16 अक्तू॰ 2010

आज अमृतयुक्त नाभि न भेदो........... कविता

आज अमृतयुक्त नाभि न भेदो..............

हे राम
आज अमृतयुक्त नाभि न भेदो..............
हे धनुर्धारी .......
दशानन ही क्यों ......
क्या उसने माँ सीता का हरण किया था..
पर यही पाप तो आज दोहराया जा रहा है.
बस सीता माता की जगह
किसी जनक की बेटी सिसक रही है.
अशोक वाटिका तो हर फ़ार्म हाउस में चमक रही है.
और हे मर्यादा पुरषोत्तम...
आज तुम कितने रावण मारोगे....
वो तो दस मुहं के साथ एक शरीर था.....
आज कई शरीर है पर
चेहरा एक का भी नहीं दीखता...
राक्षसों की इस भीड़ में
रावण नहीं पहचान में आता 

XXXXXX

कैसे संहारोगे  ?

देव-दानव सभी एक से....
बैठे एक ही पांत में..
मोहिनी परोस रही अमृत
सभी कर रहे पान ....
कौन विचारेगा 
कैसे पहचानेगा..
देव को – दानव को
निर्बल चंद्र अब और भयभीत
जिसने राहू को था पहचाना
अब तक छुपता फिरता है...
उसी राहू से
जो मौका पाकर फिरसे ग्रस्तता है .....
निर्बल शक्तिहीन चन्द्र को...
हे सुदर्शन धारी ...
दौड़े चले थे तुम 
– चक्र लिए कर में.
आज जब
देव दानव दोनों सम
कैसे संहारोगे  ?

9 टिप्‍पणियां:

  1. Deepak Sir,
    abhi ki isthiti ke anushar aapki kavita stya ko bayan karti hay..stya par astya ki vijay ke is pawan bela par ek sudhi chintak ko ye prashan zarur satata hay..

    आज तुम कितने रावण मारोगे....
    वो तो दस मुहं के साथ एक शरीर था.....
    आज कई शरीर है पर
    चेहरा एक का भी नहीं दीखता...
    राक्षसों की इस भीड़ में

    behad sundar rachna...

    NAWRATRI ki pawan bela par anekon badhai.

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  2. हे सुदर्शन धारी ...
    दौड़े चले थे तुम
    – चक्र लिए कर में.
    आज जब
    देव दानव दोनों सम
    कैसे संघारोगे
    बहुत सुन्दर प्रस्तुति ......वर्तनी का ध्यान रखें ..संघारोगे नहीं ..संहारोगे

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  3. दीपक जी! हमारे कालजयी ग्रंथों की यही विशेषता है कि हर युग में वे हमारे समक्ष आकर हमसे प्रश्न पूछते हैं.. आपने जितना सुंदर और मार्मिक वर्णन किया है और जो प्रश्न उठाए हैं, उनका उत्तर किसी के पास नहीं... बहुत सुंदर!!

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  4. किसी जनक की बेटी सिसक रही है.
    अशोक वाटिका तो हर फ़ार्म हाउस में चमक रही है.
    और हे मर्यादा पुरषोत्तम...
    आज तुम कितने रावण मारोगे....
    वो तो दस मुहं के साथ एक शरीर था.....
    आज कई शरीर है पर
    चेहरा एक का भी नहीं दीखता...
    राक्षसों की इस भीड़ में
    bahut hi sateek baat aaj ke yug ke keya .

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  5. वो तो दस मुहं के साथ एक शरीर था.....
    आज कई शरीर है पर
    चेहरा एक का भी नहीं दीखता...
    राक्षसों की इस भीड़ में
    रावण नहीं पहचान में आता

    दीपक जी बहुत गहरी बात कह गए दोनों कविताओं में ....
    हाँ शरीर तो अलग हैं पर चेहरा सभी का एक है तो पहचाना कैसे जाये ....
    दशवीं के मौके पर बहुत बढ़िया तोहफा दिया ....
    शुक्रिया ....!!

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  6. achchhi kavita aur pauranik kathaon se iska sambandh... in sawalon ka javab to kisi ke paas nahin hai... prashn sabhi poochh sakte hain... lekin Ram ko poojne waale bhi anek Ravan milenge...

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  7. किसी जनक की बेटी सिसक रही है.
    अशोक वाटिका तो हर फ़ार्म हाउस में चमक रही है.

    Bahut hi sundar prastuti hai

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  8. ज्यादा कुछ कहने की स्थिति में नहीं हूं। बस इतना कहूंगा -शानदार, शानदार और सिर्फ शानदार।

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  9. हर कोई दुसरे की नाभि भेदवाना चाहता है, अपने अंदर के राक्षस की नाभि कोंन भेदेगा

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बक बक को समय देने के लिए आभार.
मार्गदर्शन और उत्साह बनाने के लिए टिप्पणी बॉक्स हाज़िर है.