी तक मालूम नहीं, क्यों न जा पायी, ये सब आप यहाँ-वहाँ देख सकते हैं.
एक स्वामी जो कल तक जय हिंद का नारा लगा रहा था, आज बिग बॉस के घर में है, कई मंत्री और बड़े बड़े ओद्योगिक घरानों के संत्री आज मेरे पड़ोस ‘तिहाड जेल’ में हैं. मुझे कुछ समझ नहीं आता.... क्योंकि कई और लोग भी हैं जिन्हें इस पवित्र आश्रम में पहुंचना चाहिए था, पर कलियुग में बाहर मायावी दुनिया में उलझे हुए हैं.... उनकी दरकार थी..., कानून अपना काम रहा है,
आज से २७ साल पहले जब मैं नोवीं कक्षा का छात्र था- कुछ लोगों नें संगीन अपराध किया था, आज वो मज़े से सत्ता का सुख भोग रहे हैं, बिना राष्ट्र को शर्मसार किये हुए... और इसी २७ के अंक को जब से ३ से भागे देते हैं और जो अंक आता है, ९ साल पहले जब किसी से ऐसा तथाकथिक ‘अपराध’ हुआ तो आज सलाखों के पीछे पहुंचे का इंतज़ाम करवा दिए गए हैं...... धाराएं है साहेब, कानून है... जो विज्ञान है.
पर लगता हैं, मामला कहीं न कहीं वैधानिक और स्वेधानिक वाला है,... वैधानिक रूप से जिसको जहां होना चाहिए स्वेधानिक रूप से वो कहीं और है... स्नातक की डिग्री आपको ये सब नहीं समझा सकती, इसके लिए आगे की पढ़ाई करनी पड़ेगी, कानून की.... यानी धाराएँ... जो बताएं – किसको कहाँ होना चाहिए...
छोडिये जी, माशुका और पानी पर बेमेल कविता** है – नजरे इनाएत कीजिए....
**(गर आप चाहें तो कविता नहीं कह सकते हैं – पर तेल के खेल से मुरझाया व्यक्ति - जो मात्र मोटर साइकल इस लिए लेना चाहता है, कि उसकी एवेरज ज्यादा है - उसी का फ़क्त की-बोर्ड पर खाम्खावाह उँगलियों का खेल है)
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पानी खूब बरस रहा है,
खूब,
धारदार,
पानी है,
तभी धारदार बरसेगा..
और बरस रहा है...
पानी,
खेतों को लग रहा है,
पानी, इक्कट्ठा हो रहा है,
पानी नदी में जा रहा है,
नदी फिर से खेतों में जा रही है,
गेंहू, उडद, सरसों, कपास,
सभी,
लहरा रही है,
पानी बरस रहा है,
और मैं अभिशप्त हूँ,
क्योंकि
मैं सपनो में पानी बरसता देखता हूँ,
और नींद से जागकर
उसे दुःस्वप्न समझ भुला देता हूँ,
क्योंकि पानी भी तब
उस नखरीली गुसैल बददिमाग
महबूबा की तरह लगता है,
जो समय पर नहीं आती,
जो मुझे भिगोये बिना, चली ज़ाती है,
क्यों नहीं उस पर कोई राजेन्द्र यादव
शोध करता...
मैं प्रयत्न करता हूँ, पर
बिना कोई मेगाससे पुरस्कार पाए,
शांत हो जाता हूँ,
शोध बीच में छोड़,
क्योंकि पानी और प्रेमिका
कभी एक नहीं हो सकती ..
एक भिगो जाता है तन मन को..
दूसरी एक छलावा दे ज़ाती है,
और मैं......
द:स्वपन से जागकर,
दायें बांये देखता हूँ,
बच्चों, का शोर......
बीवी की चिलचिल....
पाता हूँ, कि सब ठीक ठाक है,
फिर, नहाते समय...
उस बदबूदार पानी का इकरार/इज्हार
मानता हूँ, महबूबा है
फिर से नखरे कर रही है...
मेरे दोस्त,
ऐसे पानी तो न बन,
महबूब बन कर ही
क्यों नहीं लहराने देती
मेरे स्वप्नों की दुनिया को..
जय राम जी की.
सपनों की दुनिया से नाता जोड़ने और नींद खोने का वर्षों पुराना संबंध है।
जवाब देंहटाएंपत्नी को ही महबूबा समझ लीजिये और सपने खुली आँखों से देखिये :-)
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंbahut hi achchha likha hai dipakji,
जवाब देंहटाएंbadhai
अंग्रेजों के राज में अक्सर लोग बेरिस्टर बनते थे, क्योंकि उन्हें अंग्रेजों से लडना था। आज भी शायद बेरिस्टर बनने की ही सर्वाधिक आवश्यकता है, अपने ही इन अंग्रेजों से लड़ने के लिए।
जवाब देंहटाएंवैधानिक और स्वेधानिक का अंतर खूब समझाया। अच्छी कविता!
जवाब देंहटाएंक्योंकि पानी और प्रेमिका
जवाब देंहटाएंकभी एक नहीं हो सकती ..
एक भिगो जाता है तन मन को..
दूसरी एक छलावा दे ज़ाती है,
गहन शोध है बाबा जी
प्रणाम
wah baba ji wah kiya taal mail milaya hai ....
जवाब देंहटाएंjai baba banaras......
आपके पोस्ट पर आना सार्थक सिद्ध हुआ । पोस्ट रोचक लगा । मेरे नए पोस्ट पर आपका आमंत्रण है । धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंओह, इस ब्लॉग से मैं कविता लिखना सीख सकता हूं, जो अब तक नहीं आया मुझे।
जवाब देंहटाएंबाकी, जिसे जहां होना है, वह घूम फिर कर वहीं पंहुचता है - देर सबेर! सारे शूरमा जायेंगे अंतत: कब्र में!
पहले हिस्से में जिनका पानी मर गया उनका ज़िक्र और बाद में आँखों में पानी लाना आप ही कर सकते हैं दीपक बाबू!! कमाल है!! जारी रखिये ये सब, कोई कुछ भी कहे हम कविता ही कहेंगे!!
जवाब देंहटाएंसोलह फीसदी कविता है। अच्छी लगी।
जवाब देंहटाएंjiski jo jageh hai use aaj nahi to kal wha pahuch hi jana hai .............
जवाब देंहटाएंvicharniya lekh ke liye bahdhai
जिसको जहां जाना रहता है वहां वह अंततः पहुँच ही जाता है ------
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबधाई
bahut sundar
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