1 सित॰ 2010

इक छोटी सी प्रेम-कहानी....

पेड़ों और झाडियों के झुरमुट में बेंच के उपर वो बैठा था.......... क्या नाम दूं उस आशिक को......... चलो देवदास............... और जाहिर है जो साथ थी...... वो पारो ही होगी.....

पारो देवदास कि टांगो के ठीक बीच खड़ी अपने हाथों से उसके बालों से खेल रही थी.......... मैंने पटरी पर चलते हुवे दूर से दोनों को देखा ....... पारो से मेरी नज़र मिली ......... पर उसने मुझे इग्नोर सा कर दिया........... थोड़ी नज़दीक आने पर देवदास कि नज़र मुझ पर पड़ी ........ शरमा कर उसने पारो का हाथ छुडा कर एक किनारे उसे उसी बेंच पर बिठा दिया और उसके चेहरे पर मुस्कान आ गयी........... पता नहीं मैं भी मुस्कुरा दिया..................

पर थोडा आगे चल कर मुझे खीज होने लगी.... गुस्सा आने लगा .......... इस लैला मजनू कि जोड़ी पर ....... कारन .... पारो ... ... पारो ने स्कूल कि युनिफोर्म पहन रखी थी..... यानि स्कूल से भाग कर देवदास को मिलने आयी है......... मन ही मन मैं पता नहीं क्या क्या सोचता रहा ......... जाने किस घर कि होगी....... क्या सोच कर घर वाले पड़ने भेजते होंगे...... इत्यादि ...

बाबा कि जवानी तो निरर्थक निकली है ........ यानि प्यार और इश्क वाली गली से तो बाई-पास होगये. अत जब किसी को प्रेम-लीला में लीन देखता हूँ ..... तो ह्रदय कि कोई तार बाबा ke भी झनझना जाती है...... पर यहाँ मामला अलग था....... पारो स्कूल युनिफोर्म में थी.........

जो भी हो...... मैंने अपनी सैर जारी रखी....................

वापसी आते आते ..... फिर वो प्रेमी युगल सामने से अठखेलियां करते सामने से दिखे......... एक जगह ही थी जहाँ मुझे उनको क्रोस करना था........... उस जगह फिर देवदास मुझे देख कर मुस्कुरा उठा........... क्लास खत्म हो गई मैंने पुछा........ हाँ भैया देवदास का जवाब था......

अगले दिन ............ फिर प्रेमी युगल से वहीँ पर मुलाकात हुई.......... आज पता नहीं क्यों पारो कुछ सहमी सी नज़र आयी............ देवदास फिर मुस्कुराया........ मैंने अपनी सैर जारी रखी....... पर वापसी में निश्चित जगह मिलने पर दोनों ठिठक गए.............

भाई कौन सी क्लास में पढ़ते हो मैंने देवदास से पुछा..........

भैया ........ सेकंड इयर

और ये .

ट्वेल्थ ..........

आजकल स्कूल से बंक चल रहा है..

बस भैया ऐसे ही..............

पारो शर्माती रही ........ और देवदास के पीछे छिपती रही..........

उसके १ महीने तक दोनों का अता-पता नहीं चला...... पता नहीं क्यों मन उनसे मिलने के लिए कुछ बेचैन सा रहा......... एक खामख्वाह कि व्याकुलता दिल में घर कर रही थी.मैं मानता हूँ कि सामाजिक दृष्टी से ये मेरी चुतियापंती ही कही जायेगी........ क्यों देखना चाहते हो भाई...........

पर पता नहीं .......... ??

मैं भूल गया....................

रह रह कर एक कविता कई बार जेहन में आती है ............


समुन्दर पूछता है अब वो दोनों क्यां नहीं आते

जो आते थे – तो अपने साथ कितने ख्वाब लाते थे...

कभी साहिल से ढेरों सीपियाँ चुनते थे.

नंगे पाँव पानी में चले आते थे.

भीगी रेत से नन्हे नन्हे घरोंदे बनाते थे.

और, उनमे सीपियाँ, रंगीन से कुछ संग्रीज़ यू सजाते थे

के जैसे अज के जुग्नुसय लम्हे

आने वाले कल कि मुट्ठी में छुपाते थे.

समुन्दर पूछता है अब वो दोनों क्यां नहीं आते

समंदर ने खिंजा कि सिसकियाँ लेती हुवे

एक शाम उन नौजवानों को नहीं देखा

जो देर तक तनहा सारे साहिल रह बैठा ...

फिर उसने ढेर सारे खत

बहुत से फूल सूखे और तस्वीरें

और अपने आंसू

समुन्द्र के हवाले कर दिए..

देखो बाबा का सरल कवि ह्रदय ......... कैसे भावपूर्ण कविता में गोते लगता रहा............

कुछ दिन में भूल गया ....... पर आज फिर पार्क के एक कौने से मुझे वही अठखेलियाँ करते आते हुवे दिखने लगे.... पता नहीं आज मुझे देख कर पारो छुपने का उपकर्म करने लगी. समझ नहीं आया .... कि ऐसा क्या रिश्ता जुड गया.. बहिन-बेटी-भतीजी फिर भांजी... जिससे उसको शर्म आने लगी. ......... फिर उसी नियत जगह ..... जहाँ मिलना था.......... ठीक उसी जगह ..... पारो देवदास के पीछे छिप सी गयी और शर्म सी करती हुई आँखे मिलाने से बचती है.......

देवदास मुस्कुराते हुवे – और भैया...........

कहाँ थे भाई इत्ते दिन........

बस यू ही भैया.........

आज लफंगे परिंदे देखने जाना है - वो हँसता है.......

...... पारो शरमाती है..................



पारो - देवदास पुराण पर आज इत्ता ही.....

जय राम जी की

19 टिप्‍पणियां:

  1. yeh modern devdas aur paro ki kahani hai samaj ka najaria badal raha hai.

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  2. बहुत रोचक बक बक है आपकी...छोटी सी घटना का जीवंत विवरण..असाधारण लेखन कौशल है आपका...बधाई
    नीरज

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  3. दीपक भाई बहुत गहरी बातों की चिंतनीय बक बक है यहां तो :) प्रेम सत्‍य है उन्‍हें ओशो को पढ़ने को बोले.

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  4. @ कौशल जी.... आपके एक फोन पर ये बक बक लिखी थी...अत: इस बक बक का श्रेय आपको दिया जाएगा.

    @झल्ला साहेब, यानी बक बक पढ़ ली आपने.

    @नीरज जी - क्या कहें आपकी ये अदा तो मार जाती है. पहले दिन से ही झाड पर चड़ा रखा है.

    @संजीव जी, कल अगर पार्क में मिले तो बोलूँगा - ओशो को पढ़ने के लिए . वैसे कल स्कूल कि छुटी हा - पारो नहीं आ पाए .

    आपका धन्यवाद

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  5. गुरू, हो किसकी तरफ़?
    देवदास तो बहुत चालू निकला, बाबा को भी सैट कर लिया।

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  6. @संजय जी (मो सम कौन) सही अंदाजा लगाया आपने... देवदास वाकई चालू लगता है.... स्मार्ट भोत है.

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  7. आप झाड़ियों की बात करते हैं। यहां दिल्ली में तो मेट्रो से आते-जाते भी स्टेशनों पर जो नज़ारा देखने को मिलता है,क्या बताएँ।

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  8. @ कुमार साहिब. ... देखने में गलत लगे पर हमेशा गलत नहीं होता........... मैं मानता हूँ कि शारीरिक आकर्षण से जादू शुरू होता है ....... पर इसको आत्मीय कि नज़र से देखो तो कहीं न कहीं "कृष्ण राधा" नज़र आयेंगे. ............

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  9. सामाजिक दृष्टी से जो कुछ कहलाये मगर कविता बेहतरीन बन पड़ी है...बेहतरीन बाबा जी. :)

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  10. श्री कृष्ण जन्माष्ठमी की बहुत-बहुत बधाई, ढेरों शुभकामनाएं!

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  11. अच्छी पंक्तिया है ...
    एक बार यहाँ भी आइये .....
    ( क्या चमत्कार के लिए हिन्दुस्तानी होना जरुरी है ? )
    http://oshotheone.blogspot.com

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  12. देवदास और पारो के बहाने चिंता भी जता दी, और उस एह्सास की खुशियां भी
    बधाई�

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  13. शोर्टकट का अफ़सोस तो नहीं है बाबा को ...कथानक का बढिया चित्रण

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बक बक को समय देने के लिए आभार.
मार्गदर्शन और उत्साह बनाने के लिए टिप्पणी बॉक्स हाज़िर है.