25 नव॰ 2011

बनिया, बेटी की शादी और एफ डी आई....Retail FDI... Social responsibility

क्या करें, कुछ खबरें आपको बैचेन करती हैं.
जी, याद आता है जुलाई का महीना और सन १९९३ ... बहन की शादी थी... उस समय के हालात से (हालांकि ऐसे मामलों में हालात लगभग यही रहते हैं..)  और पैसे की तंगी .. बोले तो हाथ टाईट.
सुरेन्द्र जी हैं, तिहाड गाँव में ... किराने की दूकान करते हैं... और दूकान प्रसिद्ध है ढालू की दूकान के नाम से. पुराने बनिया हैं - हलवाई के सामान की लिस्ट लेकर चिंतित होकर उनके पास माताजी और मामा जी (जिनकी खुद गाँव में किराने का थोक का व्यवसाय है) ले कर गए. उन्होंने तुरंत लिस्ट का वाजिब पैसा जोड़ कर बता दिया और सहर्ष तैयार हो गए पैसा किस्तों में लेने के लिए... बिना किसी ब्याज बट्टे के.
एक बनिया या कहिये व्यापारी का सामाजिक उतरदायित्व था... बिना किसी 'कंपनी ला' के .... और आज भी है.. क्योंकि वो खुद उसी समाज का हिस्सा है... उसी का अंग है.
मेरे ख्याल से ये गांधी जी अर्थशास्त्र है या फिर दीनदयाल उपाध्याय जी का एकात्म मानववाद  का ... उसके हर दुःख सुख में इंसान ही इंसान के साथ खड़ा रह सके .... 
साहेब कंपनी ला नहीं था... बिना किसी कंपनी ला के समर्थ व्यक्ति (समाजिक इकाई) आपनी आपनी सामाजिक जवाबदेही तय कर लेता था.  आज आप कानून बना रहे हैं. बनाइये. बजाये उस बनिए को कोई सहुलि़त देने के आप उसे उलझा दीजिए विदेशी साहूकारों के हाथ ..कि वो सामाजिकता भूल कर दिन रात बस दूकानदारी ही सोचता रहे. जनता पिसती रहेगी साहेब.

दूसरी बात.
गरीब की लड़की कुंवारी नहीं रहती ... अमीर का लड़का बेशक रह जाए... ये मेरे स्वर्गवासी पूज्य पिताजी का कथन होता था.. आज जब मैं सामाजिक कार्यकर्मो में शिनाख्त करता हूँ तो ये सटीक बैठता है. और बात गले उतरती है कि क्यों वो ऐसा कहते थे...
दो घटनाएं रख रहा हूँ, नाम स्थान नहीं दे रहा ... पर सत्य हैं.
दिल्ली के राजेश अरोरा का विवाह हरियाणा में तय हो गया. कार्ड छप कर बाँट गए, तैयारी पूर्ण हो गयी, भावी दुल्ल्हा और भावी दुल्हन में आज के अघोषित नियमानुसार फोन पर वार्तालाप भी शुरू हो गए. पर एका-एक शादी के ४-५ दिन पूर्व ही भावी दुल्हन ने फोन पिक करना बंद कर दिया. भावी दुल्हे को बैचेनी हुई ...और वो कुछ करता .. अगले ही दिन दुल्हन का फोन आया ... कटु और कठोर शब्दों में उसने शादी के लिए मना किया और गर बरात आई तो उसके परिणाम भी भुगतने के लिए उसे आगाह किया... साथ ही उसने अपने पुरुष मित्र (बॉय फ्रेंड) से भी बात करवा दि ... खून-ओ-खराबा दुल्हे को बिना ३ जी फोन के दिखने लगा. उसने तुरंत ये बात अपने परिवार में बताई ... और परिवार बिना देर किये भावी दुल्हन के घर की तरफ चल पड़ा... वहाँ वो होने वाला सुसराल ताले बंदी में दिखा. परिवार लौट आया. और बिचोलिये को तलाशा गया जो मूक था. और उसकी मजबूरी उसके चेहरे पर दिख रही थी.
अब, अब हुआ और याद आया उस गरीब का रिश्ता छत्तीसगढ़ से ... जिन्होंने दूल्हा पक्ष ने ठुकरा दिया था... उसकी मन्नते शुरू हुई... पर वो बंदा गरीब जरूर था स्वाभिमानी था... कैसे दो दिन में लड़की विदा कर दे. सामाजिक तानाबाना शुरू हुआ.. फोन पर फोन हुए दिल्ली से लेकर छत्तीसगढ़ तक कैसे न कैसे लड़की के बाप को समझाया गया. 
गिनती के ११ लोग गए और लड़की विदा करवा लाये और बाकी का बरात का रिसेप्शन तय शुदा कार्यकर्म अनुसार ही हुआ. जैसे की कुछ हुआ ही न हो..
जी- उस लड़की के भाग थे.


जिजीविषा ... दिल्ली  जल बोर्ड - झंडेवालान, नइ दिल्ली; दफ्तर के बाहर पेंशन की कापी को बाईंड करता एक बाईन्डर ... समय नहीं है की नाम बताए या फिर कितने पैसे में एक कापी बाईंड कर रहा है ... उसका मेहनताना... उम्र करीब ७५ साल से उपर रही होगी... उसके केन्द्र या राज्य सरकार से कोई अनुदान नहीं चाहिए.....इस पोस्ट से इस चित्र का कोई सम्बन्ध नज़र नहीं आता ... पर सोचिये इस उम्र में भी ये काम कर रहा है बिना किसी एफ डी आई की आस किये.:)
दूसरी घटना...
गरीब पर सामाजिक इज्जतदार बसेसर राम ने अपनी मांगलिक लड़की का रिश्ता तो तय कर रखा था ६ महीने पहेले पर पैसे की व्यवस्था न तो थी और न हो सकी.... ६ महीने बीत गए, लड़के वाले दवाब बनाते तो टाल मटोल कर दिया जाता. किन्ही भावुक क्षणों में उन्होंने अपनी समस्या अपने मित्र को बताई जो एक समाजिक कार्यकर्ता थे.. पता नहीं कैसे कैसे उन्होंने सम्पर्क बनाया और एक सप्ताह के अंदर अंदर उस लड़की की शादी की व्यवस्था हो गयी. तुरंत फुरंत... शायद कोई करोडपति ही ऐसा कर पाये. मुझे बहुत ताज्जुब हुआ जब शादी समारोह में दुल्हन के पिताजी निश्चिन्त से बैठे थे और कई सामाजिक कार्यकर्ता (आफकोर्स राष्टीय स्वयंसेवक संघ के) ने बागडोर संभाल रखी थी... 
आप होते तो आप भी दांतों तले ऊँगली दबा लेते जी, खाना ही इतना स्वादिष्ट बना था....
मैं नतमस्तक हो गया जी... बिना किसी मनेरगा, लाडली वृद्ध पेंशन या फिर सामाजिक परियोजना के ..... क्योंकि यहाँ का सामाजिक तानाबाना मज़बूत था... उसे विदेशी पैसे को तरसती किसी सरकार की जरूरत नहीं थी..

बार बार डैडी - आप याद आये.... 

जय राम जी की.

10 टिप्‍पणियां:

  1. समाज के दो विभिन्न चेहरोम को दिखाया आपने। आंखें खोलने वाली घटनाएं।

    जवाब देंहटाएं
  2. समझने की बात है। धारणायें पीढियों के अवलोकन के बाद बनती हैं। कौटुम्बिक भावना और सरकारी "प्लैन" में अंतर तो रहेगा ही। खासकर यदि जनता और सरकार का कुटुम्ब अलग हो।

    जवाब देंहटाएं
  3. आज से कुछ शताब्‍दी पूर्व हर भारतीय अपनी मर्जी का मालिक था। स्‍वयं की खेती या स्‍वयं का धंधा था। नौकर किसी का नहीं था। बहुत ही कम प्रतिशत में नौकर थे। लेकिन जैसे-जैसे मिलें आयी वैसे-वैसे नौकर बढ़ने लगे। अब छोटे-छोटे दुकानदार जो मेहनत से कमा रहे हैं, उन्‍हें इन बाजारों में नौकरी तो मिल जाएगी लेकिन अपना स्‍वाभिमान नहीं मिलेगा। नौकरों का प्रतिशत बढ़ता जाएगा और मालिकों का कम होता जाएगा। जिस दिन भी नौकरी गयी, घर बैठो। आपने बहुत अच्‍छे से अपनी बात कही है, आज बकबक नहीं है। बड़ी अच्‍छी लगी पोस्‍ट।

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत खूब ||

    अद्भुत ||

    सुन्दर रचनाओं में से एक ||

    आभार ||

    जवाब देंहटाएं
  5. जब कोई बड़ा निर्णय बिना सोचे समझे लेने का उपक्रम होता है तो भ्रम होना ही है।

    जवाब देंहटाएं
  6. हमारा समाज और हमारी सरकार दोनो दिग्भ्रमित हो गये हैं। सामाजिक तानाबाना सुधार के लिये नवजागरण चाहिये। बाकी, सरकार को जवाबदेह बनाने के लिये तो मुहीम चालू हो ही गयी है।

    जवाब देंहटाएं
  7. यह सब 'विकास' के नाम पर 'विनाश ' की तैयारी है !

    जय राम जी की !

    जवाब देंहटाएं
  8. भ्रम निर्माण करना ही एक कार्य रह गया है अब...

    जवाब देंहटाएं
  9. एक सपना सा लगता है की हर भारतीय अपनी मर्जी का मालिक था। स्वयं की खेती या स्वयं का धंधा था। नौकर किसी का नहीं था। यह कोन से जमाने के किस भारत की बात हो रही है? जिस जमाने के सपने आप दिखा रहे है वो जमीदारी और राजे महाराजाओं का युग था. आम आदमी तो कीडे मकोडो की तरह सेकडॉ की संख्या में या तो खेतीहर मजदूर की तरह बेगार करता था फिर अछूत था. उन्हे दो जून रोटी मिल गई तो उस मालिक ( जमीदार) की दुआ मांगते थे. एक छोटे से कर्ज में गरीब अपने घर बार और खेती की जमीन से जुदा जो जाता था. जिस साहूकार की आप तारीफ कर रहे है उसकी गिद्द दृष्टि उस गरीब की जमीन जायदाद और बहू बेटीयों पर होती थी. लठ्ठ का जमाना था..जिसकी लाठी उसकी भेंस. जी हजूरी मे झुकी आंखे. अगर राज्य के विरूध जरा भी मूह खोला तो सीधे मौत. किस जमाने की बात कर रहे है... आप.! हमने तो वो जमाना देखा है की आम आदमी जानवर से बदतर था और राजा इतना शक्तिशाली और दंभ से भरा हुआ की अपने को भगवान की तरह पुजवाता. आम आदमी उनेक द्वारा बनाये नर्क को भोगने का शापित वरना क्या कारण था की मोका मिलते ही लोग शहरो की तरफ भागे और मजदूर बन गये.
    टिप्पणी मे ज्यादा नही लिख सकते इसलिये पूरी बात....आगे पढने के लिये लिंक को क्लिक करे...हो सकता है मेरे विचार गलत हो...हो सकता है वो सही भी हो...
    http://webmanthan.blogspot.com/2011/12/blog-post_21.html

    जवाब देंहटाएं

बक बक को समय देने के लिए आभार.
मार्गदर्शन और उत्साह बनाने के लिए टिप्पणी बॉक्स हाज़िर है.