24 सित॰ 2010

जमाना बदल गया है – प्यारे, तू भी बदल

जमाना बदल गया है – प्यारे, तू भी बदल.

सही में, जमाना कितना बदल गया है. आज बुद्धू-बक्से (टी वी को हम यही नाम दिया करते थे न) से होकर बाजार हम पर कितना हावी हो गया है – ये बात आज अपने 11 वर्षीय बेटे (और मोहल्ले में उसके मित्रगण) को देख कर लगती है. पापा आप पुराने हो?

गाँव के नाम पर – नाक सिकोड़ कर कहता है – नहीं पापा वहाँ नहीं जाना. क्यों ? पापा – वहाँ पोटी कि स्मेल आती है (भैंस के गोबर की) ये बालक वहाँ का दूध नहीं पीना चाहता. गन्दी भैंस से निकला है. घर में अगर गाँव से आयातित मक्खन आ जाये – तो इनको पसंद नहीं – इनको चाहिए अमूल बटर.

अब आप क्या कहेंगे.

पापा आप गाडी कब लोगो ?

बेटा, क्या जरूरत है, (मैं दोपहिया वाहन का इस्तेमाल करता हूँ)

नहीं पापा, कुआलिस लो?

बेटा – मारुती ८०० क्यों नहीं

नहीं पापा, that’s old one

Ok, मैं चुप हो जाता हूँ.

बेटा, इन छुट्टियों में हम मनाली घूमने जायेंगे ?

नहीं पापा – न्यूजीलैंड?

अरे .............. क्यों

नहीं पापा – न्यूजीलैंड? क्यों का जवाब उसके पास नहीं है – पर मैं ये मानता हूँ कि, उसके क्लास फैलो विश्व भ्रमण का चस्का लग गया है तो ये कैसे पीछे रहे.

बेटा, आज रोटी क्यों नहीं खाई ......... क्या पापा रोज-रोज रोटी. क्या मतलब. मुझे रोज रोज रोटी नहीं खानी. फिर क्या ? पिज्जा, ब्रेड-ऑमलेट और सैंडविच. रोटी तो ये इंडियन खाते हैं.

तो, तू इंडियन नहीं है ..............

.......... हुम्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म

अच्छा.

फलां – साबुन लाना, फलां पावडर लाना (दूध में डालने हेतु), फलां टूथ पेस्ट लाना. यानी ये पीड़ी हर जगह से ब्रांडिड है. या ये माना जाये – कि ये आज़ाद देश और आज़ाद ख्याल के गुलाम व्यक्तित्व बन चुके हैं. जैसे पहनने के, ओढने के, पीने के, खाने के – हर चीज़ के ब्रांड हैं. और उस ब्रांड के बिना ये जी नहीं सकते.

और ये लोग आज खामख्वाह ही बड़े-बड़े माल में घूमना चाहते हैं – और वहीँ से खरीदारी करना चाहते हैं. बनिया कि दूकान अब इनको ओल्ड फैशन लगती है.


हम जब ४-५ कक्षा में थे – हमारे आदर्श – भगत सिंह, आज़ाद, नेताजी बोस जैसी शक्सियत होती थी. पर आज इनकी – शाहरुख खान, जान अब्राहिम और जान सीना (शायद wwf) वाले हैं.

इस समय चाणक्य जैसे नीतिकार अगर होते तो उन्हें दुबारा सोचना पड़ता....... आज ८ साल के बालक को आप प्रताड़ित नहीं कर सकते. ये मेरा मानना है.

आज ये पीडी इन्टरनेट में मुझ से ज्यादा जानती है. उनको कई वेबसाइट पता हैं – जो स्कूल में बच्चे आपस में शेयर करते हैं. विंडो सेवेन आपने अपने कम्पुटर में डाली हो या नहीं – उनको चाहिय. और सबसे मजेदार बात ये है कि उनको विन्डोज़ सेवेन के कई नए फंक्शन मालूम है – जो आपको मालूम नहीं. और उनके पास किसी वेबसाइट का एड्रेस भी है जहाँ से ये डाउनलोड हो सकती है.

जैसे कर्ण को कुंडल और कवच जन्म से मिले थे – उसी प्रकार मोबाइल फोन इनको मिला है. कौन सा नया मॉडल, किस कंपनी का, कौन-कौन से नए आप्शन इसमें है. ये आपको किसी प्रशिक्षित सेल्समैन कि तरह समझा देंगे................... और बता भी देंगे – पापा अमुक ही लेना.

याद आता है जब स्कूल में फीस के नाम पर 40 पैसे चंदा दिया जाता था (हाँ तब हम फीस को चंदा ही कहते थे) और १० तारिख निकल जाने के बाद भी जब नहीं दे पाते थे – तो मा’साब वापिस घर भेज देते थे – जाओ चंदा लेकर आओ. इसी वज़ह से जब क्लास में खड़ा करते थे – ऐसा लगता था – मानो जमीन फट जाए – और हम बीच में समां जाए. बहुत ही शर्म आती थी. आज बच्चे से पूछो – बेटा इस बार आपका स्कूल फीस का चेक जमा नहीं करवा पाए – मेम ने कुछ कहा तो नहीं ? तो वो हँसता है ?

बताओ भाई ?

कुछ नहीं ?

कुछ तो बोला होगा

कुछ नहीं ? मुहं कि एक विशेष सी आकृति बना कर वो कहता हैं.

वो मैम बला बला बला बला बला बला बला बला बला कर रही थी.........

अब बताइये ............... कैसे निभाएंगे आप इस पीड़ी के साथ?

हैं न यक्ष प्रशन .


बहरहाल, जय राम जी की.

और मेरा मानना ये है कि ये सब बाजारवाद का ही परिणाम है.

10 टिप्‍पणियां:

  1. बाबाजी, सारी बातें एकदम सटीक लिखी हैं। वजह भी हम सबको मालूम है। दुविधाग्रस्त हैं हम, खुदा भी चाहिये और सनम भी। ये भी अफ़ार्ड नहीं कर सकते कि हमारा बच्चा किसी साधारण स्कूल में पढ़े, और संस्कार भी चाहते हैं। स्कूल की श्रेष्ठता का पैमाना बिल्डिंग, स्टाफ़ और एडमिशन में होने वाली मुश्किलात हैं न कि वहाँ सिखाये जा रहे संस्कार। वैसे तो जनरेशन गप हमेशा रहा है, लेकिन फ़ास्ट जमाना होने के कारण इस युग में ये गैप कुछ ज्यादा ही है।
    मुझे लगती है हमारे वाली पीढ़ी (१९७० के आसपास की पैदाईश वाली), दिग्भ्रमित पीढ़ी है जो पिछले संस्कार पूरी तरह भुला नहीं पाई और संस्कार पूरी तरह आत्म्सात नहीं कर पाई। हो सकता है, मैं गलत हूं लेकिन मेरा मानना है कि दोस्ती जैसी फ़ीलिंग्स आने वाले समय में सिर्फ़ किताबों की बातें रह जायेंगी और कभी हम और आप अपने बच्चों को अपनी दोस्तियों के किस्से बतायेंगे(अगर उन्होंने सुने) तो शायद उन्हें यकीन ही न हो।
    चलता रहेगा यह युग संघर्ष, आप चलाते रहिये ऐसी ही पोस्ट्स। कमेंट करने में भी पोस्ट लिखने जैसा मजा आता है।

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  2. बदलते हुए समय के साथ संभल कर चलना सीखना होगा ! शुभकामनायें

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  3. नई पीढ़ी आधुनिक हो रही है लेकिन सिर्फ शहर मे । हाँ लेकिन गाँव मे भी अब टी वी है और वे भी किसी से कम नही है ।

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  4. गजेन्द्र जी, शरद जी, महक जी, कौशिक जी, और सतीश जी - मेरे उत्साह वर्धन के लिए आभार.

    और संजय जी (मौ सम कौन) - भाई मैं जहाँ रुक गया था - वहाँ से बाकि कि पोस्ट आपने लिख दिया. बढिया.

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  5. baba ji kai biscpoe sai bahut hi sunder subject par babaji kai vichar aaj ki nai peedhi ka bare main padhe bilkul hi sahi udgar hai babaji kai jo ki hum sab aaj kal dekh rahe hai
    lakin kuch keh nahi pa rahe hai,

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  6. हम उन किताबों को काबिल-ए-ज़ब्ती समझते हैं,
    जिन्हें पढ़कर बेटे बाप को ख़ब्ती समझते हैं...

    जय हिंद...

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  7. .

    दीपक जी,
    जितनी तेज़ रफ़्तार से ज़माना बदल रहा है, उतना ही जेनरेशन गैप भी बढ़ रहा है , परिवार में कभी-कभी एक दुसरे के साथ समय बिताने से , सही दिशा में बदलाव संभव है

    .

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  8. दीपक जी .....बदलाव ही इस दुनिया का असूल है .....बहुत सोच समझ के बच्चों के साथ समावेश बिठाना होगा .....आभार
    anu

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बक बक को समय देने के लिए आभार.
मार्गदर्शन और उत्साह बनाने के लिए टिप्पणी बॉक्स हाज़िर है.