30 सित॰ 2010
भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।
अजोध्या का फैसला - जय हो टर्कोलाजी
अरे भोलानाथ, बहुते दिन बाद नज़र आये.
भोलानाथ, ‘टर्कोलाजी’ कहाँ से पकड़ लाये.
भाई भोलानाथ – ई तो नई चीज़ बता दी तुमने, अभी तक तो हमो ई समझे बैठे थे की घर से लेकर पूरा देश – देसी “जुगाड” नामक यंत्र से चल रहा है. ई सुसरी ‘टर्कोलाजी’ कहाँ से आ गयी.
उ का है न बाबा का दिमाग पुराने मॉडल का है – हो ई दम लगवा और तनिक विस्तार से बतावा.
ई है तुम्हरी टर्कोलाजी ? अब बतावा देश कैसे चल रहा है टर्कोलाजी से.
हाँ, भोलानाथ पर ई मामला तो कोर्ट में है, अभी १-२ घंटे में फैसला आना है –
अच्छा, भोलानाथ – तुम तो बड़े ग्यानी हो कर दरशन बघार रहे हो.
कौन, चंद्रशेखर –
26 सित॰ 2010
कामन भ्रष्ट खेल और मीडिया...... भाई आप खुदे समझ लें.
“बाबा, ये जो ज्यादा चिल्ला रहे हैं न – इनको पैसा नहीं मिला”
मेरे मित्र बोले.
“इसके मायने”
“बाबा, मैं ये कहना चाहता हूँ कि हज़ारो करोड कि धांधली हुई है, इस कामनभरष्ट के खेल में, मीडिया वालों को अगर पैसा मिला होता तो – इतनी नेगटिव कोवेराज़ नहीं करते.”
“भाई, बात तो आपकी ठीक है, अगर हम कहें कि किसी और मुद्दे से ध्यान हटाने कि बात हो तो ?”
“और कौन सा मुद्दा है”
क्या बात कर दी आपने, क्या नक्सलवाद के मुद्दे से ध्यान हटाना हो, और हमारे माननिये गृह मंत्री सक्रिय न हों ?
अगर महंगाई डायन से ध्यान हटाना है – तो हमारे माननिये खाद्य उपभोक्ता मंत्री सक्रिय न हों.
वो मान गए.
हाँ, बाबा, तुम्हारी बात में दम है, पर हम अब ही ध्रुव सत्य पर कायम हैं कि अगर मीडिया वालों को उनका हिस्सा मिला होता तो इतनी नेगटिव कवरेज नहीं करते.
अच्छा बताओ,
नहीं बाबा, पहले आप बोले रहो, फिर हम अपना तुरुप का पत्ता निकालेंगे.
राम मंदिर का फैसला आना था, ये तो आप भाई अच्छी तरीके से जानते हैं, वो अयोध्या का मुद्दा दब गया, फैसला नहीं आ पाया, अत: मीडिया को मजबूरी में फिर से कामन वेल्थ का मुद्दा उठाना पड़ा.
अरे बाबा, आप तो निरे बोडम हैं, अजोध्या का मुद्दा तो उ कोनों त्रिपाठी जी ने टायं टायं फिस कर दिया.
क्या बात कर रहे हो भाई, इ त्रिपाठी जी कहाँ से आ गए.
बाबा, जहाँ न पहुंचे कवि – वहाँ पहुंचे रवि.
यानि
यानी , त्रिपाठी जी हैं – पता नहीं कहाँ से राम लल्ला के भक्त बन कर पहुँच गए – उपर कि अदालत में और फैसला रुक गया,
बाबा, उ फिल्म तो देखे हो............
कौन सी
“एक रुका हुवा फैसला”
हाँ, भाई देखि है, एक व्यक्ति ने सभी मेम्बर को अपनी सोच के हिसाब से ढाल लिया था .... और फिल्म के अंत में उ फैसला उसी व्यक्ति के हिसाब से आया.
इही तो हम भी कहते हैं, बाबा, ई त्रिपाठी जी भी उ व्यक्ति हैं – पर ई खुद कुछ नहीं कर रहे – सुना है इनको भी उपर से आर्डर हैं.
भाई मान गए तुमको, पर उ जो है तुरुप का पत्ता तो बताओ.
बाबा बताएँगे, पाहिले कुछ और पूछ ल्यो.
नहीं भाई, तुम्हो अब बतायेदो, पाठक बहुते बोर हो रहे हैं, अब तुरुप का इक्का फैंक दो.
ठीक है बाबा, पहले ई न्यूज़ पढ़ लो
“कॉमनवेल्थ मीडिया सेल के प्रमुख मनीष कुमार का इस्तीफा
· आईबीएन-7
Posted on Sep 25, 2010 at 23:26
नई दिल्ली। कॉमनवेल्थ गम्स को लेकर मचे हड़कंप के बीच शनिवार को CWG के मीडिया सेल के प्रमुख मनीष कुमार ने इस्तीफा दे दिया है। पिछले दो साल से CWG प्रेस ऑपरेशन प्रमुख के पद पर काम कर रहे मनीष कुमार का आज तबादला कर दिया गया था। अब मीडिया सेल का प्रमुख मंजू सिंह को बनाया गया है।
दरअसल इस तबादले के पर्दे के पीछे का खेल कुछ और है। जबसे सरकार ने आयोजन समिति की निगरानी शुरू की है तब से आयोजन समिति और सरकारी प्रतिनिधियों के बीच तनाव शुरू हो गया है।
सूत्रों के मुताबिक PIB के अधिकारी और मनीष कुमार के बीच लगातार दूरियां बढ़ती जा रही थी। पिछले कुछ दिनों से मनीष कुमार PIB के अधिकारियों के बीच लगातार बहसबाजी हो रही थी। जिसके चलते PIB ने मनीष के तबादले का फरमान सुना डाला। तबादले से नाराज़ मनीष ने पद से इस्तीफा दे दिया। मनीष का कहना है कि कॉमनवेल्थ को लेकर उन्होंने कोई गलती नहीं”
पढ़ ली बाबा,
हाँ, भाई पढ़ ली, इसमें क्या, कई लोगों ने जाना है, कोई पहले – कोई बाद में, ई मनीष कुमार पहले सही.
नहीं बाबा, ई जो मनीष कुमार हैं न – मीडिया के इन-चार्ज हैं मीडिया को देखते हैं. बस बाकी आप समझदार हैं . खुदे ही सोचते रहिये.
मान गए इस भाई बात को. और बक भी दिया अपने लोगों के बीच. आप सोचते रहिये. का ई बात ठीक है.
पर बाबा चलते हैं, जय राम जी की.
24 सित॰ 2010
जमाना बदल गया है – प्यारे, तू भी बदल
जमाना बदल गया है – प्यारे, तू भी बदल.
सही में, जमाना कितना बदल गया है. आज बुद्धू-बक्से (टी वी को हम यही नाम दिया करते थे न) से होकर बाजार हम पर कितना हावी हो गया है – ये बात आज अपने 11 वर्षीय बेटे (और मोहल्ले में उसके मित्रगण) को देख कर लगती है. पापा आप पुराने हो?
गाँव के नाम पर – नाक सिकोड़ कर कहता है – नहीं पापा वहाँ नहीं जाना. क्यों ? पापा – वहाँ पोटी कि स्मेल आती है (भैंस के गोबर की) ये बालक वहाँ का दूध नहीं पीना चाहता. गन्दी भैंस से निकला है. घर में अगर गाँव से आयातित मक्खन आ जाये – तो इनको पसंद नहीं – इनको चाहिए अमूल बटर.
अब आप क्या कहेंगे.
पापा आप गाडी कब लोगो ?
बेटा, क्या जरूरत है, (मैं दोपहिया वाहन का इस्तेमाल करता हूँ)
नहीं पापा, कुआलिस लो?
बेटा – मारुती ८०० क्यों नहीं
नहीं पापा, that’s old one
Ok, मैं चुप हो जाता हूँ.
बेटा, इन छुट्टियों में हम मनाली घूमने जायेंगे ?
नहीं पापा – न्यूजीलैंड?
अरे .............. क्यों
नहीं पापा – न्यूजीलैंड? क्यों का जवाब उसके पास नहीं है – पर मैं ये मानता हूँ कि, उसके क्लास फैलो विश्व भ्रमण का चस्का लग गया है तो ये कैसे पीछे रहे.
बेटा, आज रोटी क्यों नहीं खाई ......... क्या पापा रोज-रोज रोटी. क्या मतलब. मुझे रोज रोज रोटी नहीं खानी. फिर क्या ? पिज्जा, ब्रेड-ऑमलेट और सैंडविच. रोटी तो ये इंडियन खाते हैं.
तो, तू इंडियन नहीं है ..............
.......... हुम्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म
अच्छा.
फलां – साबुन लाना, फलां पावडर लाना (दूध में डालने हेतु), फलां टूथ पेस्ट लाना. यानी ये पीड़ी हर जगह से ब्रांडिड है. या ये माना जाये – कि ये आज़ाद देश और आज़ाद ख्याल के गुलाम व्यक्तित्व बन चुके हैं. जैसे पहनने के, ओढने के, पीने के, खाने के – हर चीज़ के ब्रांड हैं. और उस ब्रांड के बिना ये जी नहीं सकते.
और ये लोग आज खामख्वाह ही बड़े-बड़े माल में घूमना चाहते हैं – और वहीँ से खरीदारी करना चाहते हैं. बनिया कि दूकान अब इनको ओल्ड फैशन लगती है.
हम जब ४-५ कक्षा में थे – हमारे आदर्श – भगत सिंह, आज़ाद, नेताजी बोस जैसी शक्सियत होती थी. पर आज इनकी – शाहरुख खान, जान अब्राहिम और जान सीना (शायद wwf) वाले हैं.
इस समय चाणक्य जैसे नीतिकार अगर होते तो उन्हें दुबारा सोचना पड़ता....... आज ८ साल के बालक को आप प्रताड़ित नहीं कर सकते. ये मेरा मानना है.
आज ये पीडी इन्टरनेट में मुझ से ज्यादा जानती है. उनको कई वेबसाइट पता हैं – जो स्कूल में बच्चे आपस में शेयर करते हैं. विंडो सेवेन आपने अपने कम्पुटर में डाली हो या नहीं – उनको चाहिय. और सबसे मजेदार बात ये है कि उनको विन्डोज़ सेवेन के कई नए फंक्शन मालूम है – जो आपको मालूम नहीं. और उनके पास किसी वेबसाइट का एड्रेस भी है जहाँ से ये डाउनलोड हो सकती है.
जैसे कर्ण को कुंडल और कवच जन्म से मिले थे – उसी प्रकार मोबाइल फोन इनको मिला है. कौन सा नया मॉडल, किस कंपनी का, कौन-कौन से नए आप्शन इसमें है. ये आपको किसी प्रशिक्षित सेल्समैन कि तरह समझा देंगे................... और बता भी देंगे – पापा अमुक ही लेना.
याद आता है जब स्कूल में फीस के नाम पर 40 पैसे चंदा दिया जाता था (हाँ तब हम फीस को चंदा ही कहते थे) और १० तारिख निकल जाने के बाद भी जब नहीं दे पाते थे – तो मा’साब वापिस घर भेज देते थे – जाओ चंदा लेकर आओ. इसी वज़ह से जब क्लास में खड़ा करते थे – ऐसा लगता था – मानो जमीन फट जाए – और हम बीच में समां जाए. बहुत ही शर्म आती थी. आज बच्चे से पूछो – बेटा इस बार आपका स्कूल फीस का चेक जमा नहीं करवा पाए – मेम ने कुछ कहा तो नहीं ? तो वो हँसता है ?
बताओ भाई ?
कुछ नहीं ?
कुछ तो बोला होगा
कुछ नहीं ? मुहं कि एक विशेष सी आकृति बना कर वो कहता हैं.
वो मैम बला बला बला बला बला बला बला बला बला कर रही थी.........
अब बताइये ............... कैसे निभाएंगे आप इस पीड़ी के साथ?
हैं न यक्ष प्रशन .
बहरहाल, जय राम जी की.
और मेरा मानना ये है कि ये सब बाजारवाद का ही परिणाम है.
22 सित॰ 2010
आज के दो बैल - सन्दर्भ मुंशी प्रेमचंद.
प्रस्तावना पढ़ ली आपने – प्रेमचंद द्वारा लिखित कहानी – “दो बैल” की.

पता नहीं क्यों जब में अपनी तुलना करने लगता हूँ तो मुझे ले दे के बैल ही नज़र आते हैं. और हाँ – एक दोस्त के शब्दों में रहंट के बैल. जिनको पानी निकालने के लिए जोता जाता था. उनकी आँखों में पट्टी नुमा कोई चीज़ बंधी जाती थी ताकि – वो दायें बाएं न देख सकें. ये भी न देख सकें कि मालिक है या नहीं – बस चलते जाएँ. गोल गोल –
फैक्ट्री से घर – घर से फैक्ट्री.
बिलकुल बैल कि तरह. दुनिया भर का बोझ उठाये. वजन ज्यादा या कम – ये हमारी किस्मत पर निर्भर करता है – कब गाडीवान को रुई लादने का भाड़ा मिला है या लोहा. अपना कुछ नहीं. अगर अपने कहने को है तो – मात्र किस्मत. जो अपनी होती तो बैल कि योनी में जन्म न लिया होता – अगर बैल कि योनी में जन्म लिया ही था – तो कोई धर्मात्मा छुडवा देता सांड कि शक्ल में – धर्म के नाम पर. पर नहीं खालिस बैल- बोझा उठाने को.
हाँ बैल चार पहिया वाले होते इन – और हम है दुपहिया.
अब वर्तमान पर आते हैं. दिल्ली में नारायणा रेड लाइट का एक दृश्य:
भारी लोहे के गार्डरों से बैल गाड़ी लदी हुई है. गाडीवान तीसरी कसम का राजकपूर नहीं है और ना ही प्रेमचंद का होरी या झूरी है. वो खालिस गाडीवान है जो उत्तर प्रदेश के किसी जिले का है और अभी २० वर्ष से दिल्ली वाला हो गया है, वो दारू के नशे में धुत है. लोहे के गार्डर जहाँ खत्म होते हैं वहाँ एक लालटेन – लाल चमकीले पनी में लपेट कर लटका रखी है. बेक लाइट का काम करने के लिए.
आजकल बैल भी समझदार हो गए हैं. रेड लाइट पर रुक गया है. बैलगाडी के पीछे कोई अमीरजादा अपनी लंबी होंडा सिटी गाड़ी में विलायती महेंगी शराब के नशे में मद हो कर होर्न पर होर्न दिया जा रहा है. और बैलगाडी के बगल में मैं अपने लड्डा (सेलेक्ट स्कूटर) पर बैठा सब देख रहा हूँ. बैल जानवर जरूर है पर है समझदार – पता है रेड लाइट है आगे नहीं बढ़ रहा. अमीरजादा बेखोफ सा गाडीवान को गाली देता है और गाडीवान की देसी शराब उतर जाती है – वो बैल पर दो चार डंडे से बरसाता है.
पर बैल को पता नहीं क्या डर है? आगे नहीं बढ़ रहा. गाडीवान के बैल की पुरुष ग्रंथि पर वो डंडा तेज तेज घुमाने पर बैल सरपट चल पड़ता है. पीछे से अमीरजादा भी निकल जाता है – ओवर टेक करके. मैं अपनी जगह मनमोस कर रह जाता हूँ. क्योंकि कुछ दर्द है – जो बैल की पुरुष ग्रंथि से होकर मेरे हृदय को कचोट रहा है.
दिन याद आया २००६ का दशहरा. झांकी सजाने के लिए १० बैलगाडी बुलाई थी. एक का गाडीवान दारू पी कर पता नहीं कहाँ चला गया था. और पूरी शोभा यात्रा में वो बैल गाडी मुझे हांकनी पड़ी थी.
जय राम जी की
चित्र : गूगल के साभार.
21 सित॰ 2010
बोल मेरी मछली कित्ता पानी
एक गोल चक्कर बनाकर – एक दूसरे का हाथ पकड़ कर गोल गोले घूमते बच्चे बोलते.......
“हरा समंदर – गोपीचन्द्र
बोल मेरी मछली कित्ता पानी”
और बीच में जो बालक रहता – वो अपने घुटने तक हाथ लगता हुवा बोलता
“इतना पानी”
इसी प्रकार फिर से वो बोलना चालू करते – और बीच का बच्चा – कमर तक इशारा करता हुवा कहता “इतना पानी”
याद आपको भी आ गया होगा. बच्चपन का वो खेल. हाँ, आजकल मीडिया के सभी लोग यमुना के किनारे हाथ पकड़ कर गोल गोल घूम रहे हैं. और बोल रहे है – बोल मेरी मछली कित्ता पानी. सुबह से शाम तक बकते रहते हैं. यमुना खतरे कि निशान के इतना उपर – उतना उपर. दिल्ली में बाढ़??
दिल्ली में बाढ़ का खतरा! -
दिल्ली में बाढ़? सिर्फ 8 CM दूर खतरा ...
यमुना खतरे के निशान से ऊपर, दिल्ली ...
दिल्ली में बाढ़ का खतरा, कई ट्रेनें ...
यमुना का जलस्तर बढ़ा, दिल्ली में ...
दिल्ली में बढ़ रहा है बाढ़ का खतरा
यमुना में उफान जारी, शीला ने कहा ...
दिल्ली, बाढ़ ,Flood in Delhi - Desh Localnews - Desh ...
दिल्ली में बाढ़ का खतरा, खाली कराए गए ...
दिल्ली में बाढ़ का खतरा, हरियाणा ने ...
दिल्ली वालों, यमुना नदी – अपनी जगह मांग रही है – उसकी जगह खाली करो.
इतनी मीटिंग और आपातकालीन बैठक बुलाई जा रही है. इतने मास्टर प्लान बन रहे हैं. पर एक बात – नदी का पेटा जो दिल्ली के सेवर कि सिल्ट से भर गया है कभी उसको साफ़ करवाने की किसने सोची? सिल्ट से कम से कम १ मीटर गहराई तो कम हो गई है. नदी का विस्तार भी कम कर दिया है. किनारों से रेत खत्म हो गई है. मानसून के दौरान वजीराबाद बैराज से बहुत सा पानी बेकार चला जाता है. और अनुमानित यह पानी दिली जल बोर्ड द्वारा सप्लाई किया जाने वाले पानी के चार गुना होता है. नदियाँ जो पहाडो से रेत बहाकर लाती है .... वो अपने किनारों पर जमा करती है जिससे ज्यादा पानी आने से इसी रेत द्वारा सोंख लिया है.
यमुना कि इस रेत को रेत के ठेकेदारों ने नहीं बक्शा....... बाकि नदी में रह गई – सीवर कि सिल्ट. वो कहाँ से पानी सोखेगी. पहले यही नदियों कि रेत को अगर २-४ फूट खोदा जाता तो पानी मिल जाता था.
कहते हैं प्रकृति अपना समाधान खुद करती है – यमुना को हिल्लोरे मारने दो. बहने दो – ये तुम्हारी गंदगी ही तो साफ़ कर रही है.
मीडिया वालों बार बार टोक कर नज़र मत लगाओ.
जी हाँ पहले इसी नदी के कारण हमारी दिल्ली पानीदार थी – और दिल्ली वाले भी. अब दिल्ली वाले बेशर्म मालदार हैं और धरती बाँझ – कंक्रीट से भरी हुई.
सुबह बारिश आ रही थी - इसलिए घर बैठ कर टीवी देख रहा था - और परेशान होकर ये पोस्ट यमुना मैया पर लिखी - जय राम जी की.
फोटो : गूगल के साभार.
18 सित॰ 2010
लिवनी आंटी................
परिंदे तय कर लेंगे अपना सफ़र.
मौसम की दीवानगी से वाकिफ़ है.
सही तो है. पर एक बात जो अपन को कचोटी है – मेरे जैसे परिंदे को तो ये मालूम नहीं कि मंजिल कहाँ है – फासला कितना है – कैसे तय कर पायेंगे अपना सफर.
बस आवारागर्दी ही तो होगी.
ये आवारागर्दी कहाँ पहुंचायेगी........... ये न मैं जानता हूँ न आप.
बिना मंजिल – बिना किसी लक्ष्य के जीवन जीना......... कितना ही मुश्किल है – ये बात पड़ोस में रहने वाली उस लिवनी आंटी कि जीवनचर्या से मैंने सीखी थी.
लिवनी का मतलब – पागल होता है – वो ओरत थोड़ी सीधी थी – अत: बालपन में हम भाई बहनों ने उसका नाम लिवनी रख दिया था. उसका पति MCD में मुलाजिम था. घर में मात्र दो प्राणी थे – पति-पत्नी. मनो दो हँसो का जोड़ा.
याद आती है – गर्मियों कि वो दोपहर - एक दिन वो आंटी अकेले घर में रो रही थी. बाल-मण्डली को मालूम हुवा – बात घरों तक पहुंची – आस-पड़ोस कि कई औरतें इकट्ठा हो गई – पूछा गया .. ......... तू क्यों रो रही है – जवाब सुन कर हंसी आ गई – वो बोली आज वो दोपहर को खाने पर नहीं आये ..... काफी देर हो गई. एक बंद भेजा गया - आध-पोन्न किलोमीटर दूर ............ तब वो श्रीमान आये ......... और अंटी को डांटा – क्यों रो रही थी ?
इतना प्यार था ........... तब उम्र छोटी थी – नए नए गाँव से आये थे ..... पर हम लोगों के लिए हास्य का विषय बन गया था ........ हमने नाम दिया लिवनी अंटी.
शायद १९९६-९८ कि बात है. अंकल कि मुर्त्यु हो गयी. कंधा देने वाला कोई नहीं था. मोहल्ले के लोगों ने मिल कर सरे कर्म किये. आंटी अकेली रह गई. ८० गज का मकान दिल्ली जैसे शहर के बीच में.
ये परिवार वैसे तो शुरू से ही कंजूस था – पर अंकल के जाने के बात तो हद हो गए............. आंटी जेब से एक पैसा ढीला नहीं करती. सब्जी के रेडी पर जा कर रेट पूंछ कर ही रह जाती – पर कुछ नहीं खरीदती. दूध एक ग्लास में ५० ग्राम लाती – और चाय बना कर पीती. हमें दुःख होता. पर क्या कर सकते थे. दिन में एक-टाइम का भोजन तो पड़ोस के गुरूद्वारे से लंगर खा कर गुज़ारा करती. लोग खूब समझते – इतनी जमीन है – इतनी पेंशन आती है – खर्च कर – कौन खायेगा तेरे बाद.. पर बात उसके पल्ले नहीं पड़ती.
उन्होंने एक मुसलमान किरायेदार रखा. माता-पुत्र सा व्यवाहर हो गया दोनों में – और हम लोग भी खुश – चलो जो भी आंटी को एक मंजिल तो मिली. बिहार के किसी जिल्ले में उस बंदे का घर था – उसकी शादी पकी हो गई. आंटी उसके साथ बिहार चली गई – मोहल्ले में बिना बताये. १५-२० दिन बाद वो अपनी पत्नी को ले आया.
अब आंटी फिर अकेली........ यानि पुत्र का स्नेह जाने लगा.......... बात बदने लगी..... वो मुसलमान कहेता – कि ये मेरी निजी जिंदगी में दखल देती है. लोगों ने खूब समझाया – किरायेदार है - किराए तक सोचो – और कुछ मत सोचो ..... पर आंटी को कौन समझाए.
मुसलमान किरायेदार को बुलाया गया ........ भाई तू माकन खाली कर दे .........
सामने तो कुछ नहीं बोलता – पर बात खुले लगी – कि मकान तो उसने अपने नाम करवा लिया है – अब वो ही मालिक है – इस मकान का.
मोहल्ले ये बात आग कि तरह फ़ैल गई सभी प्रधान टाइप लोग पहुँच गए. उसको धमकाया गया. आंटी से पूछा – वो बोली हाँ – कचहरी ले गया था. उसने माफ़ी मांगी और कागज देने के लिए चार दिन का टाइम माँगा.
वो अपनी पत्नी को गांव छोड़ आया – और गायब हो गया. गाँव के जितने दादा किस्म के लोग थे उनको मिलता और कागज कि फोटोकापी दिखाता. मामला हाथ से निकल गया. मोहल्ले वाले देखते रह गए. दादा लोगों के आगे सभी बे-बस थे.
अंटी फिर अकेले रहेने लग गई. आदत वही. कंजूसी वही. क्या कहा जाये. खूब समझाया – मासी अपने पर खर्च कर ले – तेरे बाद कौन.
पर मैं परेशान रहने लगा – अगर भगवान न करे – अंटी को कुछ हो गया तो सेवा कौन करेगा? यक्ष प्रेषण था.
एक दिन समाचार आया कि गुरुद्वारे से आते समय – अंटी का एक्सीडेंट हो गया.
मैं स्तब्ध रह गया?
पर क्या किया जा सकता था..........................
जिस ओरत नै – एक एक पैसा इतनी कंजूसी से खर्च किया – उसका पैसा क्या काम आया.
आज उसका मकान वीरान पड़ा है – बिहारी मुसलमान गायब है. उस अंटी के दूर के समधी चक्कर कटते रहेते हैं. मकान बिक नहीं सकता............ क्या बताएं.
आज पता नहीं क्यों उस आंटी कि याद बार बार आ रही है ........... और ये सब
नहीं लिखना चाहिए था न ???????
पर बक बक है – न लिखते तो प्रेस मैं बैठ कर कई लोगों को सुनाते.
बहरहाल – जय राम जी की.